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देवी n. एक अप्सरा। देवी II. n. प्रह्रादपुत्र वीरोचन की स्त्री [भा.६.१८.१६] । देवी III. n. वरुण की पत्नी । इसे बल नामक पुत्र एवं सुरा नामक कन्या थी [म.आ.६०.५१] ; देवी ४. देखिये । देवी IV. n. विश्वव्यापक आदिमाया के लिये प्रयुक्त सामान्यनाम । देवी का शब्दशः अर्थ ‘स्त्री देवता’ है । इस अर्थ से, देवों के स्त्रियों के लिये, यह शब्द प्रयुक्त किया जाता है । किंतु ‘देवी’ यह नाम प्रायः आदिमाया ने पृथ्वी पर लिये नानाविध अवतारों के लिये, अधिकतर प्रयुक्त किया जाता है । पुराणों में ‘देवी’ यह देवता अत्यंत प्रभावशाली मानी गयी है । इसलिये किसी भी संकट के समय, देव एवं मानव, इसकी शरण में जा कर संकटमुक्त होते है । स्कंद, पद्म, मत्स्य पुराणों में देवी की पराक्रम की अनेक कथाएँ ग्रंथित की गयी हैं । ‘कालिका पुराण’ एवं ‘देवी भागवत’ ये ग्रंथ देवीमाहात्म्य बताने के लिये ही केवल लिखे गये है । मार्कडेय पुराण में, देवीमाहात्म्य बताने के लिये ‘सप्तशती’ नामक उपाख्यान की रचना की गयी है [मार्क.७८-९०] । उसका पठन देवीभक्त लोग प्रतिदिन किया करते हैं । मानव एवं सृष्टि में जो शक्तिस्त्रोत है, उसकी उपासना, ‘देवी उपासना’ का आद्य अधिष्ठान है । देवगणों में से दत्त, शिव, एवं गणेश देवताओं में, एवं स्वयं मनुष्य के शरीर में जो सामर्थ्य एवं शक्ति है, उन्हें एकत्रित कर के कार्यप्रवण बनाना, यह ‘देवी उपासना’ का मुख्य उद्देश्य है । देवीद्वारा विश्व की उत्पत्ति होती है, एवं विश्व का विस्तार ही उसीके कृपाप्रसाद होती है, सृष्टिविस्तार के लिये, उस सृष्टि में हरएक प्राणिमात्र की आसक्ति या काम निर्माण होना बहुत जरुरी है । जब तक सृष्टि में मोह नहीं, तब तक सृष्टि का विस्तार नही हो सकता । सृष्टि के चराचर वस्तुओं के बारे में, उपासकों के मन में आसक्ति या काम निर्माण करना, एवं पश्चात उस आसक्ति को पूरी करना, यह ‘देवी उपासना’ से ही केवल साध्य हो सकता है । देवी के अनेक अवतार पृथ्वी पर हो गये हैं । उस हर एक अवतार का प्रभाव एवं रुप अलग है । देवी के उस अवतार के रुप एवं गुणवैशिष्टय के अनुसार विभिन्न रखा गया है । देवी के इन विभिन्न अवतारों के नाम एवं उनके गुणवैशिष्टय इस प्रकार हैः--- (१) त्रिगुणात्मिका---चराचर सृष्टि का स्वरुप सत्त्व, रज एवं तम इन तीनो गुणों से युक्त, अतएव ‘त्रिगुणात्मक’ है । उन तीनो स्वरुप देवी धारण करती है । इसलिये उसे ‘त्रिगुणात्मिका’ कहते है । अपने त्रिगुणात्मक स्वरुप के कारण, आध्यात्मिक शक्ति के साथ आदि दैविक एवं आधिभौतिक सामर्थ्य ही, देवी अपने भक्तों को प्रदान करती है । उस