प्रभु ! मैं नहिं नाव चलावौं ।
तव पद-रज नर करनि मुरि प्रभु ! महिमा अमित कहाँ लगि गावौं ॥
पाहन छुवत नारि भै पावनि, काट पुरातनकी यह नावौं ।
परसत रज मुनि-नारि बनै यह, मैं पुनि असि नौका कहँ पावौं ॥
मैं अति दीन दरिद्र, कुटुँब बहु, यहि नौकाते सबहि निभावौं ।
जो यह उड़ै, जीविका बिनसै, केहि बिधि पुनि परिवार चलावौं ॥
अनुअम्ति होइ तो लेइ कथौता, सुरसरि-जल भरि प्रभुपहँ लावौं ।
पद पखारि, रज धोइ भलीबिधि, करि चरनामृत पाप नसावौ ॥
प्रभु-चरननकी सपथ नाथ ! मै अन्य भाँति नहिं नाव चढ़ावौ ।
लखन रिसाइ तीर जो मारैं, निबल, पकरि पद प्रान गवावौं ॥
प्रेम भरे, अति सरल सुहावन अटपट बचन सुने रघुरावौं ।
करुनानिधिं हँसि अनुमति दीन्हीं, केवट कह्यो पार लै जावौं ॥