देख निज नित्य निकेतन द्वार ॥
भूला निज निर्मल स्वरूपको, भूला कुल-ब्यवहार ।
फूला, फँसा फिर रहा संतत, सहता जग फटकार ॥
पर-पुर पर-घरमें प्रवेशकर पाला पर-परिवार ।
पड़ा पाँच चोरोंके पल्ले लुटा, हुआ लाचार ॥
अब भी चेत, ग्रहण कर सत्पथ, तज माया आगार ।
उज्ज्वल प्रेम-प्रकाश साथ ले चल निज गृह सुखसार ॥
शम-दमादिसे तुरत निधनकर काम-क्रोध बटमार ।
सेवन कर पुनीत सत-संगति पथशाला श्रमहार ॥
श्रीहरिनाम शमन भय नाशक निर्भय नित्य पुकार ।
पातकपुंज नाश हों सुनकर 'हरि-हरि'हरि' हुंकार ॥
आश्रयकर, शरणागतवत्सल प्रभु पद कमल उदार ।
निज घर पहुँच, नित्य चिन्मय बन, भूमानंद अपार ॥