संस्कृत सूची|शास्त्रः|आयुर्वेदः|योगरत्नाकरः| ॥ अथ रसादीनां पाकलक्षणमाह ॥ योगरत्नाकरः अथ योगरत्नाकरस्यानुक्रमणिका । विषयसूची ॥ अथ योगरत्नाकरः ॥ ॥ अथ पादचतुष्टयम् ॥ ॥ अथ दूतपरीक्षा ॥ ॥ अथ दूतपरीक्षा ॥ ॥ अथ शकुनाः ॥ ॥ अथ रोगिणां अष्टस्थानानि लक्षयेत् ॥ ॥ अथ नाडीपरीक्षा ॥ ॥ अथ मूत्रपरीक्षा ॥ ॥ अथ दोषत्रयलक्षणानि ॥ ॥ अथ मलपरीक्षा ॥ ॥ अथ शब्दपरीक्षा ॥ ॥ अथ स्पर्शपरीक्षा ॥ ॥ अथ रूपपरीक्षा ॥ ॥ अथ दृक्परीक्षा ॥ ॥ अथास्यपरीक्षा ॥ ॥ अथ जिव्हापरीक्षा ॥ ॥ अथ कालज्ञानम् ॥ ॥ अथ देशाः ॥ ॥ अथ केषु मासेषु दोषत्रयप्रकोपः ॥ ॥ केषु ऋतुषु दोषोत्पत्तिः ॥ ॥ अथ वातादिप्रकोपः ॥ ॥ अथ दोषत्रयलक्षणानि ॥ ॥ अथ दोषत्रयशमनम् ॥ ॥ अथाहर्निशदोषत्रयप्रवर्तनम् ॥ ॥ अथ आमव्याधिलक्षणम् ॥ ॥ अथ तत्प्रतीकारः ॥ ॥ अथ वयोविचारः ॥ ॥ अथ प्रकृतिः ॥ ॥ अथारोगलक्षणम् ॥ ॥ अथ परिभाषा ॥ ॥ अथ कलिङ्गपरिभाषा ॥ ॥ अथ धान्यादिफलकन्दशाकगुणाः ॥ ॥ अथ तमाखुगुणाः ॥ ॥ अथ मांसगुणाः ॥ ॥ अथानूपजातिलक्षणं तद्रुणाश्च ॥ ॥ अथ जाङ्गलमांसगुणाः ॥ ॥ अथानूपमांसगुणाः ॥ ॥ अथ मत्स्यादिजलजन्तवः ॥ ॥ अथ शङ्खादिगुणाः ॥ ॥ अथ सिद्धान्नादिपाकगुणकथनम् ॥ ॥ अथ साराणि ॥ ॥ अथ यूषाः ॥ ॥ अथ सूपाः ॥ ॥ अथ पर्पटाः ॥ ॥ अथ मुद्गतण्डुलकृशरा ॥ ॥ अथ पायसम् ॥ ॥ अथ पोलिका ॥ ॥ अथाङ्गारिका ॥ ॥ अथ वटकाः ॥ ॥ अथ पिष्टभक्ष्यजनितगुणाः ॥ ॥ अथ पानकानि ॥ ॥ अथ रागखाण्डवः ॥ ॥ अथ रसाला शिखरिणी ॥ ॥ अथ भरित्थम् ॥ ॥ अथ पृथुकादयः ॥ ॥ अथ वेसवारः ॥ ॥ अथ आयुर्विचारमाह ॥ ॥ अथ स्वल्पायुषो लक्षणानि ॥ ॥ अथ नित्यप्रकारमाह ॥ ॥ अथ रसादीनां पाकलक्षणमाह ॥ ॥ अथ रात्रिचर्या ॥ ॥ अथ ऋतुचर्यामाह ॥ ॥ अथ वर्षासु हिताहितमाह ॥ ॥ अथ शरदि हिताहितमाह ॥ ॥ अथ हेमन्ते हिताहितमाह ॥ ॥ अथ शिशिरे हिताहितमाह ॥ ॥ अथ वसन्ते हिताहितमाह ॥ ॥ अथ ग्रीष्मे हिताहितमाह ॥ ॥ अथ जलगुणाः ॥ ॥ अथोष्णवारिगुणाः ॥ ॥ अथ ऋतुविशेषे जलक्काथनियमः ॥ ॥ अथ रात्रिसेवितोष्णोदकगुणाः ॥ ॥ अथ निषिद्धमुष्णोदकम् ॥ ॥ अथोष्णोदकप्रयोगः ॥ ॥ अथोष्णवारिमन्दाचरणम् ॥ ॥ अथ शृतशीतगुणाः ॥ ॥ अथोष्णजलविधिः ॥ ॥ अथ दुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ तत्र वर्णभेदाः ॥ ॥ अथ माहिषम् ॥ ॥ अथाजम् ॥ ॥ अथाविकम् ॥ ॥ अथौष्ट्रम् ॥ ॥ अथैभम् ॥ ॥ अथाश्वम् ॥ ॥ अथ गार्दभम् ॥ ॥ अथ मानुषम् ॥ ॥ अथ धारोष्णगुणाः ॥ ॥ अथापक्कदुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ क्वथितदुग्धगुणाः ॥ ॥ अथ क्षीरमित्राणि ॥ ॥ अथ क्षीरामित्राणि ॥ ॥ अथ सन्तानिकागुणाः ॥ ॥ अथ दधिगुणाः । ॥ अथ निःसारदुग्धदधिगुणाः ॥ ॥ अथ मन्ददधिगुणाः ॥ ॥ अथ सरगुणाः ॥ ॥ अथ तक्रगुणाः ॥ ॥ अथ क्वथिततक्रगुणाः ॥ ॥ अथ नवनीतम् ॥ ॥ अथ चिरन्तननवनीतगुणाः ॥ ॥ अथ घृतगुणाः ॥ ॥ अथ माहिषम् ॥ ॥ अथ आजम् ॥ ॥ अथाविकम् ॥ ॥ अथ नूतनघृतगुणाः ॥ ॥ अथ पुराणघृतम् ॥ ॥ अथ रोगविशेषे घृतनिषेधः ॥ ॥ अथ तैलगुणाः ॥ ॥ अथैरण्डतैलम् ॥ ॥ अथ सार्षपतैलम् ॥ ॥ अथ कुसुम्भतैलम् ॥ ॥ अथ राजिकातैलम् ॥ ॥ अथ क्षौमादितैलगुणाः ॥ ॥ अथ धान्यतैलम् ॥ ॥ अथ मधुगुणाः ॥ ॥ अथ विशिष्टगुणाः ॥ ॥ अथेक्षुगुणाः ॥ ॥ अथ फाणितम् ॥ ॥अथ गुडः ॥ ॥ अथ जीर्णगुडगुणाः ॥ ॥ अथ शर्करागुणाः ॥ ॥ अथ रायपुरी ॥ ॥ अथ मूत्राष्टकम् ॥ ॥ अथ त्रिफला ॥ ॥ अथ त्रिकटु ॥ ॥ अथ पञ्चकोलम् ॥ ॥ अथ षडूषणम् ॥ ॥ अथ चतुरूषणम् ॥ ॥ अथ चातुर्जातम् ॥ ॥ अथ दशमूलम् ॥ ॥ अथ मध्यमपञ्चमूलानि ॥ ॥ अथ पञ्चवल्कलानि ॥ ॥ अथ पञ्चभृङ्गगुणाः ॥ ॥ अथाम्लपञ्चकम् ॥ ॥ अथ पञ्चाङ्गानि ॥ ॥ अथ संतर्पणगुणाः ॥ ॥ अथ यक्षकर्दमगुणाः ॥ ॥ अथ केशरनामगुणाश्च ॥ ॥ अथ पञ्चसुगन्धिकगुणाः ॥ ॥ अथ षड्रसाः ॥ ॥ अथ मधुरत्रिकम् ॥ ॥ अथ समत्रिकम् ॥ ॥ अथ क्षारत्रयम् ॥ ॥ अथ क्षारपञ्चकम् ॥ ॥ अथ क्षाराष्टकम् ॥ ॥ अथ क्षारद्वयम् ॥ ॥ अथ लवणत्रयम् ॥ ॥ अथ लवणपञ्चकम् ॥ ॥ अथ लवणषट्कम् ॥ ॥ अथ चन्दनम् ॥ ॥ अथ गुडूचीसत्त्वगुणाः ॥ ॥ अथ स्वरसादयः ॥ ॥ अथ स्वरसकल्पना ॥ ॥ अथ पुटपाककल्पना ॥ ॥ अथ कल्कः ॥ ॥ अथ क्वाथः ॥ ॥ अथ हिमकल्पना ॥ ॥ अथ फाण्टकल्पना ॥ ॥ अथ चूर्णकल्पना ॥ ॥ अथ वटककल्पना ॥ ॥ अथावलेहः ॥ ॥ अथ स्नेहपाकविधिः ॥ ॥ अथ लाक्षारसविधिः ॥ ॥ अथासवारिष्टः ॥ ॥ अथ शिलाजतुकरणम् ॥ ॥अधुना धात्वादीनां लक्षणशोधनमारणगुणानाह ॥ ॥ अथ सप्तधातुवर्णाः ॥ ॥ अथ सर्वधातुसामान्यमारणम् ॥ ॥ अथ स्वर्णम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ गुणाः ॥ ॥ अथ शुद्धस्वर्णदलगुणाः ॥ ॥ अथ रौप्यम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ तद्गुणाः ॥ ॥ अथ ताम्रम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथान्यच्च त्रपुताम्रम् ॥ ॥ अथ सोमनाथताम्रम् ॥ ॥ अथ सामान्यताम्रगुणाः ॥ ॥ अथ रीतिकांस्ये ॥ ॥ अथ लोहम् ॥ ॥ अथ कान्तलक्षणम् ॥ ॥ अथ शोधनम् ॥ ॥ अथ मारणम् ॥ ॥ अथ निरुत्थानम् ॥ ॥ अथ गुणाः ॥ ॥ अथानुपानानि ॥ ॥ अथ मण्डूरकरणम् ॥ ॥ अथ वङ्गम् ॥ ॥ अथ नागम् ॥ ॥ अथाभ्रकम् ॥ ॥ अथ स्वर्णमाक्षिकम् ॥ ॥ अथ पारद: ॥ ॥ अथ गन्धक: ॥ ॥ अथ हिड्गुल: ॥ ॥ अथ रत्नानां शोधनमारणे ॥ ॥ अथ वैक्रन्तम् ॥ ॥ अथ शेषरत्नशोधनमारणानि ॥ ॥ अथ शिलाजतु ॥ ॥ अथ सिन्दूरम् ॥ ॥ अथ समुद्रफेन: ॥ ॥ अथैरण्डबीजशुद्धि: ॥ ॥ अथ शड्ख: ॥ ॥ अथ भूनागसत्वमयूरपक्षसत्वगुणा: ॥ ॥ अथ कर्पूरशुद्धि: ॥ ॥ अथ टड्कणशोधनम् ॥ ॥ अथ विषम् ॥ ॥ अथ गौरीपाषाणाभेद: ॥ ॥ अथाश्रसत्वपातनविधि: ॥ ॥ अथ क्षारकल्पना ॥ ॥ अथ वमनम् ॥ ॥ अथ विरेचनम् ॥ ॥ अथ रेचनम् ॥ ॥ अथ मेघनादरेचनरस: ॥ ॥ अथ नस्यम् ॥ ॥ अथ कर्णपूरणम् ॥ ॥ अथ रक्तस्त्रुति: ॥ ॥ अथ जृम्भालक्षणम् ॥ ॥ अथ हृल्लासलक्षणम् ॥ ॥ तत्र क्रमप्राप्तं प्रथमं ज्वरलक्षणम् ॥ ॥ अथ ज्वरनिदानम् ॥ ॥ अथ क्रमप्राप्तस्थ ज्वरस्य चिकित्सा ॥ ॥ अथौषधाद्यजीर्णेऽन्नं न ग्राह्यम् ॥ ॥ अथ ज्वरे पथ्यानि ॥ ॥ अथ पाचनम् ॥ ॥ अथाष्टाड्गावलेहिका ॥ ॥ अथ सन्धिकादीनां चिकित्सा ॥ ॥ शीताड्गसंनिपातोऽसाध्य: ॥ ॥ अथ विषमज्वर: ॥ ॥ अथ चूर्णानि ॥ ॥ अथ कुरण्टकादिनामा लेह: ॥ ॥ अथ घृतानि ॥ ॥ अथ तैलानि ॥ ॥ अथ पाका: ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथ सप्तधातुगतज्वराणां लक्षणम् ॥ ॥ अथातीसारनिदानम् ॥ ॥ अथ अवलेह: ॥ ॥ अथ अष्टकम् ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथ ग्रहणीनिदानम् ॥ ॥ अथातो ग्रहणीचिकित्सितं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्लेष्मग्रहणीचिकित्सा ॥ ॥ अथ चित्रकादिगुटिका ॥ ॥ अथ तक्रहरीतकी ॥ ॥ अथ कल्याणकावलेह: ॥ ॥ अथ चूर्णम् ॥ ॥ अथ बिल्वाद्यं घृतम् ॥ ॥ अथ द्राक्षासवः ॥ ॥ अथ रसा: ॥ ॥ अथार्शोरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ त्रिदोषजसहजार्शसोर्लक्षणम् ॥ ॥ अथौपद्रवादसाध्यत्वमाह ॥ ॥ अथ तिलादिमोदक:॥ ॥ अथ काड्कायनगुटिका ॥ ॥ अथ बाहुशालगुड: ॥ ॥ अथार्शसि शर्करासव: ॥ ॥ अथ व्योषाद्यं चूर्णम् ॥ ॥ अथ भस्मकलक्षणमाह ॥ ॥ अथ विषूच्यादिचिकित्सा ॥ ॥ अथ भस्मकरोगनिदानचिकित्से ॥ ॥ अथ क्रिमिनिदानम् ॥ ॥ अथात: पाण्डुरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ रक्तपित्तनिदानम् ॥ ॥ अथ राजयक्ष्मनिदानम् ॥ ॥ अथ क्षयरोगचिकित्सा ॥ ॥ अथ कासनिदानम् ॥ ॥ अथ कासचिकित्सा । ॥ अथातो हिक्कानिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्वासचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ तमकस्यैव पित्तानुबन्धाज्ज्वरादियोगेन प्रतमकसंज्ञामाह ॥ ॥ अथ श्वासचिकित्सा ॥ ॥ अथ स्वरभेदनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातोऽरोचकनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातश्छर्दिनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ छर्दिचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ सैन्धवादियोग: ॥ ॥ अथ त्रिदोषच्छर्दि: ॥ ॥ अथ तृष्णानिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ तृष्णाचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ मूर्च्छानिदानम् ॥ ॥ अथ पानात्ययपरमदपानाजीर्णपानविभ्रमनिदानचिकित्से ॥ ॥ अथ दाहनिदानम् ॥ ॥ अथोन्मादनिदानं चिकित्सा च ॥ ॥ अथ भूतोन्मादनिदानमाह ॥ ॥ अथापस्मारनिदानमाह ॥ ॥ अथ वातरोगनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ श्रोत्रादिगतलक्षणमाह ॥ ॥ अथाक्षेपकादिरोगलक्षणान्याह ॥ ॥ अथानुक्तवातरोगसड्वहार्थमाह ॥ ॥ अथ तच्चिकित्सा ॥ ॥ अथ हिड्ग्वादिचूर्णम् ॥ ॥ अथ प्रत्याध्मानोरुस्तम्भयो: कल्कादि ॥ ॥ अथावशिष्टानां प्रतीकार: ॥ ॥ अथ सर्ववातरोगाणां सामान्यप्रतीकारानाह ॥ ॥ अथ गुग्गुलव: ॥ ॥ अथ तैलानि ॥ ॥ अथ पञ्चतिक्तघृतम् ॥ ॥ अथ वातरक्तनिदानम् ॥ ॥ अथ वातरक्तचिकित्सा ॥ ॥ अथोरुस्तम्भ्रनिदानमाह ॥ ॥ अथामवातनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथ शूलनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ परिणामशूलनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथातोदावर्तनिदानम् ॥ ॥ अथानाहनिदानम् ॥ ॥ अथातो हृद्रोगनिदानम् ॥ ॥ अथोरग्रहनिदानम् ॥ ॥ अथ मूत्राघातनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथातो मेहनिदानम् ॥ ॥ अथ ग्रन्थान्तरे बहुमूत्रमेहनिदानम् ॥ ॥ अथोदरनिदानप्रारम्भ: ॥ ॥ अथ तच्चिकित्सा ॥ ॥ अथ सर्वोदरेषु सामान्यविधि: ॥ ॥ अथात: शोथनिदानं व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ मुष्कान्त्रवृद्धिवर्ध्मरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ गलगण्डगण्डमालापचीग्रन्थ्यर्बुदनिदानमाह ॥ ॥ अथ श्लीपदनिदानम् ॥ ॥ अथ विद्रधिनिदानम् ॥ ॥ अथातो विद्रधिचिकित्सां व्याख्यास्याम: ॥ ॥ अथ व्रणशोथनिदानम् ॥ ॥ अथ सद्योव्रणनिदानमाह ॥ ॥ अथाग्निदग्धव्रननिदानमाह ॥ ॥ अथ भग्नव्रणनिदानमाह ॥ ॥ अथ नाडीव्रणनिदानम् ॥ ॥ अथ भगन्दरनिदानम् ॥ ॥ अथोपदंशनिदानम् ॥ ॥ अथ शूकदोषनिदानम् ॥ ॥ अथ कुष्ठनिदानम् ॥ ॥ अथ शीतपित्तोदर्दकोठनिदानम् ॥ ॥ अथाम्लपित्तनिदानम् ॥ ॥ अथ विसर्पनिदानमाह ॥ ॥ अथ विस्फोटनिदानमाह ॥ ॥ अथ स्त्रायुकनिदानम् ॥ ॥ अथ मसूरिकानिदानमाह ॥ ॥ अथ क्षुद्ररोगनिदानमाह ॥ ॥ अथ मुखरोगाणां निदानान्याह ॥ ॥ अथ कर्णरोगाधिकार: ॥ ॥ अथ नासारोगाधिकार: ॥ ॥ अथ शिरोरोगनिदानम् ॥ ॥ अथ नेत्ररोगाणांधिकार: ॥ ॥ अथ स्त्रीरोगाधिकार: ॥ ॥ अथ योनिरोगाधिकार: ॥ ॥ अथ रसादीनां पाकलक्षणमाह ॥ ’ योगरत्नाकर ’ हा आयुर्वेदावरील मूळ प्राचीन ग्रंथ आहे. Tags : ayurvedyogaratnakarआयुर्वेदयोगरत्नाकर ॥ अथ रसादीनां पाकलक्षणमाह ॥ Translation - भाषांतर उद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः ।लघुता क्षुत् पिपासा च जीर्णाहारस्य लक्षणम् ॥१॥आहारं तु रहः कुर्यान्निर्हारमपि सर्वदा ।उभाभ्यां लक्ष्म्युपेतः स्यात् प्रकाशे हीयते श्रिया ॥२॥ज्वरितं ज्वरमुक्तं वा दिनान्ते भोजयेल्लघु । श्लेष्मक्शये प्रवृद्धोष्मा बलवाननलस्तदा ॥३॥आहारनिर्हारविहारयोगाः सदैव सद्भिर्विजने विधेयाः ।हीनदीनक्षुधार्तानां पापपाखण्डरोगिणाम् ।कुक्कुटादिशुनां दृष्टिर्भोजने नैव शोभना ॥४॥पितृमातृसुहृद्वैद्यपाककृद्धंसबर्हिणाम् । सारसस्य चकोरस्य भोजने दॄष्टिरुत्तमा ॥५॥दोषहृद् दृष्टिदं पथ्यं हैमं भोजनभाजनम् ।रौप्यं भवति चक्षुष्यं पित्तहृत् कफवातकृत् ॥६॥कांस्यं बुद्धिप्रदं रुच्यं रक्तपित्तप्रसादनम् । पैत्तलं वातकृद्रूक्षमुश्णं कृमिकफप्रणुत् ॥७॥आयसे कान्तपात्रे च भोजनं सिद्धिकारकम् ।शोथपाण्डुहरं बल्यं कामलापहमुत्तमम् ॥८॥शैलजे मृण्मये पात्रे भोजनं श्रीनिवारणम् ।दारूद्भवे विशेषेण रुचिदं श्लेष्मकृत्तथा ॥९॥पात्रं पत्रमयं रुच्यं दीपनं पिषपापनुत् ।जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम् ॥१०॥ पात्रं पवित्रं शीतं च घटितं स्फटिकेन यत् ।काचेन रचितं तद्वत्तथा वैदूरयसंभवम् ॥११॥भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्रकभक्षणम् ।अग्निसंदीपकं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम् ॥१२॥अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वरः ।इति संचिन्त्य यो भुङ्क्ते दृष्टिदोषो न बाधते ॥१३॥अञ्जनीगर्भसंभूतं कुमारं ब्रह्मचारिणम् ।दृष्टिदोषविनाशाय हनुमन्तं स्मराम्यहम् ॥१४॥अश्नीयात्तन्मना भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम् । मध्येऽम्ललवणौ पश्चात् कटुतिक्तकषायकान् ॥१५॥फलान्यादौ समश्नीयाद्दाडिमादीनि बुद्धिमान् ।विना मोचफलं तद्वद्वर्जनीया च कर्कटी ॥१६॥मृणालबिसशालूककन्देक्षुप्रभृतीन्यपि ।पूर्वमेव हि भोज्यानि न तु भुक्त्वा कदाचन ॥१७॥प्रियालजम्बूबदरीफलानि गाङ्गेरिकोदुम्बरतित्तिदिकम् ।तालीफलानागरनारिकेलसारं च भक्ष्यं तिलमिश्रमाम्रम् ।अङ्कोलरभ्भाफलसावलानां फलानि वर्ज्यानि सदा प्रभाते ॥१८॥गुरु पिष्टमयं द्रव्यं लड्डूकान् पृथुकानपि ।न जातु भुक्तवान्स्वादेन्मात्रां स्वादेद्बुभुक्षितः ॥१९॥ घृतपूर्वं समश्नीयात्कठिनं प्राक् ततो मृदु ।अन्ते पुनर्द्रवाशी नु बलारोग्ये न मुञ्चति ॥२०॥ यद्यत्स्वादुतरं तद्धि विदध्यादुत्तरोत्तरम् ।भुक्त्वा यत्प्रार्थ्यते भूयस्तदुक्तं स्वादुभोजनम् ॥२१॥सौमनस्यं बलं पुष्टिमुत्साहं रसनासुखम् ।स्वादु संजनयत्यन्नमस्वादु च विपर्ययम् ॥२२॥अत्युश्णान्नं बलं हन्ति शीतं शुष्कं च दुर्जरम् ।अतिक्लिन्नं म्लानिकरं युक्तियुक्तं हि भोजनम् ॥२३॥मधुराद्वर्धते रक्तमम्लान्मज्जाप्रवर्धनम् ।लवणाद्वर्धते त्वस्थि तिक्तान्मेदः प्रवर्धते ॥२४॥कटुकाद्वर्धते मांसं मषायाद्वर्धते रसः ।अन्नाच्च वर्धते शुक्रं षड्रसा धातुवर्धनाः ॥२५॥अतिद्रुताशिताहारो गुणान्दोषान्न विन्दति ।भोज्यं शीतमहृद्यं च स्याद्विलम्बितमश्नतः ॥२६॥मन्दानलो नरो द्रव्यमात्रां गुर्वीं विवर्जयेत् ।स्वभावतश्च गुरु यत् तथा संस्कारतो गुरु ॥२७॥मात्रागुरुस्तु मुद्गादिर्माषादिः प्रकृतेर्गुरुः ।संस्कारगुरु पिष्टान्नं प्रोक्तमित्युपलक्षणम् ॥२८॥आहारं षड्विधं चोष्यं पेयं लेह्यं तथैव च ।भोज्यं भक्ष्यं तथा चर्व्यं गुरुं विद्याद्यथोत्तरम् ॥२९॥गुरूणामर्धसौहित्यं लघूनां नातितृप्तता । द्रवो द्रवोत्तरश्चापि न मात्रागुरुरिष्यते ॥३०॥द्रवाढ्यमपि शुष्कं तु सम्यगेवोपपद्यते ।विशुष्कमन्नमभ्यस्तं न पाकं साधु गच्छति ॥