होगा कब वह सुदिन समय शुभ, मायावी मन बनकर दीन ।
मोहमुक्त हो हो जायेगा, पावन प्रभु-चरणोंमें लीन ॥
कब जगकी झूठी बातोंसे, हो जावेगी घृणा इसे ।
कब समझेगा उसे भयानक, मान रहा रमणीय जिसे ॥
कब गुरु-चरणोंकी रजको यह, निज मस्तकपर धारेगा ।
काम-क्रोध-लोभादि वैरियोंको, कब हठसे मारेगा ॥
पुण्यभूमि ऋषिसेवितमें कब, होगा इसका निर्जन-वास ।
गंगाकी पुनीत धारासे कब सब अघका होगा नास ॥
कब छोड़ेंगी सबल इन्द्रियाँ अपने विषयोंमें रमना ।
कब सीखेंगी उलटी आकर, अन्तरमें उसके जमना ॥
कब साधनके प्रकर तेजसे सारा तम मिट जायेगा ।
कब मन विषय विमुख हो हरिकी विमल भक्तिको पायेगा ॥
धन-जन-पदकी प्रबल लालसा कष्टमयि कब छूटेगी ।
मान-बड़ाई, 'मै मेरे' की फाँसी कब यह टूटेगी ॥
कब यह मोह स्वप्न छूटेगा, कब प्रपंचका होगा बाध ।
परवैराग्य प्रकट कब होगा, कब सुख होगा इसे अगाध ॥
कब भवभयके कारण मिथ्या अहंकारका होगा नास ।
कब सच्चा स्वरूप दीखेगा, छूट जायगा देहाध्यास ॥
कब सबके आहार एक भूमा-सुखका मुख दीखेगा ।
कब यह सब भेदोंमें नित्य अभेद देखना सीखेगा ॥
कब प्रतिबिम्ब बिम्ब होगा, कब नहीं रहेगा चित-आभास ।
निजानन्द निर्मल अज अव्ययमेम कब होगा नित्य निवास ॥