नाथ ! अब कैसे हो कल्याण ?
प्रभु-पद-पंकज-बिमुख निरंतर रहते पामर प्राण ।
परसुखकातर महामलिन मन चाहत पद निर्वाण ॥
सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया सब कर गये दूर प्रयाण ।
लगा ह्रदयमें द्वेष-घृणा हिंसाका बेधक बाण ॥
भेदबुद्धिसे भरा ह्रदय सब भाँति हुआ पाषाण ।
आत्मभावना भूल वैरपर सदा चढ़ाता शाण ॥
लगा कामना-भूत भयानक, मिटा धर्म परिमाण ।
उभयभ्रष्ट हुआ बनकर अब पशु बिनु पूँछ विषाण ॥
श्रुति-स्मृतिकी करता अवहेला, पढ़ता नहीं पुराण ।
प्रभो ! पतित इस अधम दीनका तुम्ही करो अब त्राण ॥