संस्कृत सूची|शास्त्रः|आयुर्वेदः|योगरत्नाकरः| ॥ अथानाहनिदानम् ॥ योगरत्नाकरः अथ योगरत्नाकरस्यानुक्रमणिका । विषयसूची ॥ अथ योगरत्नाकरः ॥ ॥ अथ पादचतुष्टयम् ॥ ॥ अथ दूतपरीक्षा ॥ ॥ अथ दूतपरीक्षा ॥ ॥ अथ शकुनाः ॥ ॥ अथ रोगिणां अष्टस्थानानि लक्षयेत् ॥ ॥ अथ नाडीपरीक्षा ॥ ॥ अथ मूत्रपरीक्षा ॥ ॥ अथ दोषत्रयलक्षणानि ॥ ॥ अथ मलपरीक्षा ॥ ॥ अथ शब्दपरीक्षा ॥ ॥ अथ स्पर्शपरीक्षा ॥ ॥ अथ रूपपरीक्षा ॥ ॥ अथ दृक्परीक्षा ॥ ॥ अथास्यपरीक्षा ॥ ॥ अथ जिव्हापरीक्षा ॥ ॥ अथ कालज्ञानम् ॥ ॥ अथ देशाः ॥ ॥ अथ केषु मासेषु दोषत्रयप्रकोपः ॥ ॥ केषु ऋतुषु दोषोत्पत्तिः ॥ ॥ अथ वातादिप्रकोपः ॥ ॥ अथ दोषत्रयलक्षणानि ॥ ॥ अथ दोषत्रयशमनम् ॥ ॥ अथाहर्निशदोषत्रयप्रवर्तनम् ॥ ॥ अथ आमव्याधिलक्षणम् ॥ ॥ अथ तत्प्रतीकारः ॥ ॥ अथ वयोविचारः ॥ ॥ अथ प्रकृतिः ॥ ॥ अथारोगलक्षणम् ॥ ॥ अथ परिभाषा ॥ ॥ अथ कलिङ्गपरिभाषा ॥ ॥ अथ धान्यादिफलकन्दशाकगुणाः ॥ ॥ अथ तमाखुगुणाः ॥ ॥ अथ मांसगुणाः ॥ ॥ अथानूपजातिलक्षणं तद्रुणाश्च ॥ ॥ अथ जाङ्गलमांसगुणाः ॥ ॥ अथानूपमांसगुणाः ॥ ॥ अथ मत्स्यादिजलजन्तवः ॥ ॥ अथ शङ्खादिगुणाः ॥ ॥ अथ सिद्धान्नादिपाकगुणकथनम् ॥ ॥ अथ साराणि ॥ ॥ अथ यूषाः ॥ ॥ अथ सूपाः ॥ ॥ अथ पर्पटाः ॥ ॥ अथ मुद्गतण्डुलकृशरा ॥ ॥ अथ पायसम् ॥ ॥ अथ पोलिका ॥ ॥ अथाङ्गारिका ॥ ॥ अथ वटकाः ॥ ॥ अथ पिष्टभक्ष्यजनितगुणाः ॥ ॥ अथ पानकानि ॥ ॥ अथ रागखाण्डवः ॥ ॥ अथ रसाला शिखरिणी ॥ ॥ अथ भरित्थम् ॥ ॥ अथ पृथुकादयः ॥ ॥ अथ वेसवारः ॥ ॥ अथ आयुर्विचारमाह ॥ ॥ अथ स्वल्पायुषो लक्षणानि ॥ ॥ अथ नित्यप्रकारमाह ॥ ॥ अथ रसादीनां पाकलक्षणमाह ॥ ॥ अथ रात्रिचर्या ॥ ॥ अथ ऋतुचर्यामाह ॥ ॥ अथ वर्षासु हिताहितमाह ॥ ॥ अथ शरदि हिताहितमाह ॥ ॥ अथ हेमन्ते हिताहितमाह ॥ ॥ अथ शिशिरे हिताहितमाह ॥ ॥ अथ वसन्ते हिताहितमाह ॥ ॥ अथ ग्रीष्मे हिताहितमाह ॥ ॥ अथ जलगुणाः ॥ ॥ अथोष्णवारिगुणाः ॥ ॥ अथ ऋतुविशेषे जलक्काथनियमः ॥ ॥ अथ रात्रिसेवितोष्णोदकगुणाः ॥ ॥ अथ निषिद्धमुष्णोदकम् ॥ ॥ अथोष्णोदकप्रयोगः ॥ ॥ अथोष्णवारिमन्दाचरणम् ॥ ॥ अथ शृतशीतगुणाः ॥ ॥ अथोष्णजलविधिः ॥ ॥ अथ दुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ तत्र वर्णभेदाः ॥ ॥ अथ माहिषम् ॥ ॥ अथाजम् ॥ ॥ अथाविकम् ॥ ॥ अथौष्ट्रम् ॥ ॥ अथैभम् ॥ ॥ अथाश्वम् ॥ ॥ अथ गार्दभम् ॥ ॥ अथ मानुषम् ॥ ॥ अथ धारोष्णगुणाः ॥ ॥ अथापक्कदुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ क्वथितदुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ क्षीरमित्राणि ॥ ॥ अथ क्षीरामित्राणि ॥ ॥ अथ सन्तानिकागुणाः ॥ ॥ अथ दधिगुणाः । ॥ अथ निःसारदुग्धदधिगुणाः ॥ ॥ अथ मन्ददधिगुणाः ॥ ॥ अथ सरगुणाः ॥ ॥ अथ तक्रगुणाः ॥ ॥ अथ क्वथिततक्रगुणाः ॥ ॥ अथ नवनीतम् ॥ ॥ अथ चिरन्तननवनीतगुणाः ॥ ॥ अथ घृतगुणाः ॥ ॥ अथ माहिषम् ॥ ॥ अथ आजम् ॥ ॥ अथाविकम् ॥ ॥ अथ नूतनघृतगुणाः ॥ ॥ अथ पुराणघृतम् ॥ ॥ अथ रोगविशेषे घृतनिषेधः ॥ ॥ अथ तैलगुणाः ॥ ॥ अथैरण्डतैलम् ॥ ॥ अथ सार्षपतैलम् ॥ ॥ अथ कुसुम्भतैलम् ॥ ॥ अथ राजिकातैलम् ॥ ॥ अथ क्षौमादितैलगुणाः ॥ ॥ अथ धान्यतैलम् ॥ ॥ अथ मधुगुणाः ॥ ॥ अथ विशिष्टगुणाः ॥ ॥ अथेक्षुगुणाः ॥ ॥ अथ फाणितम् ॥ ॥अथ गुडः ॥ ॥ अथ जीर्णगुडगुणाः ॥ ॥ अथ शर्करागुणाः ॥ ॥ अथ रायपुरी ॥ ॥ अथ मूत्राष्टकम् ॥ ॥ अथ त्रिफला ॥ ॥ अथ त्रिकटु ॥ ॥ अथ पञ्चकोलम् ॥ ॥ अथ षडूषणम् ॥ ॥ अथ चतुरूषणम् ॥ ॥ अथ चातुर्जातम् ॥ ॥ अथ दशमूलम् ॥ ॥ अथ मध्यमपञ्चमूलानि ॥ ॥ अथ पञ्चवल्कलानि ॥ ॥ अथ पञ्चभृङ्गगुणाः ॥ ॥ अथाम्लपञ्चकम् ॥ ॥ अथ पञ्चाङ्गानि ॥ ॥ अथ संतर्पणगुणाः ॥ ॥ अथ यक्षकर्दमगुणाः ॥ ॥ अथ केशरनामगुणाश्च ॥ ॥ अथ पञ्चसुगन्धिकगुणाः ॥ ॥ अथ षड्रसाः ॥ ॥ अथ मधुरत्रिकम् ॥ ॥ अथ समत्रिकम् ॥ ॥ अथ क्षारत्रयम् ॥ ॥ अथ क्षारपञ्चकम् ॥ ॥ अथ क्षाराष्टकम् ॥ ॥ अथ क्षारद्वयम् ॥ ॥ अथ लवणत्रयम् ॥ ॥ अथ लवणपञ्चकम् ॥ ॥ अथ लवणषट्कम् ॥ ॥ अथ चन्दनम् ॥ ॥ अथ गुडूचीसत्त्वगुणाः ॥ ॥ अथ स्वरसादयः ॥ ॥ अथ स्वरसकल्पना ॥ ॥ अथ पुटपाककल्पना ॥ ॥ अथ कल्कः ॥ ॥ अथ क्वाथः ॥ ॥ अथ हिमकल्पना ॥ ॥ अथ फाण्टकल्पना ॥ ॥ अथ चूर्णकल्पना ॥ ॥ अथ वटककल्पना ॥ ॥ अथावलेहः ॥ ॥ अथ स्नेहपाकविधिः ॥ ॥ अथ लाक्षारसविधिः ॥ ॥ अथासवारिष्टः ॥ ॥ अथ शिलाजतुकरणम् ॥ ॥अधुना धात्वादीनां लक्षणशोधनमारणगुणानाह ॥ ॥ अथ सप्तधातुवर्णाः ॥ ॥ अथ सर्वधातुसामान्यमारणम् ॥ ॥ अथ स्वर्णम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ गुणाः ॥ ॥ अथ शुद्धस्वर्णदलगुणाः ॥ ॥ अथ रौप्यम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ तद्गुणाः ॥ ॥ अथ ताम्रम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथान्यच्च त्रपुताम्रम् ॥ ॥ अथ सोमनाथताम्रम् ॥ ॥ अथ सामान्यताम्रगुणाः ॥ ॥ अथ रीतिकांस्ये ॥ ॥ अथ लोहम् ॥ ॥ अथ कान्तलक्षणम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ निरुत्थानम् ॥ ॥ अथ गुणाः ॥ ॥ अथानुपानानि ॥ ॥ अथ मण्डूरकरणम् ॥ ॥ अथ वङ्गम् ॥ ॥ अथ नागम् ॥ ॥ अथाभ्रकम् ॥ ॥ अथ स्वर्णमाक्षिकम् ॥ ॥ अथ पारद: ॥ ॥ अथ गन्धक: ॥ ॥ अथ हिड्गुल: ॥ ॥ अथ रत्नानां शोधनमारणे ॥ ॥ अथ वैक्रन्तम् ॥ ॥ अथ शेषरत्नशोधनमारणानि ॥ ॥ अथ शिलाजतु ॥ ॥ अथ सिन्दूरम् ॥ ॥ अथ समुद्रफेन: ॥ ॥ अथैरण्डबीजशुद्धि: ॥ ॥ अथ शड्ख: ॥ ॥ अथ भूनागसत्वमयूरपक्षसत्वगुणा: ॥ ॥ अथ कर्पूरशुद्धि: ॥ ॥ अथ टड्कणशोधनम् ॥ ॥ अथ विषम् ॥ ॥ अथ गौरीपाषाणाभेद: ॥ ॥ अथाश्रसत्वपातनविधि: ॥ ॥ अथ क्षारकल्पना ॥ ॥ अथ वमनम् ॥ ॥ अथ विरेचनम् ॥ ॥ अथ रेचनम् ॥ ॥ अथ मेघनादरेचनरस: ॥ ॥ अथ नस्यम् ॥ ॥ अथ कर्णपूरणम् ॥ ॥ अथ रक्तस्त्रुति: ॥ ॥ अथ जृम्भालक्षणम् ॥ ॥ अथ हृल्लासलक्षणम् ॥ ॥ तत्र क्रमप्राप्तं प्रथमं ज्वरलक्षणम् ॥ ॥ अथ ज्वरनिदानम् ॥ ॥ अथ क्रमप्राप्तस्थ ज्वरस्य चिकित्सा ॥ ॥ अथौषधाद्यजीर्णेऽन्नं न ग्राह्यम् ॥ ॥ अथ ज्वरे पथ्यानि ॥ ॥ अथ पाचनम् ॥ ॥ अथाष्टाड्गावलेहिका ॥ ॥ अथ सन्धिकादीनां चिकित्सा ॥ ॥ शीताड्गसंनिपातोऽसाध्य: ॥ ॥ अथ विषमज्वर: ॥ ॥ अथ चूर्णानि ॥ ॥ अथ कुरण्टकादिनामा लेह: ॥ ॥ अथ घृतानि ॥ ॥ अथ तैलानि ॥ ॥ अथ पाका: ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथ सप्तधातुगतज्वराणां लक्षणम् ॥ ॥ अथातीसारनिदानम् ॥ ॥ अथ अवलेह: ॥ ॥ अथ अष्टकम् ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथ ग्रहणीनिदानम् ॥ ॥ अथातो ग्रहणीचिकित्सितं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्लेष्मग्रहणीचिकित्सा ॥ ॥ अथ चित्रकादिगुटिका ॥ ॥ अथ तक्रहरीतकी ॥ ॥ अथ कल्याणकावलेह: ॥ ॥ अथ चूर्णम् ॥ ॥ अथ बिल्वाद्यं घृतम् ॥ ॥ अथ द्राक्षासवः ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथार्शोरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ त्रिदोषजसहजार्शसोर्लक्षणम् ॥ ॥ अथौपद्रवादसाध्यत्वमाह ॥ ॥ अथ तिलादिमोदक:॥ ॥ अथ काड्कायनगुटिका ॥ ॥ अथ बाहुशालगुड: ॥ ॥ अथार्शसि शर्करासव: ॥ ॥ अथ व्योषाद्यं चूर्णम् ॥ ॥ अथ भस्मकलक्षणमाह ॥ ॥ अथ विषूच्यादिचिकित्सा ॥ ॥ अथ भस्मकरोगनिदानचिकित्से ॥ ॥ अथ क्रिमिनिदानम् ॥ ॥ अथात: पाण्डुरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ रक्तपित्तनिदानम् ॥ ॥ अथ राजयक्ष्मनिदानम् ॥ ॥ अथ क्षयरोगचिकित्सा ॥ ॥ अथ कासनिदानम् ॥ ॥ अथ कासचिकित्सा । ॥ अथातो हिक्कानिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्वासचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ तमकस्यैव पित्तानुबन्धाज्ज्वरादियोगेन प्रतमकसंज्ञामाह ॥ ॥ अथ श्वासचिकित्सा ॥ ॥ अथ स्वरभेदनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातोऽरोचकनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातश्छर्दिनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ छर्दिचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ सैन्धवादियोग: ॥ ॥ अथ त्रिदोषच्छर्दि: ॥ ॥ अथ तृष्णानिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ तृष्णाचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ मूर्च्छानिदानम् ॥ ॥ अथ पानात्ययपरमदपानाजीर्णपानविभ्रमनिदानचिकित्से ॥ ॥ अथ दाहनिदानम् ॥ ॥ अथोन्मादनिदानं चिकित्सा च ॥ ॥ अथ भूतोन्मादनिदानमाह ॥ ॥ अथापस्मारनिदानमाह ॥ ॥ अथ वातरोगनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्रोत्रादिगतलक्षणमाह ॥ ॥ अथाक्षेपकादिरोगलक्षणान्याह ॥ ॥ अथानुक्तवातरोगसड्वहार्थमाह ॥ ॥ अथ तच्चिकित्सा ॥ ॥ अथ हिड्ग्वादिचूर्णम् ॥ ॥ अथ प्रत्याध्मानोरुस्तम्भयो: कल्कादि ॥ ॥ अथावशिष्टानां प्रतीकार: ॥ ॥ अथ सर्ववातरोगाणां सामान्यप्रतीकारानाह ॥ ॥ अथ गुग्गुलव: ॥ ॥ अथ तैलानि ॥ ॥ अथ पञ्चतिक्तघृतम् ॥ ॥ अथ वातरक्तनिदानम् ॥ ॥ अथ वातरक्तचिकित्सा ॥ ॥ अथोरुस्तम्भ्रनिदानमाह ॥ ॥ अथामवातनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथ शूलनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ परिणामशूलनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथातोदावर्तनिदानम् ॥ ॥ अथानाहनिदानम् ॥ ॥ अथातो हृद्रोगनिदानम् ॥ ॥ अथोरग्रहनिदानम् ॥ ॥ अथ मूत्राघातनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातो मेहनिदानम् ॥ ॥ अथ ग्रन्थान्तरे बहुमूत्रमेहनिदानम् ॥ ॥ अथोदरनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथ तच्चिकित्सा ॥ ॥ अथ सर्वोदरेषु सामान्यविधि: ॥ ॥ अथात: शोथनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ मुष्कान्त्रवृद्धिवर्ध्मरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ गलगण्डगण्डमालापचीग्रन्थ्यर्बुदनिदानमाह ॥ ॥ अथ श्लीपदनिदानम् ॥ ॥ अथ विद्रधिनिदानम् ॥ ॥ अथातो विद्रधिचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ व्रणशोथनिदानम् ॥ ॥ अथ सद्योव्रणनिदानमाह ॥ ॥ अथाग्निदग्धव्रननिदानमाह ॥ ॥ अथ भग्नव्रणनिदानमाह ॥ ॥ अथ नाडीव्रणनिदानम् ॥ ॥ अथ भगन्दरनिदानम् ॥ ॥ अथोपदंशनिदानम् ॥ ॥ अथ शूकदोषनिदानम् ॥ ॥ अथ कुष्ठनिदानम् ॥ ॥ अथ शीतपित्तोदर्दकोठनिदानम् ॥ ॥ अथाम्लपित्तनिदानम् ॥ ॥ अथ विसर्पनिदानमाह ॥ ॥ अथ विस्फोटनिदानमाह ॥ ॥ अथ स्त्रायुकनिदानम् ॥ ॥ अथ मसूरिकानिदानमाह ॥ ॥ अथ क्षुद्ररोगनिदानमाह ॥ ॥ अथ मुखरोगाणां निदानान्याह ॥ ॥ अथ कर्णरोगाधिकार: ॥ ॥ अथ नासारोगाधिकार: ॥ ॥ अथ शिरोरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ नेत्ररोगाणांधिकार: ॥ ॥ अथ स्त्रीरोगाधिकार: ॥ ॥ अथ योनिरोगाधिकार: ॥ ॥ अथानाहनिदानम् ॥ ’ योगरत्नाकर ’ हा आयुर्वेदावरील मूळ प्राचीन ग्रंथ आहे. Tags : ayurvedyogaratnakarआयुर्वेदयोगरत्नाकर ॥ अथानाहनिदानम् ॥ Translation - भाषांतर ॥ अथानाहनिदानम् ॥आमं शकृद्वा निचितं क्रमेण भूयो विबद्धं विगुणानिलेन । प्रवर्तमानं न यथा स्वमेनं विकारमानाहमुदाहरन्ति ॥१॥अथामजमानाहमाह ॥ तस्मिन्भवत्यामसमुद्भवे तु तृष्णाप्रतिशायशिरोविदाहा: । आमाशये शूलमथो गुरुत्वं हृत्स्तम्भनोद्गारविघातनं च ॥१॥अथ शकृतसञ्चयमाह ॥ स्तम्भ: कटीपृष्ठपुरीषमूत्रे शूलोऽथ मूर्च्छा शकृतो वमिश्च । श्वासश्च पक्वाशयजे भवन्ति तथालसोक्तानि च लक्षणानि ॥१॥उदावर्तिनमप्येनमानाहिनमथापि वा । तृष्णोपद्रवसंयुक्तं तं त्यजेद्भिषजां वर: ॥२॥॥ अथानाहचिकित्सा ॥आनाहेऽपि प्रयुञ्जीत उदावर्तहरीं क्रियाम् ॥ तत्राप्यत्र विशेषमाह । त्रिवृद्धरीतकीश्यामा: स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । वटिका मूत्रपीतास्ता: श्रेष्ठास्त्वानाहभेदिका: ॥१॥हिड्गुग्रगन्धाबिडशुण्ठ्यजाजीहरीतकीपुष्करमूलकुष्ठम् । भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टं गुल्मोदरानाहविषूचिकासु ॥१॥वचाभयाचित्रकयावशूकान् सपिप्पलीकातिविषाकुष्ठान् । उष्णाम्बुनानाहविमूढवातान्पीत्वा जयेदाशु रसौदनाशी ॥२॥अथ राढधूमादिवर्ति: ॥ राढधूमबिडव्योषगुडमूत्रविपाचिता । गुदेऽड्गुष्ठसमावर्तिधेयानाहशुलनुत् ॥१॥विपाच्य मूत्राम्लरसेन दन्तीपिण्डीतकृष्णाबिडकृष्णधूमै: । वर्ति कराड्गुष्टनिभां घृताक्तां गुदे रुजानाहहरीं विदध्यात् ॥२॥इत्यानाहचिकित्सा ॥ अथ पथ्यापथ्यम् ॥ विष्टम्भीनि विरुद्धानि कषायानि गुरुणि च । उदावर्ते प्रयत्नेन वर्जयेत्सततं नर: ॥१॥उदावर्ते हितं सर्वं पाचनं लड्घनं तथा । आनाहे तु यथायोग्यं सेवयेन्मतिमान्नर: ॥इति पथ्यापथ्यम् ॥॥ अथातो गुल्मनिदानं व्याख्यास्याम: ॥अथ तस्य सम्प्राप्तिमाह । दुष्टा वातादयोऽत्यर्थं मिथ्याहारविहारत: । कुर्वन्ति पञ्चधा गुल्मं कोष्ठान्तर्ग्रन्थिरुपिणम् ॥११॥तेषां स्थानान्याह ॥ तस्य पञ्चविधं स्थानं पार्श्वहृन्नाभिबस्तय: ॥ तस्य लक्षणमाह ॥ हृन्नाभ्योरन्तरे ग्रन्थि: सञ्चारी यदि वाचल: वृत्तश्चयापचयवात् स गुल्म इति कीर्तित: ॥१॥विशेषलक्षणं चरके ॥ तृष्णाज्वरपरीतश्च दाहस्वेदाग्निमार्दवै: । गुल्मिनामरुचौ चापि रक्तमेवावसेचयेत् ॥१॥भट्टारकहरिश्चन्द्र: ॥ स्त्रीणामार्तवजो गुल्मो न पुंसामुपजायते । अन्यस्त्वसृगभवो गुल्म: स्त्रीणां पुसां च जायते ॥१॥निरुढमूलप्रभवो हि कोष्ठे स्थित: स्वतन्त्र: परसंश्रयो वा । स्पर्शोपलब्ध: परिपिण्डितत्वाद्गुल्मो यथा दोषमुपैति नाम ॥२॥सव्यस्तैर्जायते दोषै: समस्तैरपि चोच्छ्रितै: । पुरुषाणां तथा स्त्रीणां ज्ञेयो रक्तेन चापर: ॥३॥तस्य पूर्वरुपमाह ॥ उद्गारबाहुल्यपुरीषबन्धतृप्त्यक्षमत्वान्त्रविकूजनानि । आटोपमाध्मानमपक्तिशक्तिरासन्नगुल्मस्य वदन्ति चिह्नम् ॥१॥सर्वगुल्मानां सामान्यलक्षणमाह ॥ अरुचि: कृच्छ्रविण्मूत्रं वातान्त्रप्रतिकूजनम् । आनाहं चोर्ध्ववातत्वं सर्वगुल्मेषु लक्षयेत् ॥१॥अथ वातजमाह ॥ रुक्षान्नपानं विषमातिमात्रं विचेष्टनं वेगविनिग्रहश्च । शोकोऽभिघातोऽतिमलक्षयश्च निरन्नता चानिलगुल्महेतु: ॥१॥य: स्थानसंस्थानरुजाविकल्पं विड्वातसड्गं गलवक्रशोषम् । श्यावारुणत्वं शिशिरज्वरं च हृत्कुक्षिपार्श्वांसशिरोरुजं च ॥२॥करोति जीर्णेऽभ्यधिकं प्रकोपं भुक्ते मृदुत्वं समुपैति यश्च । वातात्स गुल्मो न च तत्र रुक्षं कषायतिक्तं कटु चोपशेते ॥३॥पैत्तिकमाह ॥ कट्वम्लतीक्ष्णोष्णविदाहिरुक्षक्रोधातिमद्यार्कहुताशसेवा । आमाभिघातो रुधिरं च दुष्टं पित्तस्य गुल्मस्य निमित्तमुक्तम् ॥१॥तस्य पूर्वरुपमाह ॥ ज्वर: पिपासा वदनाड्गराग: शूलं महज्जीर्यति भोजने च । स्वेदो विदाहो व्रणवच्च गुल्म: स्पर्शासह: पैत्तिकगुल्मरुपम् ॥१॥अथ श्लैष्मिकमाह ॥ शीतं गुरु स्निग्धमचेष्टनं च सम्पूरणं प्रस्वपनं दिवा च । गुल्मस्य हेतु: कफसम्भवस्य सर्वश्च दुष्टो निचयात्मकस्य ॥१॥अथ पुन: श्लैष्मिकरुपाण्याह ॥ स्तैमित्यशीतज्वरगात्रसादहृल्लासकासारुचिगौरवाणि । शैत्यं रुगल्पा कठिनोन्नतत्वं गुल्मस्य रुपाणि कफात्मकस्य ॥१॥द्वन्द्वत्रिदोषजेष्वेकहेतुलक्षणनिर्देशार्थमाह ॥ निमित्तलिड्गान्युपलभ्य गुल्मे द्विदोषजे दोषबलाबलं च । व्यामिश्रलिड्गानपरांस्तु गुल्मांस्त्रीनादिशेदौषधकल्पनार्थम् ॥१॥अथ त्रिदोषजस्यासाध्यत्वमाह ॥ महारुजं दाहपरीतमश्मवद् घनोन्नतं शीघ्रविदाहि दारुणम् । मन:शरीराग्निबलापहारिणं त्रिदोषजं गुल्ममसाध्यमादिशेत् ॥१॥अथ स्त्रीणां रक्तगुल्मस्य सम्प्राप्तिमाह । नवप्रसूताहितभोजना या या चामगर्भं विसृजेदृतौ वा । वायुर्हि तस्या: परिगृह्य रक्तं करोति गुल्मं सरुजं सदाहम् ॥१॥उक्तं चरके । ऋतावनाहारभयातपेन विरुक्षणैर्वेगविधारणैश्च । संस्तम्भनोल्लेखनयोनिदोषैर्गुल्म: स्त्रिया रक्तभवोऽभ्युपैति ॥१॥तस्य लिड्गमाह ॥ पित्तस्य गुल्मेन समानलिड्गं: ॥ स रौधिर: स्त्रीभव एव गुल्मो मासे व्यतीते द्शमे चिकित्स्य: ॥१॥अथ चिरजस्यावस्थायामसाध्यत्वमाह ॥ सञ्चीत: क्रमशो गुल्मो महावास्तुपरिग्रह: । कृत: शूल: शोरोनद्धो यदा कूर्म इवोन्नत: ॥१॥दौर्बल्यारुचिहृल्लासकासवम्यरतिज्वरै: । तृष्णातन्द्राप्रतिश्यायैर्युज्यते सन सिध्यति ॥२॥पुनरसाध्यलक्षणमाह ॥ गृहीत्वा सज्वरं श्वासच्छर्द्यतीसारपीडितम् । हृन्नाभिहस्तपादेषु शोथ: कर्षति गुल्मिनम् ॥१॥अथ पुन: श्वासासाध्यलक्षणमाह ॥ श्वास: शूलं पिपासान्नविद्वेषो ग्रन्थिमूढता । जायते दुर्बलत्वं च गुल्मिनो मरणाय वै ॥१॥इति गुल्मनिदानम् ॥॥ अथ तच्चिकित्सा ॥लड्घनं दीपनं स्निग्धमुष्णं वातानुलोमनम् । बृंहणं च भवेदन्नं तद्धितं सर्वगुल्मिनाम् ॥१॥गुल्मिनामनिलशान्तिरुपायै: सर्वशो विधिवदाचरितव्या । मारुते तु विजितेऽन्यमुदीर्णं दोषमल्पमपि कर्मं निहन्यात् ॥२॥सुखोष्णा जाड्गलरसा: सुस्निग्धा व्यक्तसैन्धवा: । कटुत्रिकसमायुक्ता हिता: पानेषु गुल्मिनाम् ॥३॥कृमिपिण्डेष्टकास्वेदान्कारयेत्कुशलो भिषक् । उपनाहाश्च कर्तव्या: सुखोषणा: शाल्वणादय: ॥४॥गुल्मस्थाने रक्तमोक्षो बाहुमध्ये शिराव्यध: । स्वेदानुलोमनं चैव प्रशस्तं सर्वगुल्मिनाम् ॥५॥अथ वातगुल्मचिकित्सा ॥ प्रागेव वातजे गुल्मे सुस्त्रिग्धं स्वेदितं नरम् । रेचितं स्नेहरेकैश्च निरुहै: सानुवासनै: ॥ उपाचरेद्भिषक् प्राज्ञो मात्राकालविशेषत: ॥१॥अथ मातुलुड्गादियोग: ॥ मातुलुड्गरसै हिड्गु दाडिमं बिडसैन्धवम् । सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम् ॥१॥अथ वृन्दान्नागरादि ॥ नागरार्धपलं पिष्टं द्वे पले लुञ्चितस्य च । तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पाययेत् ॥ वातगुल्ममुदावर्तं योनिशूलं च नाशयेत् ॥१॥अथ हिड्गुपञ्चकम् ॥ हिड्गुसैन्धववृक्षाम्लराजिकानागरै: समै: । चूर्णं गुल्मप्रशमनं स्यादेतद्धिड्गुपञ्चकम् ॥१॥अथ केतकीक्षारयोग: ॥ स्वर्जिकाकुष्ठसहित: क्षार: केतकिसंभव: । पीतस्तैलेन शमयेद्वातगुल्मं सुदारूणम् ॥१॥अथैरण्डतैलादियोग: ॥ पिबेदेरण्डतैलं वा वारुणीमण्डमिश्रितम् । तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिबेन्नर: ॥१॥अथ वृन्दात् हपुषाद्यं घृतम् ॥ हपुषाजाजिपृथ्वीकापिप्पलीमूलचित्रकै: । क्षीरमूलककोलानांरसैश्च विपचेद् घृतम् ॥१॥