३१॥पिण्डीकृतमसंक्लिन्नं विदाहमुपगच्छति । शुश्कं विरुद्धं विष्टम्भि वह्निव्यापदमावहेत् ॥३२॥न भुक्त्वा न रदैश्छित्त्वा न निशायां न वा बहोन् ।न जलान्तरितान्न द्विः सक्तूनद्यान्न केवलान् ॥३३॥पुनर्दानं पृथक् पानं सामिषं पयसा निशि ।दन्तच्छेदनमुष्णं च सप्त सक्तुषु वर्जयेत् ॥३४॥बहु स्तोकमकाले वा ज्ञेयं तद्विषमाशनम् । आलस्यगौरवाटोपशब्दांश्च कुरुते गदान् ।हीनमात्रं तनोः कार्श्यं करोति च बलक्षयम् ॥३५॥अप्राप्तकालेभुञ्जानो ह्यसमर्थतनुर्नरः ।तांस्तान् व्याधीनवाप्नोति मरणं चाधिगच्छति ॥३६॥कालेऽतीतेश्नतो जन्तोर्वायुनापहतेऽनले ।कृच्छ्राद्विपच्यते भुक्तं न स्याद्भोक्तुं पुनः स्पृहा ॥३७॥ कुक्षेर्भागद्वयं भोज्यैस्तृतीये वारि पूरयेत् ।वायोः संचरणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत् ॥३८॥रसेनान्नस्य रसना प्रथमेनोपतर्पिता । न तथा स्वादुतामेति ततः सेव्याम्बुनान्तरा ॥३९॥अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेन्नं निरम्बुपानाच्च स एव दोषः ।तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ॥४०॥भुक्तस्यादौ जलं पीतं कार्श्यमन्दाग्निदोषकृत् ।मध्येऽग्निदीपनं श्रेष्ठमन्ते स्थौल्यकफप्रदम् ।समस्थूलकृशा भुक्तमध्यान्तप्रथमाम्बुपाः ॥४१॥तृषितस्तु न चाश्नीयात्क्षुधितो न पिबेज्जलम् ।तृषितस्तु भवेद्रुल्मी क्षुधितस्तु जलोदरी ॥४२॥अश्नीयात्तन्मना भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम् ।मध्येऽम्ललवणौ पश्चात्कटुतिक्तकषायकान् ॥४३॥एवं भुक्त्वा समाचामेद्रूक्षं ग्रहणपूर्वकम् ।भोजने दन्तलग्नानि निर्हृत्याचमनं चरेत् ॥४४॥दन्तान्तरगतं चान्नं शोधनेनाहरेच्छनैः ।कुर्यादनिर्हृतं तद्धि मुखस्यानिष्टगन्धताम् ॥४५॥दन्तलग्नमनिर्हार्यं लेपमन्ये तु दन्तवत् ।न तत्र बहुशः कुर्याद्यत्नं निर्हरणं प्रति ॥४६॥आचम्य जलयुक्ताभ्यां पाणिभ्यां चक्षुषी स्पृशेत् । भुक्त्वा पाणितले घृष्ट्वा चक्षुषोर्यदि दीयते ।भुक्त्वा च संस्मरेन्नित्यमगस्त्यादीन्सुखावहान् ॥४७॥आदौ सूपाज्यभक्तं सकथिकमुदितं पायसं वाथ रम्यं पक्कान्नं मध्यमध्ये बहुविधपललं व्यञ्जनान्यत्र भोज्ये ।अन्ते दुग्धं सिताढ्यं शृतमतुलरसं सान्नमत्यन्तमिष्टं दध्यन्नं वा यथेच्छापरिकलितमिदं देशरीत्या विदध्यात् ॥४८॥आदिमध्यावसानेषु भोजने पयसा युते ।कार्श्यं साम्यं तथा स्थौल्यमिति स्युः क्रमशो गुणाः ॥४९॥आदौ द्रवं समश्नीयात्तत्राम्बु न पिबेद्बहु ।मध्ये तु कठिने भक्ष्ये यथेष्टं शस्यते जलम् ॥५०॥तथा च भोजनस्यान्ते पीतमम्बु बलप्रदम् ।द्रवप्रधानभुक्तान्ते किन्तु तन्मात्रया पिबेत् ॥५१॥विष्णुरन्नं तथैवान्नपरिणामश्च वै यथा ।सत्येन तेन मद्भुक्तं जीर्यत्वन्नमिदं तथा ॥५२॥अगस्तिरग्निर्वडवानलश्च भुक्तं ममान्नं जरयन्त्वशेषम् ।सुखं ममैतत्परिणामसंभवं यच्छत्वरोगं मम चारुदेहम् ॥५३॥अङ्गारकर्मगस्तिं च पावकं सूर्यमश्विनौ ।यश्चैतान्संस्मरेनित्यमन्नं तस्याशु जीर्यति ॥५४॥अगस्तिं कुम्भकर्णं च शनिं च वडवानलम् । आहारपरिपाकार्थे स्मरामि च वृकोदरम् ॥५५॥इत्युच्चार्य स्वहस्तेन परिमार्ज्य तथोदरम् ।अनायासप्रदायीनि कुर्यात्कर्माण्यतन्द्रितः ॥५६॥जीर्णेऽन्ने वर्धते वायुर्विदग्धे पित्तमेधते ।भुक्तमात्रे कफश्चापि क्रमोऽयं भोजनोपरि ॥५७॥धूमे वापोह्य हृद्यैर्वा कटुतिक्तकषायकैः ।पूगकर्पूरकस्तूरीलवङ्गसुमनःपलैः ॥५८॥ फलैः कटुकषायैर्वा मुखवैशद्यकारिभिः । ताम्बूलपत्रसहितैः सुगन्धैर्वा विचक्षणः ॥५९॥