कारण, ‘देवी उपासना’ से भक्तों की आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक उन्नति हो जाती है । (२) दुर्गा---मार्कडेय पुराणांतर्गत ‘देवी माहात्म्य’ में, देवी का निर्देश दुर्गा नाम से किया गया है, एवं उसे काली, लक्ष्मी, एवं सरस्वती का अवतार कहा है । दुर्गम नामक असुर का वध करने के कारण, देवी को ‘दुर्गा’ नाम प्राप्त हुआ । देवों के नाश के लिये, दुर्गम तपस्या कर रहा था । ब्रह्मदेव को प्रसन्न कर, उसके वर से दुर्गम ने सारे वेद, पृथ्वी पर से चुरा लिये । उस कारण यज्ञयागादि सारे कर्म बंद हुएँ । पृथ्वी पर अनावृष्टि का भय छा गया । ब्राह्मणों ने विनती करने पर, देवी ने शतनेत्रयुक्त रुप धारण कर, दुर्गम का वध किया, एवं उसने चुरायें हुएँ वेद मुक्त किये [पद्म. स्व. २८] ;[दे. भा.७.२८] । (३) महिषासुर मर्दिनी एवं महालक्ष्मी---महिष नामक राक्षस, ब्रह्मदेव के वर के कारण उन्मत्त हो कर देवों को त्रस्त करने लगा । देवों ने प्रार्थना करने पर आदिमाया ने अष्टादश भुजायुक्तरुप धारण किया, एवं रणांगण में महिषापुर का वध किया । देवी के उस अवतार को ‘महिषासुर मर्दिनी’ एवं ‘महालक्ष्मी’ कहते है (महिषासुर देखिये) । महिषासुर का वध करने के बाद, उस स्थान पर महालक्ष्मी ने पापनाशनतीर्थ उत्पन्न किया [स्कंद.१.२.६५,३.३०] । (४) चामुंडा---शुंभ-निशुंभ नामक दो दानवों ने, देवी का वध करने के लिये, चण्ड-मुण्ड नामक दो राक्षस भेज दिये । किंतु देवी ने उन दोनों का ही वध किया । उस कारण, इसे ‘चामुंड’ नाम प्राप्त हुआ । चण्ड-मुण्ड को मारने के बाद, चामुंड ने शुंभ-निशुंभ का भी वध किया [स्कंद.५.१.३८] ; चंड ३. देखिये । शुंभ-निशुंभ के पक्ष का रक्तबीज नामक और एक असुर था । ब्रह्मदेव के वरप्रभाव से, उसके रक्त के बिंदु भूमि पर पडते ही उतने ही राक्षस निर्माण होते थे । इस कारण वह युद्ध में अजेय हो गया था । चांमुडा ने उसका सारा रक्त, भूमी पर एक ही रक्तबिंदु छिडकने का मौका न देते हुये, प्राशन किया । उस कारण रक्तबीज का नाश हुआ [दे.भा.५.२७-२९] ;[मार्क.८५] ;[शिव. उमा.४७] ; रक्तबीज देखिये । (५) शाकंभरी---अपने क्षुधित भक्तों को, देवी ने कंदमूल एवं सब्जियॉं खाने के लिये दी । उस कारण, उसे ‘शाकंभरी’ नाम प्राप्त हुआ । (६) सती---दक्ष प्रजापति की कन्या के रुप में आदिमाया ने अवतार लिया, उसे ‘सती’ कहते है । अपनी इस कन्या का विवाह दक्ष ने महादेव से कर दिया । पश्चात् दक्ष ने एक पशुयज्ञ प्रारंभ किया । उस यज्ञ के लिये, दक्ष ने अपनी कन्या सती एवं जमाई शिव को निमंत्रण नहीं दिया । फिर भी सती पिता के यज्ञस्थान में यज्ञसमारोह देखने आयी । वहॉ दक्ष ने उसका अपमान किया । तब क्रोधवश सती ने, यज्ञकुंड में अपना देह झोंक दिया । शिव को यह ज्ञात होते ही, दुखी हो कर सती का अर्धदग्ध शरीर कंधे पर ले कर, वह नृत्य करने लगा । उस नृत्य से समस्त त्रैलोक्य त्रस्त हो गया । पश्चात् विष्णु ने शंकर को नृत्य से परावृत्त करने के लिये, सती के कलेवर का एक एक अवयव शस्त्र से तोडना प्रारंभ किया । जिन स्थानों पर सती के अवयव गिर, उन स्थानों पर सती या शक्ति देवी के इक्कावन स्थान प्रसिद्ध हुएँ । उन्हे ‘शक्तिपीठ’ कहते है (शक्ति देखिये) । (७) पार्वती, काली, एवं गौरी---दक्षकन्या सती ने हिमालय के उदर में पुनः जन्म लिया । हिमालय की कन्या होने से, इसे हैमवती, गिरिजा, एवं पार्वती ये पैतृक नाम प्राप्त हुएँ । इसकी शरीरकांति काली होने के कारण, उसे ‘काली’ नामांतर भी प्राप्त हुआ था । एक बार शंकर ने मजाक के हेतु से, पार्वती की कृष्णवर्ण के उपलक्ष में, उसे ‘काली’ कह के पुकारा । इसने यह अपमान समझा, एवं गौरवर्ण प्राप्त करने के लिये तपस्या करने, यह हिमालय पर्वत में गयी । शंकर अत्यंत स्त्रीलंपट होने से, उसके मंदिर में किसी भी स्त्री का प्रवेश न हो, ऐसी व्यवस्था इसने की । अपनी माता की सखी कुसुमामोदिनी एवं शिवगणों में से वीरक को, शंकर की मंदिरद्वार पर कडा पहारा रखने के लिये इसने कहा । फिर भी वीरक की दृष्टि बचा कर, अंधकासुर का अडि नामक पुत्र सर्प का रुप ले कर शिवमंदिर में पहुँच गया । पश्चात् पार्वती का रुप ले कर उसने शंकर को भुलाने का प्रयत्न किया । किंतु शंकर ने अंतर्ज्ञान से उसे पहचान कर उसका नाश किया । वीरक पहारे पर होते हुए भी, अडि राक्षस को शिवमंदिर में प्रवेश मिल गया । उस लापरवही के लिये पार्वती ने उसे शाप दिया, ‘तुम पृथ्वी पर शिला हो कर गिरोगे’। पश्चात् पार्वती की तपस्या से संतुष्ट हो कर, ब्रह्मदेव ने उसे गौरवर्ण प्रदान किया । उससे इसे गौरी नाम प्राप्त हुआ [पद्म. सृ.४४] ;[मत्स्य.१५५-१५८] ;[कालि.४७] । (८) कालिका---दारुक दैत्य का संहार करने के लिये, पार्वती ने शंकर के कंठ से, एक महाभयानक देवी निर्माण की । वह कृष्णवर्णीय होने से उसे ‘कालिका’ नाम प्राप्त हुआ । कालिका ने एक गर्जना करते ही, दारुक अपने सैन्य के साथ मृत हो गया । शिव के कंठ से उत्पन्न होने के कारण, कालिका के शरीर में शिवकंठ में स्थित विष उतर गया था । उस कारण दारुक के वध पश्चात्, कालिका के उग्र स्वरुप से स्वयं देव त्रस्त हो गये । पश्चात् शंकर ने वालरुप धारण कर, कालिका का स्तनपान किया एवं उसका सारा विष शोषण किया । तब यह शान्त हो गयी [स्कंद. १.२.