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सौंप दिये मन -प्राण उसीको...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - सौंप दिये मन -प्राण उसीको...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

सौंप दिये मन-प्राण उसीको, मुखसे गाते उसका नाम ।

कर्माकर्म चुकाकर सारे चलते है अब उसके धाम ॥

इन्द्रियगण लेकर विषयोको मरा करें इच्छा-अनुसार ।

हम तो है अनुगत उसके ही, वही हमारा प्राणाधार ॥

प्रेम उसीके-से प्रेमिक बन, गाते सब उसका गुणगान ।

उसकी नासा पुष्प उसीके-से लेती नित उसकी घ्राण ॥

उसके प्राणोंकी व्याकुलता सब प्राणोंमें जाग रही ।

इसी हेतु बैठे योगासन वृत्ति उसीमें लाग रही ॥

उसके ही रससे रसिका बन रसना हो गइ दीवानी ।

विषयोंके रस विरस हुए सब, नही कर सके मनमानी ॥

आँख उसीकी देख रही नित उसका रूप परम सुन्दर ।

कान उसीके सुनते उसका सदा सुरीला कंठस्वर ॥

देह उसीकी करती नित आवेग-भरा परसन उससे ।

मन-पाण भर उठे, दीखता सारा जगत भरा उससे ॥

सभी भुलाकर सोच रहा वह कहाँ? कौन मेरा मनचोर ।

ह्रदय-सलिलके अगाध तलमें खोजूँगा, यदि पाऊँ छोर ॥

जब वह अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें दिखलाता ।

दोनों कूल डूब जाते है, कुछ भी नजर नही आता ॥

माता-पिता वही हम सबका, भाई-बन्धु-पुत्र-दारा ।

है सर्वस्व वही सबका बस, उससे भरा विश्व सारा ॥

है वह जीवनसखा हमारा, है वह परम हमारा धन ।

अन्तस्तलमें बैठे है टुक करनेको उसके दर्शन ॥

जब वह दोनों भुजा उठाकर, अपनी ओर बुलाता है ।

सब सुख तजकर मन उसके ही पीछे दौड़ा जाता है ॥

सब कुछ भूल नाच उठते है हँसना औ रोन तजकर ।

चरण-कूलकी तरफ दौड़ते, भग्न जीर्ण नौका लेकर ॥

आशा सकल बहाकर उस प्यारेके अरुण चरण-तलमें ॥

कूद पड़ेंगे डूबे चाहे तर निकले कूलस्थलमें ॥

इस जगके जो कुछ भी सुख है, सो सब रहे उसीके पास ।

अरुण-चरणके स्पर्शमात्रसे, मिटी हमारी सारी आस ॥

किसी वस्तुकी चाह नही है, मिटा चाहना, पाना सब ।

बैठे है भव ती भरोसा किये युगल चरणोंका अब ॥

अब तो बंध-मोक्षकी इच्छा ब्याकुल कभी न करती है ।

मुखडा ही नित नव बंधन है मुक्ति चरणसे झरती है ॥

चाहे अपने पास बिठा ले, चाहे दूर फेंक देवे ।

दूर रहे या पास रहे हम संतत चरणमूल सेवे ॥

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Last Updated : September 25, 2008

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