मूढ ! केहि बलपर तू इतरात ॥
करत न सीधी बात काहु सों, सदा रहत अठलात ।
जा दिन प्रान देह तजि जैहैं, कोउ न पूछिहैं बात ॥
जेहि तनुके सुख-साज सँवारन संतत सबहिं सतात ।
सो तनु सहज धूरि मिलि जैहै छार होहिं सब गात ॥
जेहि धन संचै हेतु भूलि हरि, डोलत सब दिन-रात ।
धरम-करम तजि सदा गीध ज्यों मांस हेतु ललचात ॥
सबसों रारि करत, नहिं मानत बंधु, पूज्य, पितु-मात ।
सो धन-सरबस एहि थल रहिहै, संग न दमरी जात ॥
माल मिलकियत सब रहि जैहै सबै टूटिहैं नात ।
सगे-सहोदर, पुत्र-पाहुने, तजिहैं जननी-तात ॥
राम-नामको जाप करत खल, पंचन माहि लजात ।
'राम-नाम सत' सबै बोलिहैं तोहि मसानु लै जात ॥
रात-दिवस भटकत केहि कारन, नहिं कछु भेद लखात ।
भूलि भगतवत्सल भगवानहिं नरतनु वृथा गँवात ॥