सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम-पराग ।
नव-दर्शनमें मुग्ध प्राणका होगा मूक मधुर अनुराग ॥
भय लज्जा, संकोच सहम, सहसा वाणीका निपट निरोध ।
वाचारहित, नेत्र-मुख अवनत, हास्यहीन, बालकवत क्रोध ॥
जो उसने था किया, इसी स्वाभाविक रसका ही व्यवहार ।
तो देना था तुम्हे चाहिये उसे हर्षसे अपना प्यार ॥
ह्रदयंगम करना आवश्यक था वह सरल प्रणयका भाव ।
नही तिरस्कृत करना था नवप्रेमिकका वह गूँगा चाव ॥
प्रथम मिलनमें ही क्या समुचित है समस्त-संकोच-विनाश ।
क्या उससे वस्तुतः नही होता नवीन मधु-रसका नाश ॥
नव कलिकाके लिये चाहना असमयमें ही पूर्ण विकास ।
क्या है नहि अप्राकृत और असंगत उससे ऐसी आस ? ॥
क्या नववधू कभी मुखरा बन कर सक्ती प्रियसे परिहास ।
क्या वह मूर्खा या संदिग्धा बन सह सक्ती मिथ्या त्रास ? ॥
क्या वह प्रौढ़ा सदृश खोल अवगुंठन कर सकती रस-भंग? ।
क्या बहने देती, मर्यादा तजकर, सहसा हास्य-तरंग? ॥
क्या 'मूकास्वादनवत् होता नहीं प्रेमका असली रूप? ।
क्या उसमें है नही झलकता प्रेम-पयोधि गँभीर अनूप ?॥
क्या है नहीं प्रसन्न इष्टको मानस-पूजा ही करती ? ।
क्या वह नही बाह्य पूजासे बढ़कर इष्ट ह्रदय हरती ॥
यदि नव प्रेमिकने तुमको पूजा केवल मनसे ही नाथ? ।
स्तंभित, कंपित, मुग्ध हर्षसे कह-सुन कुछ भी सका न साथ ॥
क्या इससे हे प्रेमिकवर ! प्रभु ! हुआ तुम्हारा कुछ अपमान ? ।
क्या इसमें अपराध मानते सरल भक्तका? हे भगवान ! ॥
यदि ऐसा है नही देव ! तो क्यों फिर होते अंतर्द्धान? ।
क्यों दर्शनसे वंचित करते, क्यो दिखलाते इतना मान? ॥
क्यों आँखोंसे ओझल होते, पता नहीं क्यों बतलाते? ।
क्यों भक्तोंको सुख पहुँचाने नहीं शीघ्र सम्मुख आते? ॥