ऊधो ! तुम तो बड़े बिरागी ।
हम तो निपट गँवारि ग्वालिनीं, स्याम-रूप अनुरागी ॥
जेहि छिन प्रथम स्याम छबि देखी, तेहि छिन ह्रदय समानी ।
निकसत नहिम अब कौनेहू बिधि रोम-रोम उरझानी ॥
आठों जाम मगन मन निरखत स्याम मुरति निज माही ।
दृग नहिं पेखत अन्य बस्तु जग, बुद्धि बिचारत नाहीं ॥
ऊधौ ! तुम्हरो ग्यान निरंतर होइ तुमहिं सुखकारी ।
हम तौ सदा स्याम-रँग राचीं ताहि न सकहिं उतारी ॥