दुर्जन संग कबहुँ नहिं कीजै ।
दुर्जन-मिलन सदा दुखदाई, तिनसौं पृथक रहीजै ॥
दुर्जनकी मीठी बानी सुनि, तनिक प्रतीति न कीजै ।
छाड़िय बिष सम ताहि निरंतर, मनहिं थान जनि दीजै ॥
दुर्जन संग कुमति अति उपजै, हरि-मारग मति छीजै ।
छूटै प्रेम-भजन श्रीहरिको, मन बिषयनमैं भीजै ॥
बिनसै सकल सांति सुख मनके, सिर धुनि-धुनि कर मीजैं ।
मन अस दुर्जन दुखनिधि परिहरि, सत संगति रति कीजै ॥