रतौ सुप्तोत्थिते स्नाते भुक्ते वान्ते च संगरे । सभायां विदुषां राज्ञां कुर्यात्ताम्बूलचर्वणम् ॥६०॥प्रत्युषसि भुक्तसमये युवतीनां च संगमे विरमे ।विद्वद्राजसभायां ताम्बूलं यो न खादयेत्स पशुः ॥६१॥ताम्बूलं कटुतिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं वातघ्नं कृमिनाशनं कफहरं दुर्गन्धिनिर्नाशनम् । वक्त्रस्याभरणं विशुद्धिकरणं कामाग्निसंदीपनं ताम्बूलस्य सखे त्रयोदश गुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः ॥६२॥ताम्बूलमुक्तं तीक्ष्णोष्णं रोचनं तुवरं सरम् ।तिक्तं क्षारोषणं कामरक्तपित्तकरं लघु ॥६३॥वश्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम् ।मुखवैशद्यसौगन्ध्यकान्तिसौष्ठवकारकम् ॥६४॥ तत्तु दन्तमलध्वंसि जिह्वेन्द्रियविशोधनम् ।मुखप्रसेकशमनं गलामयविनाशनम् ॥६५॥नवं तदेव मधुरं कषायानुरसं गुरु ।बलासजननं प्रायः पत्रशाकगुणं स्मृतम् ॥६६॥वङ्गदेशोद्भवं पर्णं परं कटुरसं सरम् ।पाचनं पित्तजनकमुष्णं कफहरं मतम् ॥६७॥पर्णं पुराणमकटु क्षुल्लकं तनु पाण्डुरम् ।विशेषाद्गुनवद्वेद्यमन्यद्धीनगुणं मतम् ॥६८॥पूगं गुरु हिमं रूक्षं कषायं कफपित्तनुत् ।मोहनं दीपनं रुच्यमास्यवैरस्यनाशनम् ॥६९॥पूगं स्याद् दृढमध्यं यत् स्विन्नं चापि त्रिदोषनुत् ।सरसं गुर्व्गभिष्यन्दि तद्भृशं वह्निनाशनम् ॥७०॥खदिरः कफपित्तघ्नश्चूर्णं वातबलासनुत् ।संयोगतस्त्रिदोषघ्नं सौमनस्यं करोति च ॥७१॥पूगाधिकं प्रभाते स्यान्मध्याह्ने खादिराधिकम् ।चूर्णाधिकं निशायां तु ताम्बूलं भक्षयेत्सदा ॥७२॥तस्मादग्रं तथा मूलं मध्यं पर्णस्य वर्जयेत् । पर्णमूले भवेव्द्याधिः पर्णाग्रे पापसंभवः ॥७३॥चूर्णपत्रं हरत्यायुः शिरा बुद्धिविनाशिनी ।आयुरग्रे यशो मूले लक्ष्मीर्मध्ये व्यवस्थिता ॥७४॥आद्यं विषोपमं पीतं द्वितीयं मेहि दुर्जरम् ।तृतीयादि तु पातव्यं सुधातुल्यं रसायनम् ॥७५॥आलस्यविद्रध्युपजिह्विकानां सतालुदन्तार्बुदरोगिणां च ।गलास्यगण्डापचितालुशोषश्लेष्मामयानं तदतिप्रशस्तम् ॥७६॥न नेत्रकोपे न च रक्तपित्ते क्षते न दाहे न विषे न शोषे । मदात्यये नापि न मोहमूर्छाश्वासेषु ताम्बूलमुशन्ति वैद्याः ॥७७॥ताम्बूलं नातिसेवेत विरिक्तो न बुभुक्षितः ।देहदृक्केशदन्ताग्निश्रोत्रवर्णबलक्षयः ॥७८॥शोषपित्तानिलास्रं स्यादतिताम्बूलभक्षणात् ।ताम्बूलं न हितं दन्तदुर्बलेक्षणरोगिणाम् ।विषमूर्छामदार्तानां क्षतिनां रक्तपित्तिनाम् ॥७९॥भुक्त्वा शतपदं गच्छेच्छनैस्तेन तु जायते ।अन्नसंघातशैथिल्यं ग्रीवाजानुकटिसुखम् ॥८०॥भुक्त्वोपविशतस्तुन्दं शयानस्य तु पुष्यति ।आयुश्च्क्रममाणस्य मत्धावति धावतः ॥८१॥ श्वासानष्टौ समुतानस्तान् द्विः पार्श्वे तु दक्षिणे ।ततस्तद्द्विगुणान् वामे पश्चात्स्वप्याद्यथासुखम् ॥८२॥ वामदिशायामनलो नाभेरूर्ध्वोऽस्ति जन्तूनाम् ।तस्मात्तु वामपार्श्वे शयीत भुक्तप्रपाकार्थम् ॥८३॥त्रिदोशशमनी खट्वा तूली वातकफापहा । भूशय्या बृहणी वृष्या काष्ठपट्टी तु वातला ॥८४॥भूशय्या वातलातीवरुक्षा पित्तास्रनाशिनी ।सुशय्याशयनं हृद्यं पुष्टिनिद्राधृतिप्रदम् ॥८५॥श्रमानिलहरं वृष्यं विपरीतमतोऽन्यथा । संवाहनं मांसरक्तत्वक्प्रसादकरं परम् ॥८६॥प्रीतिनिद्राकरं वृष्यं कफवातश्रमापहम् । प्रवातं रौक्ष्यवैवर्ण्यस्तम्भकृद्दाहपित्तनुत् ॥८७॥स्वेदमूर्छापिपासाघ्नमप्रवातमतोऽन्यथा ।सुखं प्रवातं सेवेत ग्रीष्मे शरदि चोत्तरम् ॥८८॥निर्वातमायुषे सेव्यमारोग्यं यत्र सर्वदा । पूर्वोऽनिलो गुरुः सोष्णःस्निग्धः पित्तास्रदूषकः ॥८९॥विदाही वातलः श्रान्तिकफशोषवतां हितः ।