६२] । (९) मातृका---देवी का और एक अवतार मातृका है । घंटाकर्णि, त्रैलोक्यमोहिनी आदि सात मातृका (सप्त. मातृका) प्राचीनकाल से प्रसिद्ध हैं । मुहेंजोडडो एवं हडप्पा के उत्थनन में उपलब्ध ‘सिंधुधाटी संस्कृति’ में भी मातृका की मूर्तियॉं प्राप्त हुई हैं (मातृका देखिये) । इसके अतिरिक्त देवी भागवत एवं मत्स्य पुराण में, देवी के अन्य चौदह अवतारों का निर्देश किया गया है । देवी के वे चौदह अवतार इस प्रकार हैः---१. सिद्धांविका---स्कंद ने उसकी स्थापना की । २. तारा---यह दक्षिण दिशा में स्थित है । ३. भास्करा---यह पश्चिम दिशा का पालन करती है, एवं नक्षत्रों को प्रकाश देती है । ४. योगीश्वरी---यह उत्तर दिशा में रहती है । उसके दृष्टिपान से सनकादिक योगी सिद्ध बने । ५. त्रिपुरा---त्रिपुरासुर का वध करने के लिये, इसने शंकर की मदद की । ६. कोलंबा---यह पूर्व दिशा में वाराहगिरि पर रहती है । ७. कपालेशी---यह कोलंबा के साथ रहती है । ८. सुवर्णाक्षी। ९. चर्चिता। १०. त्रैलोक्यविजया---यह पश्चिम दिशा में रहती है । ११. वीरा। १२. हरिसिद्धि---यह प्रलय की देवता है । १३. चंडिका---ईशान्य में रहनेवाली इस देवी ने चंडमुंड का वध किया । १४. भूतमाला अथवा भूतमाता---यह गुह के भ्रूमध्य से निकली [स्कंद १.२.४७,३.१.१७] ;[मत्स्य.१३] ;[दे. भा.९] । देवी IV. n. उपरिनिर्दिष्ट देवी अवतारों के अतिरिक्त, देवी के १०८ नाम, एवं स्थान पुराणों में मिलते हैं । देवी के ये स्थान ‘देवीपीठ’ नाम से पहचान जाते हैं । पुराणों मैं निर्दिष्ट देवीपीठ एवं वहॉं स्थित देवी के अवतार के नाम निम्नलिखित सूची में दिये गये ह । इस सूची में से प्रथम नाम देवीपीठ का, एवं उसके बाद कंस में दिया नाम वहॉं स्थित देवी के अवतार का हैः--- अच्छोद (सिद्धदायिनी), अट्टहास (फुल्लारा), अमरकंटक (चण्डिका), अमब्र (विश्वकाया), अम्बर (विश्वकाया देवी), अश्वत्थ (वन्दनीया देवी), उज्जयिनी (चण्डिका), उत्कलात (विमला), उत्तरकुरु (औषधि), उत्पलावर्तफ (लोला), उष्णतीर्थ (अभाया), एकाम्रक (कीर्तिमती), कन्यकाश्रम (शर्वाणी), कपालमोचन (शुद्धा, शुद्धि,) कमलाक्ष (महोत्पलादेवी), कमलालय (कमला, कमलादेवी), करतोया तट (अपर्णा), करवीर (महिषमर्दिनी), करवीर (महालक्ष्मी), कर्कोट (मुकुटेश्वरी), कर्णाट (जयदुर्गा), कर्णिक (पुरुहूता), कश्मीर (महामाया), काञ्ची (देवगर्भा), कार्तिकेय (शाङ्करी, यशस्करी देवी), कान्यकुब्ज (गौरी), कामगिरी (कामाख्या), कायावरोहण (माता), कालंजर (काली), कालमाधव (काली), कालीपीठ (किष्किंध पर्वत (तारा), कुब्जाम्रक (त्रिसंध्या), कुमुद (सत्यवादिनी), कुरुक्षेत्र (त्रिसंध्या), कुमुद (सत्यवादिनी), कुरुक्षेत्र (सावित्री), कुशद्वीप (कुशोदका), कृतशौच (सिंहिका), केदा (मार्गदायिनी), कोटितीर्ह्त (कोतवी), गंगाद्वार (हरिप्रिया, रतिप्रिया देवी), गंगा (मंगला), गण्डकी (गण्डकी), गन्धमादन (कामुका, कामाक्षी), गया (मंगला), गोकर्ण (भद्र कालिका, भद्रकर्णिका), गोमन्त (गोमती), गोदाश्रमे (त्रिसंध्या), गोदावरी तट (विश्वेशी), चट्टल (भवानी), चन्द्रभागा (काला), चित्त (ब्रह्मकला देवी), चित्रकूट (सीता), चैत्ररथ (मदोत्कटा),छगलाण्ड (प्रचण्डा), जनस्थान (भ्रामरी), जयन्ती (जयत्नी) जालन्धर (त्रिपुरमालिनी), जालन्धर (विश्वमुखी), ज्वालामुखी (अम्बिका), त्रिकूट रुद्रसुंदरी), त्रिपुरा (त्रिपुरसुंदरी), त्रिस्त्रोता (भ्रामरी) देवदारुवन (पुष्टि), देवलोक (इंद्राणी), देविकातट (नन्दिनी), द्वारवती (रुक्मिणी (सुगंधा), नैपाल (महामाया), नैभिष (लिंगलेश्वरी), पातल (परमेश्वरी), पारतटे (पारा), पिण्डारक वन (धृति), पुण्ड्रवर्धन (पाटला), पुरुषोत्तम (विमला), पुष्कर (सावित्री, पुरुहूतादेवी), प्रभास (चंद्रभागा), प्रभास (पुष्करावती), प्रयोग (ललिता), बदरी (उर्वशी), बहुला (चण्डिका), बिरुवक (बिल्वपत्रिका), ब्रह्मास्य (सरस्वती), भद्रेश्वर (भद्रा), भरताश्रम (अनंता, अंगना), भैरवपर्वत (अवन्ति), मकरन्दक (चण्डिका), मगध (सर्वानंदकरी), मणिवेदिक (गायत्री), मथुरा (देवकी), मन्दर (कामचारिणी), मर्कोट (मुकुटेश्वरी), मलपर्वत (रम्भा), मलयाचल (कल्याणी) महाकाल (महेश्वरी), महालय (महापद्मा, महाभागा), महालिंग (कपिला), मांडव्य (माण्डवी देवी), मातृणा (वैष्णवी), माधव वन (सुगन्धा), मानस (दाक्षायणी), मानस (कुमुदा), मायापुरी (नीलोत्पला), माथापुरी (कुमारी), माहेश्वरपुरी (स्वाहा), मिथिला (महादेवी), मुकुट (सत्यवादिनी), यमुना (मृगावती), यशोर (यशोरेश्वरी), युगाद्या (भूतधात्री), रत्नावली (कुमारी), रामगिरि (शिवानी), रामतीर्थ (रमणा), रामा (तिलोत्तमा), रुद्रकोटि (रुद्राणी), लखा (इंद्राक्षी), ललित (संनति), वक्त्रेश्वर (महिषामर्दिनी), वराहशैल (जया), भद्रसुंदरी), विनायक (उमादेवी), विन्ध्य (विन्ध्यनिवासिनी), विन्ध्य कन्दर (अमृता), विपाशा (अमोघाशी), विपुल (विपुला), विभाष ((कपालिनी),विराट (अम्बिका विशालाक्षी), विश्वेर (पुष्टि, विश्वा), वृन्दावन (उमा), वृन्दावन (राधा), वेगल (प्रचण्डा), वेणानदी (अमृता), वेदवंदन (गायत्री), वैद्यनाथ (जयदुर्गा), वैद्यनाथ (अरोगा), वैश्रवणालय (निधि), शडन्खोद्धार (ध्वनि), शालिग्राम (महादेवी), शिवकुण्ड (शिवानन्दा), शिवचक्र (शुभा-चण्डा), शिवलिंग (जनप्रिया), शिव-संनिधि (पार्वती), शुचि (नारायणि,) शोण (शोणाक्षी), शोणसंग्राम (सुभद्रा), श्रीपर्वत (श्रीसुंदरी), श्रीशैल (महालक्ष्मी), श्रीशैल (माधवी), सती 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