वातगुल्मारुचिश्वासशूलानाहज्वरार्शसाम् । ग्रहणीयोनिदोषाणां घृतमेतन्निवारणम् ॥२॥अथ चित्रकाद्यं घृतम् ॥ चित्रकव्योषसिन्धूत्थपृथ्वीकाचव्यदाडिमै: । दीप्यकग्रन्थिकाजाजीहपुषाधान्यकै: समै: ॥१॥दध्यारनालबदरमूलकस्वसैर्घृतम् । पक्त्वा पिबेद्वातगुल्मदौर्बल्याटोपशूलनुत् ॥२॥अथ पथ्यम । तित्तिरांश्च मयूरांश्च कुक्कुटान् क्रौञ्चवर्तिकान् । सर्पि:शालिप्रपन्नांश्च वातगुल्मे च योजयेत् ॥१॥वातगुल्मप्रतीकारे प्रकुप्यति यदा कफ: । शस्तमुल्लेखनं तत्र चूर्णाद्याश्च कफापहा: ॥२॥यदि कुप्यति वा पित्त विरेकस्तत्र भेषजम् । दोषघ्नैरप्यशान्ते च गुल्मे शोणितमोक्षणम् ॥३॥इति वातगुल्मचिकित्सा ॥॥ अथ पित्तगुल्मचिकित्सा ॥अथ त्रिवृच्चूर्णम् ॥ पित्तगुल्मे त्रिवृच्चूर्णं पातव्यं त्रिफलाम्बुना । विरेचनाय ससितं कम्पिल्लं च समाक्षिकम् ॥१॥अथ द्राक्षादियोग: ॥ द्राक्षाभयारसं गुल्मे पैत्तिके सगुडं पिबेत् । सशर्करं वा विलिहेत्रिफलाचूर्णमुत्तमम् ॥१॥अथ पथ्याद्यं घृतम् । रसेनामलकेक्षूणां घृतपादं विपाचयेत् । पथ्यायाश्च पिबेत्सर्पिस्तत्सिद्धं पित्तगुल्मनुत् ॥१॥॥ अथ द्राक्षाद्यं घृतम् ॥ द्राक्षामधुकखर्जूरं विदारीं सशतावरीम् । परुषकाणि त्रिफलां साधयेत्पलसंमिताम् ॥१॥जलाढके पादशेषे रसमामलकस्य च । घृतमिक्षुरसं क्षीरमभयाकल्कपादिकम् ॥२॥साधयेत्तद् घृतं सिद्धं शर्कराक्षौद्रपादिकम् प्रयोग: पित्तगुल्मग्न: सर्वगुल्मविकारनुत् ॥३॥अथ पथ्यम् ॥ शालिगोछागदुग्धं च पटोलं घृतमिश्रितम् । द्राक्षा परुषकं धात्री खर्जूरं दाडिमं सिताम् ॥ पथ्यार्थं पैत्तिके गुल्मे बलातोयं च योजयेत् ॥१॥इति पित्तगुल्मचिकित्सा ॥॥ अथ श्लेष्मगुल्मचिकित्सा ॥स्नेहोपनाहस्वेदैस्तीक्ष्णस्त्रंसनवस्तुभि: । योगैश्च वातगुल्मोक्तै: श्लेष्मगुल्ममुपाचरेत् ॥१॥अथ तिलादिस्वेद: ॥ तिलैरण्डातसीबीजसर्षपै: परिलिप्य च । श्लेष्मगुल्मभयस्पात्रै: सुखोष्णै: स्वेदयेद्भिषक् ॥१॥अथ यवान्यादि ॥ यवानीं चूर्णितां तक्रे बिडेन लवणीकृताम् । श्लेष्मगुल्मे पिबेद्वातमूत्रवर्चोऽनुलोमनम् ॥१॥अथ क्षीरषट्पलं घृतम् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रनागरै: । पलिकै: सयवक्षारैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥१॥क्षीरप्रस्थेन तत्सर्पिर्हन्ति गुल्मं कफात्मकम् । ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं प्लीहाकासज्वरापहम् ॥२॥अथ मिश्रकस्नेह: ॥ त्रिवृता त्रिफला दन्ती द्शमूलं पलोन्मितम् । जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागावशेषिते ॥१॥सर्पिरैण्डतैलं च क्षीरं चैकत्र साधयेत् । संसिद्धो मिश्रकस्नेह: सक्षौद्र: कफगुल्मनुत् ॥२॥इति मिश्रक: स्नेह: ॥ अथ पथ्यम् ॥ कुलत्याञ् जीर्णशालींश्च षष्टीकान्यवजाड्गलान् । मद्यं तैलं घृतं तक्रं कफगुल्मे प्रयोजयेत् ॥१॥इति कफगुल्मचिकित्सा ॥॥ अथ त्रिदोषगुल्मचिकित्सा ॥वरूणादिकषायस्तु गुल्मं दोषत्रयोत्थितम् । हन्ति हृत्यार्श्वशूलघ्नं सोपद्रवमसंशयम् ॥१॥अथ शार्ड्गधराद्वरुणादिक्वाथ: ॥ वरूणो बकपुष्पश्च बिल्वापामार्गचित्रका: । अग्निमन्थद्वयं शिग्रुद्वय च बृहतीद्वयम् ॥१॥सैरेकत्रयं मूवी मेषशृड्गी किरातक: । अजशृड्गी च बिम्बी च करजञ्जश्च शतावरी ॥२॥वरुणादिकगणक्वाथ: कफमेदोहर: स्मृत: । हन्ति गुल्मं शिर:शूलं तथाभ्यन्तरविद्रधीन् ॥३॥इति त्रिदोषगुल्मचिकित्सा ॥॥ अथ रक्तगुल्मप्रतीकार: ॥पित्तवद्रक्तगुल्मिन्या नार्या: कार्यो यथाविधि । प्रस्निग्धस्विन्नकोष्ठाया योज्यं स्नेहविरेचनम् ॥१॥अथ शताह्वादिकल्क: ॥ शताह्वाचिरिबिल्वत्वगदारुभार्गीकणोद्भव: । कल्क: पीतो जयेद् गुल्मं तिलक्वाथेन रक्तजम् ॥१॥अथ तिलक्वाथ: ॥ तिलक्वाथो गुडघृतव्योषभार्गीरजोऽन्वित: । यानं रक्तभवे गुल्मे नष्टे पुष्पे च योषित: ॥१॥अथ सुश्रुतात् तिलमूलादिचूर्णम् ॥ तिलमूलं च शिग्रुं च ब्रह्मदण्डीयमूलकम् । मधुयष्टीत्रिकटुकैर्युतं चूर्णमुपासयेत् ॥ पुष्परोधे वातगुल्मे स्त्रीणां सद्य: सुखावहम् ॥१॥ अथ भार्ग्यादिचूर्णम् ॥ भार्गी कृष्णा करञ्जत्वग् ग्रन्थिकामरदारुजम् । चूर्णं तिलानां क्वाथेन रक्तगुल्मरुजापहम् ॥१॥अथ दन्त्यादिगुटिका ॥ दन्तीहिड्गुयवक्षारालाबुबीजकणागुडा: । स्त्रुहीक्षीरेण गुटिका सर्वेषां कर्षमात्रिका ॥ भक्षिता रक्तगुल्मघ्नी रुधिरस्त्रावकारिणी ॥१॥अथार्कपुष्पयोग: ॥ पक्वं तैलेऽर्कजं पुष्पं रुधिरस्त्रावकरि च ॥१॥अथ पलाशक्षारघृतम् ॥ पलाशक्षारतोयेन सर्पि: सिद्धं पिबेद्वधू: । यस्मिन्नवसरे क्षारतोयसाध्यघृतादिषु ॥१॥फेनोद्गमस्य निर्वृत्तिर्नष्टदुग्धसमाकृति: । स एव तस्य पाकस्य कालो नेतरलक्षण: ॥२॥इति पलाशक्षारघृतम् ॥ अथ वृन्दान्मुण्यादि ॥ मुण्डीरोचनिकाचूर्णं शर्करामाक्षिकान्वितम् । विदधीतास्त्रगुल्मिन्यां मलसंरेचनाय च ॥१॥उष्णैर्वां भेदयेद्भिन्ने विधिर्वासृग्दरे हित: । अतिप्रवृत्तमस्त्रं तु भिन्ने गुल्मे निवारयेत् ॥२॥इति रक्तगुल्मप्रतीकार: ॥॥ अथ सामान्यविधि: ॥अथ चित्रकादिक्वाथ: ॥ चित्रकग्रन्थिकैरण्डशुण्ठीक्वाथ: परं हित: । शूलानाहविबन्धेषु सहिड्गुबिडसैन्धव: ॥१॥अथ हिड्गवादिचूर्णम् ॥ हिड्गुग्रन्थिकधान्यजीरकवचाचव्याग्निपाठासटीवृक्षाम्लं लवणत्रयं त्रिकटुकं क्षारद्वयं दाडिमम् । पथ्यापुष्करवेतसाम्लहपुषाजाज्यस्तदेभि: कृतं चूर्णं भावितमेतदार्द्रकरसै: स्याब्दीजपूरस्य च ॥१॥आध्मानग्रहणीविकारगुदजान् गुल्मानुदावर्तकान् प्रत्याध्मानगदं तथाश्मरियुतं तूनीद्वयारोचकान् । ऊरुस्तम्भमतिभ्रमं च मनसो बाधिर्यमष्ठीलकां प्रत्यष्ठीलिकिकामथापहरते प्राक्पीतमुष्णाम्बुना ॥२॥हृत्कुक्षिवड्क्षणकटीजठरान्तरेषु बस्तिस्तनांसफलकेषु च पार्श्वयोश्च । शूलानि नाशयति वातबलासजानि हिड्गुवादि मान्द्यमिदमश्विनसंहितायाम् ॥३॥अथ वृन्दाद्धिड्गुनवकम् ॥ हिड्गुपुष्करमूलानि तुम्बरूणि हरीतकी । श्यामा बिडं सैन्धवं च यवक्षारं महौषधम् ॥१॥यवक्वाथोदकेनैतद् घृतभृष्टं तु पाचयेत् । तेनास्य भिद्यते गुल्म: सशूल: सपरिग्रह: ॥२॥अथ भास्करलवणाद्यं चूर्णम् ॥ सामुद्रलवणं ग्राह्यमष्टकर्षमितं बुधै: । एवं सौवर्चलं ग्राह्यं बिडसैन्धवधान्यकम् ॥१॥पिप्पलीपिप्पलीमूलं कर्षं जीरकपत्रकम् । नागकेशरतालीसमम्लवेतसकं तथा ॥२॥द्विकर्षमात्राण्येतानि प्रत्येकं कारयेब्दुध: । मरीचं जीरकं विश्वमिकैकं कर्षमात्रकम् ॥३॥दाडिमस्य चतुष्कर्षं त्वगेलाचार्धकर्षिका । एतच्चूर्णीकृतं सर्वं लवणं भास्कराभिधम् ॥४॥शाणप्रमाणं देयं तु मस्तुतक्रसुरासवै: । वातश्लेष्मभवं गुल्मं प्लीहानमुदरं क्षतम् ॥५॥अर्शांसि ग्रहणीं कुष्ठं विबन्धं च भगन्दरम् । शोथं शूलं श्वासकासमामदोषं च हृद्रुजम् ॥६॥मन्दाग्निं नाशयत्येतद्दीपनं पाचनं परम् । सर्वलोकहितार्थांय भास्करेणोदितं पुरा ॥७॥इति शार्ड्गधरात् ॥ अथ क्षारद्वयादि ॥ क्षारद्वयानलव्योषनीलीलवणपञ्चकम् । चूर्णितं सर्पिषा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम् ॥१॥अथाग्निमुखरस: ॥ हिड्गुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् । पिप्पली त्रिगुणा ज्ञेया शृड्गबेरं चतुर्गुणम् ॥१॥यवानिका पञ्चगुणा षड्गुणा च हरीतकी । चित्रकं सप्तगुणितं कुष्ठं चाष्टगुणं भवेत् ॥२॥एतद्वातहरं चूर्णम् पीतमात्रं प्रसन्नया । पिबेद्दध्रा मस्तुना वा सुरया कोष्णवारिणा ॥३॥उदावर्तमजीर्णं च प्लीहानमुदरं तथा । अड्गानि यस्य शीर्यन्ते विषं वा येन भक्षितम् ॥ अर्होहरो दीपनश्च शूलघ्नो नाम्ना न क्वचित्प्रतिहन्यते ॥६॥अथ काड्कायनगुटिका ॥ यवानी जीरकं धान्यं मरिचं गिरिकर्णिका । अजमोदोकुञ्ची च चतु:शाणा: पृथक् पृथक् ॥१॥हिड्गुषट्शाणकं कार्यं शाणो लवणपञ्चकात् । त्रिवृच्चाष्टमितै: शाणै: प्रत्येकं कल्पयेत्सुधी: ॥२॥दन्ती शठी पौष्करं च विडड्गं दाडिमं शिवा । चित्रोऽम्लवेतस: शुण्ठी शाणै: षोडशभि: पृथक् ॥३॥बीजपूररसेनैषां गुटिकां कारयेद्बुध: । घृतेन पयसा चाम्लै रसैरुष्णोदकेन वा ॥४॥पिबेत्काड्कायनप्रोक्ता गुटिका गुल्मनाशिनी । मद्येन वातिकं गुल्मं गोक्षीरेण च पैत्तिकम् ॥५॥मूत्रेण कफगुल्मं च दशमूलैस्त्रिदोषजम् । उष्ट्रीदुग्धेन नारीणां रक्तगुल्मं निवारयेत् ॥ हृद्रोगं ग्रहणीशूलं कृमीनर्शांसि नाशयेत् ॥६॥इति शार्ड्गधरात् ॥ अथ चिञ्चाक्षारादिशड्खवटी ॥ चिञ्चाक्षारं स्नुहीक्षारमर्कक्षारं पलं पलम् । द्विपलं शड्खजं भस्म रामठं च पलार्धकम् ॥१॥लवणानि च सर्वाणि पलमात्राणि योजयेत् । क्षारद्वयं पलार्धं च सर्वमेकत्र योजयेत् ॥२॥जम्बीरकरसैर्मर्द्यमनलस्य दिनत्रयम् । भृड्गराजस्य निर्गुण्ड्या मुण्डयाश्चैव पृथग् द्रवै: ॥३॥आर्द्रकस्य रसेनैव प्रत्येकं दिनमार्दितम् । बदरीबीजमात्रांस्तु वटकान्कारयेद्भिषक् ॥४॥एकैकं भक्षयेत्प्रात: । पञ्चगुल्मान् व्यपोहति । सर्वं शूलं निहन्त्याशु अजीर्णं च विषूचिकाम् ॥५॥मन्दाग्निं नाशयेच्छ्रीघ्रं पथ्यं तैलाम्लवर्जितम् । चिञ्चाशड्खवटी नाम ग्रहणीरोगहृत्परा ॥६॥अथ वज्रक्षार: ॥ सामुद्रं सैन्धवं काचं यवक्षारं सुवर्चलम् । टड्कणं स्वर्जिकाक्षारं तुल्यं चूर्णं प्रकल्पयेत् ॥१॥अर्कक्षीरै: स्नुहीक्षीरै: शोषयेदातये त्र्यहम् । अर्कपत्रं लिपेत्तेन रुद्ध्वा भाण्डे पुटे पचेत् ॥२॥तं क्षारं चूर्णयित्वाथ त्र्यूषणं त्रिफलारज: । क्षारार्धं योजयेत्सम्यगेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥३॥जीरकं रजनीवह्निनवकस्य समं तत: । वज्रक्षारमिमं शुद्धं स्वयं प्रोक्तं पिनाकिना ॥४॥सर्वोदरेषु गुल्मेषु शूले शोफे च योजयेत् । अग्निमान्द्ये त्वजीर्णे च भक्षेन्निष्कद्वयं तथा ॥५॥वाताधिके जलै: कोष्णै: घृतै: पित्ताधिके हित: । कफे गोमूत्रसंयुक्त आरनालैस्त्रिदोषनुत् ॥६॥अथ योगसागराच्छड्खद्राव: ॥ प्रस्थं जम्बीरनीरं बदरपरिमितं काकतुण्डस्य मूलं कर्षार्धं स्वर्जिकायास्त्रिपटुपलयुतं नव्यसारं पलार्धम् । तत्सर्वं सूर्यतापे मुनिदिनयुगुलं काचकुप्यां निधाय हन्याद् गुल्मं सुतीव्रं जठरमलरुजं शड्खकद्रावसंज्ञ: ॥१॥इति शड्खद्राव: ॥ अथान्य: शड्खद्राव: ॥ फटकीपलमेकं च सैन्धवं पलमेव च । द्विपलं च यवक्षारं द्विपलं नवसागरम् ॥१॥चतुष्पलं सुराक्षारं पलार्धं कासिस्त्रं तथा । डमरुयस्त्रयोगेन चुल्ल्यां वै बदरीन्धनै: ॥२॥साधयेल्लाघवात्तूर्णं शड्खद्रावरसं परम् । गुल्मादिसर्वरोगेषु देय: सर्वसुखप्रद: ॥३॥अन्यश्च ॥ सैन्धवं च यवाक्षारं नव्यसारं तथैव च । प्रत्येकं द्विपलं ग्राह्यं सुराक्षारं चतुष्पलम् ॥१॥फटकीपलमेकं च पलार्धं कासिसं तथा । सर्वमेकत्र संयोज्यडमरुन्त्रमध्यगे ॥२॥चुल्ल्यां प्ररोहयेत्तत्तु ज्वालयेत् खदिरेन्धनै: । द्रावितं तत्समादाय तेजोरुपं जलप्रभम् ॥३॥द्रावयेदखिलान्धातून्वराटांश्च न संशय: । शड्खद्रावरसो नाम गुल्मोदरहर: पर: ॥४॥इति शड्खद्राव: ॥ अथ क्रव्यादरस: ॥ द्विपलं गन्धकं शुद्धं द्रावयित्वा विनिक्षिपेत् । पारदं पलमानेन मृतशुल्बायसी पुन: ॥१॥कर्षमानेन संमिश्र्य पञ्चाड्गुलदले क्षिपेत् । ततो विचूर्ण्यं यत्नेन निक्षिप्यायसपात्रके ॥२॥चुल्ल्यां निवेश्य यत्नेन चालयेन्मृदुवह्निना । पात्रं पात्रं हि जम्बीररसं तत्र प्रचारयेत् ॥३॥पञ्चकोलसमुद्भूतै: कषायै: साम्लवेतसै: । भावना: खलु दातव्या: पञ्चाशत्प्रतितास्तथा ॥४॥भृष्टट्ड्कणचूर्णेन तुल्येन सह मेलयेत् । तदर्धं पञ्चलवणै: सर्वसाम्यमरीचकै: ॥५॥सप्तधा भावयेत्पश्चाच्चणकक्षारवारिणा । तत: संशोष्य संपेष्य कूपिकाभ्यन्तरे क्षिपेत् ॥६॥अत्यन्तगुरुभोज्यानि गुरुमांसान्यनेकश: । भक्षेच्चाकण्ठपर्यन्तं ततो देयो रसोत्तम: ॥७॥चतुर्वल्लमितो देयस्तक्रै: सलवणैरपि । भुक्तं जीर्यति तत्क्षिप्रं जायते दीपनं परम् ॥८॥रस: क्रव्यादनामायं प्रोक्तो दृढं प्रत्ययकारक: ॥९॥कुर्याद्दीपनमुद्धतं पवनजं देहे परं शोषणं तुन्दस्थौल्यनिबर्हणो गरहरो दुष्टव्रणार्तिप्रणुत् । कासश्वासविनाशनो ग्रहणिकाविध्वंसन: स्त्रंसनो गुल्मप्लीहजलोदरोपशमन: क्रव्यादनामा रस: ॥१०॥विश्वहिड्गुबिडै: सार्धं क्रव्यादो भक्षितो रस: । गुल्मानशेषान्प्लीहानं विद्रधीनपि नाशयेत् ॥११॥इति क्रव्याद: ॥ अथ गदनिग्रहाच्चविकासव: ॥ चविकायास्तुलार्धं तु तदर्धं चित्रकस्य च । बाष्पिका पुष्करं मूलं षड्ग्रन्था हपुषा शटी ॥१॥पटोलमूलत्रिफलायवानीकुटजत्वच: । विशाला धान्यकं रास्त्रा दन्ती दशपलोन्मिता ॥२॥कृमिघ्नमुस्तमञ्जिष्ठादेवदारुकटुत्रिकम् । भागान्पञ्चपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भस: पचेत् ॥३॥द्रोणशेषे रसे पूते देयं गुडशतत्रयम् धातक्या विंशतिपलं चातुर्जातं पलाष्टकम् ॥४॥लवड्गव्योषकड्कोलं पलिकानि प्रकल्पयेत् । निदध्यान्मासमेकं तु घृतभाण्डे सुसंस्कृते ॥५॥चतुष्पलां पिबेन्मात्रां प्रात: पित्तं नियच्छति । सर्वगुल्मविकारांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिम् ॥६॥प्रतिश्यायं क्षयं कासमष्ठीलां वातशोणितम् । उदराण्यन्त्रवृद्धिं च चविकाख्यो महासव: ॥७॥इति चविकासव: ॥ अथ कुमार्यासव: ॥ कुमार्याश्च रसद्रोणे गुडं पलशतं तथा । तुलाड्घ्रिसड्ख्यां विजयां क्वाथयेत्तज्जलार्मणे ॥१॥चतुर्थाशावशेषे तु पूते तस्मिन्निधापयेत् । मधुनश्चाढकं दत्वा धातक्या द्विपलाष्टकम् ॥२॥स्निग्धभाण्डे विनिक्षिप्य कल्कं चैव प्रदापयेत् । जातीफलं लवड्गं च कक्कोलं च कबाबकम् ॥३॥जटिलाचव्यचित्रं च जातीपत्री सकर्कटम् । अक्षं पुष्करमूलं च प्रत्येकं च पलं पलम् ॥४॥मृतं शुल्बं तथा लोहं शुक्तिमात्रं प्रदापयेत् । भूम्यां वा धान्यराशौ वा स्थापयेद्दिनविंशतिम् ॥५॥ तमुद्धृत्य पिबेन्मात्रां यथा चाग्निबलाबलम् । पञ्चकासं तथा श्वासं क्षयरोगं च दारूणम् ॥६॥उदराणि तथाष्टौ च षडशर्वांसि च नाशयेत् । वातव्याधिमपस्मारमन्यान् रोगान्सुदारुणान् ॥७॥जाठरं कुरुते दीप्तं कोष्ठशूलं च नाशयेत् । गुल्माष्टकं नष्टपुष्पं नाशयेदेकपक्षत: ॥ कुमारिकासवो ह्येष बृहस्त्पतिविनिर्मित: ॥८॥इति कुमार्यास्व: ॥ अथ हिड्गुवादि घृतम् ॥ हिड्गुपुष्करमूलानि तुम्बरूणि हरीतकी । श्यामा बिडं सैन्धवं च यवक्षारं महौषधम् ॥१॥यवक्काथोदकेनैतद्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । तेनास्य भिद्यते गुल्म: सशूल: सपरिग्रह: ॥२॥अथ दधिकादि घृतम् ॥ बिडपूररसोपेतै: सर्पिर्दधि चतुर्गुणम् । साधितं दधिकं नाम्ना गुल्महृत्प्लीहनुत्परम् ॥२॥अथ वृन्दात् त्रायमाणादि ॥ जले दशगुणे साध्यं त्रायमाणं चतुष्पलम् । पञ्चभागान्वितै: कल्कै: संयोज्यं चैव कार्षिकै: ॥१॥रोहिणी कटुका मुस्ता त्रायमाणा दुरालभा । द्राक्षा तामलकी वीरा जीवन्ती चन्दनोत्पलम् ॥२॥रसस्यामलकानां च क्षीरस्य च घृतस्य च । पलानि पृथगष्टाष्टौ सम्यग् दत्वा विपाचयेत् ॥३॥पित्तगुल्मं रक्तगुल्मं विसर्पं पित्तजं ज्वरम् । हृद्रोगं कामलां कुष्ठं हन्यादेतद् घृतोत्तमम् ॥४॥अथ सामुद्रादिवर्ति: ॥ घातवर्चोनिरोधेषु सामुद्रार्द्रकसर्षपै: । कृत्वा पायौ विधातव्या वर्तयो मरिचान्वितै: ॥१॥॥ अथ रसा: ॥अथादौ नाराचो रस: ॥ शुद्धसूतं समं गन्धं जेपालं त्रिफलासमम् । त्रिकटुं पेषयेत्क्षौद्रमिश्रं गुल्मं लिहन्हरेत् ॥ उष्णोदकं पिबेच्चानु नाराचोऽयं रसोत्तम: ॥१॥ इति नाराचो रस: ॥ अथ वडवानलरस: ॥ शुद्धसूतं समं गन्धं मृतं ताम्राभ्रटड्कणम् । सामुद्रं च यवक्षारं स्वर्जिसैन्धवनागरम् ॥१॥अपामार्गस्य च क्षारं पालाशं वत्सनाभकम् । प्रत्येकं सूततुल्यं स्याच्चणकाम्लेन मर्दयेत् ॥२॥हस्तिकन्याद्रवैश्चाहो आर्द्रयुक्तं पुटेल्लघु । माषैकं भक्षयेन्नित्यं रसोयं वडवानल: ॥ सर्वं गुल्मं निहन्त्याशु ग्रहणीं च विशेषत: ॥३॥इति वडवानलरस: ॥ अथ गुल्मकुठारो रस: ॥ नागवड्गाभ्रकं कान्तं समं ताम्रं समांशकम् । जम्बीरस्वरसैर्घृष्टा वटी गुञ्जाप्रमाणिका ॥१॥मधुनार्द्रकनीरेण क्षारयुग्मेन सेविता । अजीर्णमाम्लं गन्धं च हृत्पार्श्वोदरशूलके ॥ नाम्ना गुल्मकुठारोऽयं सर्वगुल्मान्व्यपोहति ॥२॥अथ काश्यपात् मदेभसिंहसूतो रस: ॥ रसगन्धवराटताम्रशड्खं विषवड्गाभ्रककान्ततीक्ष्णमुण्डम् । अहिहिड्गुलटड्कणं समांशं सकलं तत्रिगुणं पुराणकिट्ट्म् ॥१॥पशुमूत्रविशोधितं सुभृष्ट्वा त्रिफलाभृड्गरजार्द्रकोत्थनीरै: । सुविशोष्य वरामृताविलासास्वरसैरष्टगुणै: पुनर्नवोत्थै: ॥२॥पृथगग्निकृतं घनं विपाच्य गुटिका गुञ्जयुता निजानुपानै: । ज्वरपाण्डुतृषास्त्रपैत्त्यगुल्मक्षयकासस्वरमग्निसाद मूर्च्छा: ॥३॥पवनादिषु दुस्तराष्ट रोगान् सकलं पित्तहरं मदावृतं च । बहुना किमसौ यथार्थनामा सकलव्याधिहरो मदेभसिंह: ॥४॥अथ प्रवालपञ्चामृतरस: ॥ प्रवालमुक्ताफलशड्खशुक्तिकपर्दिकानां च समांशभागम् । प्रवालमात्रं द्विगुणं प्रयोज्यं सर्वै: समांशं रविदुग्धमेव ॥१॥एकीकृतं तत्खलु भाण्डमध्ये क्षिप्त्वा मुखे बन्धनमत्र योज्यम् । पुटं विदध्यादतिशीतले च उद्धृत्य तद्भस्य क्षिपेतकरण्डे ॥२॥नित्यं द्विवारं प्रतिपाकयुक्तं वल्लप्रमाणं हि नरेण सेव्यम् । आनाहगुल्मोदरप्लीहकासश्वासाग्निमान्द्यान् कफमारुतोत्थान् ॥३॥अजीर्णमुद्गारहृदायघ्नं ग्रहण्यतीसारदिकारनाशनम् ॥४॥मेहामयं मूत्ररोगं मूत्रकृच्छ्रं तथाश्मरीम् । नाशयेन्त्रात्र सन्देह: सत्यं गुरुवचो यथा ॥५॥पथ्याश्रितं भोजनमादरेण समाचरेन्निर्मलचित्तवृत्या । प्रवालपञ्चामृतनामधेयो योगोत्तम: सर्वगदापहारी ॥६॥इति रसा: ॥॥ अथ पथ्यापथ्यम् ॥संवत्सरसमुप्तन्ना: कलमा रक्तशालय: । खण्डं कुलत्थयूषश्च धन्वमांसरस: सुरा: ॥१॥गवामजायाश्च पयो मृद्वेका च परुषकम् । तक्रमेरण्डतैलं च लशुनं बालमूलकम् ॥२॥पत्तूरो वास्तुकं शिग्रु मातुलुड्गं हरीतकी । वातानुलोमनं चैव पथ्यं गुल्मे नृणां भवेत् ॥३॥माषादय: शिम्बिधान्ये शूकधान्ये यवादय: । वल्लूरं मूलकं मच्छं मधुराणि फलानि च ॥४॥अधोवायुशकृन्मूत्रश्रमश्वासाश्रुधारणम् । वमनं जलपानं च गुल्मरोगी परिस्यजेत् ॥५॥इति पथ्यापथ्यम् ॥ इति गुल्मरोगचिकित्सा ॥ N/A References : N/A Last Updated : January 03, 2018 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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