स्वादुपटुरभिष्यन्दी त्वग्दोषार्शोविषक्रिमीन् ॥९०॥सन्निपातज्वरश्वासमामवतं प्रकोपयेत् ।दक्षिणः पवनः स्वादुः पित्तरक्तहरो लघुः ॥९१॥वीर्येण शीतलो बल्यश्चक्षुष्यो न च वातलः ।पश्चिमः पवनस्तीक्ष्णः शोषणो बलहृल्लघुः ॥९२॥मेदपित्तकफध्वंसी प्रभञ्जनविवर्धनः ।उत्तरो मारुतः शीतः स्निग्धो दोशप्रकोपकृत् ॥९३॥क्लेदनः प्रकृतिस्थानबलदो मधुरो लघुः ।आग्नेयो दाहकृद्रूक्षो नैरृतो न विदाहकृत् ॥९४॥वायव्यस्तु भवेत्तिक्त ऐशानः कटुकः स्मृतः ।वग्वायुरनायुष्यः प्राणिनां बहुरोगकृत् ॥९५॥अतस्तं नैव सेवेत सेवितः स्यान्न शर्मणे ।व्यजनस्यानिलो दाहस्वेदमूर्छाश्रमापहः ॥९६॥तालवृन्तभवोवातस्त्रिदोषशमको मतः । वंशव्यजनजस्तूष्णो रक्तपित्तप्रकोपनः ॥९७॥चामरो वस्त्रसंभूतो मायूरो वेत्रजस्तथा ।एते दोषजितो वाताः स्निग्धा हृद्याः सुपूजिताः ॥९८॥दिवा स्वापं न कुर्वीत यतोऽसौ स्यात् कफावहः ।ग्रीष्मवर्जेषु कालेशु दिवा स्वापो निषिध्यते ॥९९॥उचितो हि दिवा स्वापो नित्यं चैषां शरीरिणाम् ।वातादयः प्रकुप्यन्ति तेषामस्वपतां दिवा ॥१००॥भोजनात् प्राग्दिवा स्वापः पाषाणमपि जीर्यति ।भोजनान्ते दिवपाद्वातपित्तकफोद्भ ॥१०१॥व्यायामप्रमदाध्ववाहनरतान् क्लान्तानतीसारिणः शूलश्वासवतस्तृषापरिगतान् हिक्कामरुत्पीडितान् ।क्षीणान् क्षीणकफान् शिशून्मदहतान्वृद्धान् रसाजीर्णिनो रात्रौ जागरितान्नरान् निरशनान् कामं दिवा स्वापयेत् ॥१०२॥दिवा वा यदि वा रात्रौ निद्रा सात्मीकृता तु यैः ।न तेषां स्वपतां दोषो जाग्रतां चोपजायते ॥१०३॥भोजनानन्तरं निद्रा वातं हरति पित्तहृत् ।कफं करोति वपुषः पुष्टिं सौख्यं तनोति हि ॥१०४॥शयनं पित्तनाशाय वातनाशाय मर्दनम् ।वमनं कफनाशाय ज्वरनाशाय लङ्घनम् ॥१०५॥शब्दान्स्पर्शाश्च रूपाणि रसान् गन्धान् मनःप्रियान् । भुक्तवानपि सेवेत तेनान्नं साधु तिष्ठति ॥१०६॥शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धो जगुप्सितः ।भुक्तमप्रयतं चान्नमतिहास्यं च वामयेत् ॥१०७॥शयनं चाशनं चाति न भजेन्न द्रवाधिकम् ।नाग्न्यातपौ न प्लवनं न यानं नापि वाहनम् ॥१०८॥व्यायामं च व्यवायं च धावनं पानमेव च ।युद्धं गीतं च पाठ च मुहूर्तं भुक्तवांस्त्यजेत् ॥१०९॥अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च सधारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च ।कालेऽपि सत्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरम्यं ॥११०॥अजीर्णे भुभ्यत्ते यत्तु तद्ध्यशनमुच्यते । प्राग् भुक्ते त्वनले मन्दे द्विरह्नो न समाहरेत् ।पूर्वभुक्तेऽविदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम् ॥१११॥ भवेद्यदि प्रातरजीर्णशङ्का तदाभयानागरसैन्धवाअनाम् विचूर्णितं शीतजलेन भुत्क्का मुक्तामशङ्को मितमन्नमद्यात् ॥११२॥ अध्वा वर्णकफस्त्थौल्यसौकुमार्यविनाशनः ।यत्तुं चङ्क्रमणं नाति देहपीडाकरं भवेत् ॥११३॥तदायुर्बलमेधाग्निप्रदमिन्द्र्रियबोधनम् । उष्णीषं कान्तिकृत् केश्यं रजोवातकफापहम् ॥११४॥पादाभ्यामनुपानद्भ्यां सदा चङ्क्रमणं नृणाम् ।अनारोग्यमनायुष्यमिन्द्रियघ्नमदृष्टिदम् ॥११५॥ छत्रस्य धारणं वर्षातपवात्तरजोपहम् । हिमघ्नं हितमक्ष्णॊश्च माङ्गल्यमपि कीर्तितम् ॥११६॥ सत्वोत्साहबलस्थैर्यधैर्यवीर्यविवर्धनम् ।अवष्टम्भकरं चापि भयग्घ्नं दण्डधारणम् ॥११७॥ऊर्ध्व्वाछादनसंयुक्ता शिबिका सर्ववल्लभा । तस्यामारोहणं नॄणां त्रिदोषशमकं मतम् ॥११८॥वातश्लेष्मगदार्तानामहिता भ्रमकृत्तरिः । पित्तानिलकरो हस्ती लक्ष्म्यायुःपुष्ठिवर्धनः ॥११९॥घोटकारोहणं वातपित्ताग्निश्रमकृन्मतम् । मेदोवर्णकफघ्नं च हितं तब्दलिनां परम् ॥१२०॥ आतपः स्वेदमूर्छास्रपित्ततृष्णाक्लमभमान् । दाहं विवर्णतां कुर्यादेतांश्छाया व्यपोहति ॥१२१॥वृष्टिर्वृष्या हिमा बल्या निद्रालस्यविवर्धनी । भयावहा मोहकरी कुहतिः कफवातला ॥१२२॥अग्निर्वातकफस्तम्भशीतवेपथुनाशनः । आमाभिष्यन्दशमनो रक्तपित्तप्रकोपनः ॥१२३॥सद्यः श्लेष्मकरो धूमो नेत्रयोरहितो भृशम् ।शिरोगौरवकृच्चापि वातपित्तं च कोपयेत् ॥१२४॥ मैत्रीं सद्भिरसद्भिश्च कुर्यात्सत्सुतु सर्वथा । संसर्गः साधुभिः कुर्यादसत्त्संगं परित्यजेत् ॥१२५॥ सेवेत देवभूदेववृद्धवैद्यनृपातिथीन् ।विमुखान्नार्थिनः कुर्यान्नावमन्येत कानपि ॥१२६॥गुरूणां सन्निधौ तिष्ठेत् सदैव विनयान्वितः । पादप्रसारणादीनि त्तत्र नैव समाचरेत् ॥१२७॥अपकार्रपरोऽपि स्यादुपकारपरः पुमान् ।आत्मवत्सकलान्पश्येद्वैरिणो दूरतो वसेत् ॥१२८॥न कञ्चिदात्मनः शत्रुं नात्मानं कस्यचिद्रिपुम् ।प्रकाशयेन्नापमानं न च निःस्नेहतां प्रभोः ॥१२९॥नात्मानमुदके पश्येन्न नग्नः प्र्रविशेज्जलम् ।तथा नाज्ञातगाम्भीर्यं न हिंस्रप्राणिसेवितम् ॥१३०॥काले हितं मितं सत्यं संवादे मधुरं वदेत् ।भुञ्जीत मधुरं प्रायः स्निग्धं काले हितं मित्तम् ॥१३१॥न रात्रौ दधि भुञ्जीत न च निर्लवणं तथा । नामुद्गसूपं नाक्षौद्रं न चाप्यघृतशर्करम् ॥१३२॥जनस्याशयमालक्ष्य यो तथा परितुष्यति ।तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः ॥१३३॥ नैकः सुखी न सर्वत्र विश्वस्तो न च शङ्कितः । नोद्यमाद्विरमेत्क्कापि हेतावीर्ष्येत्फले न तु ॥१३४॥वेगान्न धारयेत्किञ्चिन्मनोवेगान्विधारयेत् ।न पीडयेदिन्द्रियाणी न चैतान्यत्तिलालयेत् ॥१३५॥ वर्षातपादिषुच्छत्री दण्डि रात्र्यटवीषु । सोपानत्कस्तनुं रक्षन्विचरेद्युगमात्रदृक् ॥१३६॥नदीं तरेन्न बाहुभ्यां नाग्निस्कन्धमभिव्रजेत् । संदिग्धनावं वृक्षं च नारोहेदृष्टयानवत् ॥१३७॥नासंवृतमुखः कुर्यात्सभायां सुविचक्षणः । कासं हासं तथोद्गारं जृभणं क्षवथुं तथा ॥१३८॥ नासिकां न विकुष्णीयान्नासीतोत्कटकः क्कचित् ।नोर्ध्वजानुश्चिरं तिष्ठेन्न नखैर्विलिखेद्भुवम् ॥१३९॥संमार्जनीरजो नैव देहे दध्यात्कदाचन । न नखेन तृणं छिन्द्यान्नोच्छिष्टो ब्राह्मणं स्पृशेत् ॥१४०॥नोपरक्त्तं न चोद्यन्तं नास्तं यान्त्तं दिवाकरम् ।सर्वथा तु समीक्षेत न जले प्रतिबिम्बितम् ॥१४१॥नेक्षेत प्रततं सूक्ष्मं दीप्तामेध्याप्रियाणि च । पौरन्दरं धनुर्नैव दर्शयेत्कमपि क्कचित् ॥१४२॥रिपोरन्नं न भुञ्जीत गणिकान्नमपि क्कचित् । प्रतिभूर्न भवेत्क्कापि न च साक्षी वृथा वदेत् ॥१४३॥स्थगीन्न धारयेज्जातु द्यूतं दूरात्पर्रित्यजेत् । विश्वासं नाचरेत्स्त्रीणां ताःस्वतन्त्राश्च नाचरेत् ॥१४४॥रक्षणीया सदा पत्नी यौवने तु विशेषतः । न भिन्नशयने स्वप्यान्न चैको विवरे बिले ।नैको देवालये नैव रात्रौ तरुतले न च ॥१४५॥एवं दिनानि गमयेत्सदाचारपरः सदा ।ततो रात्रिप्रयुक्तानि कुर्यात्कर्माणि मानवः ॥१४६॥इत्याचारं समासेन भाषितं यः समाचरेत् । स विन्दत्यायुरारोग्यं प्रीतिं धर्मं धनं यशः ॥१४७॥एतानि पञ्च कर्माणि सन्ध्यायां वर्जयेद्बुधः । आहारं मैथुनं निद्रां संपाठं गतिमध्वनि ॥१४८॥ब होजनाज्जायते व्याधिर्मैर्थुनाद्गर्भवैकृतम् ।निद्राया निःस्वता पाठादायुर्हानिर्गतेर्भयम् ॥१४९॥ N/A References : N/A Last Updated : December 12, 2017 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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