शुद्ध, सच्चिदानंद, सनातन, अज अक्षर, आनँद-सागर ।
अखिल चराचरमें नित ब्यापक, अखिल जगतके उजियागर ॥
बिश्व्मोहिनी मायाके मोहन मनमोहन ! नटनागर ! ।
रसिक स्याम ! मानव-बपु-धारी ! दिब्य, भरे गागर सागर ॥
भक्त-भीति-भंजन, जन-रंजन नाथ निरंजन एक अपार ।
नव-नीरद-श्यामल सुन्दर शुचि, सर्वगुणाकर, सुषमा-सार ॥
भक्तराज वसुदेव-देवकीके सुख-साधन, प्राणाधार ।
निज लीलासे प्रकट हुए अत्याचारीके कारागार ॥
पावन दिव्य प्रेम-पूरित ब्रजलीला प्रेमीजन-सुखमूल ।
तन-मन-हारिणि बजी बंसरी रसमयकी कालिंदी-कूल ॥
गिरिधर, विविध रूप धर हरिने हर ली बिधि-सुरेंद्रकी भूल ।
कंस-केसि बध, साधु-त्राण कर यादव-कुलके हर ह्रच्छूल ॥
समरांगणमें सखा भक्तके अश्वोंके कर पकड़ लगाम ।
बने मार्गदर्शक लीलामय प्रेम-सुधोदधि, जन-सुखधाम ॥
प्रेमी पार्थब्याजसे सबको करुणाकर लोचन अभिराम ।
शरणागतिका मधुर मनोहर तत्त्व सुनाया सार्थ ललाम ॥
'मन्मना भव, भव मद्भक्तः, मद्याजी कर मुझे प्रणाम ।
सत्य शपथयुत कहता हूँ प्रिय सखे । मुझीमें ले विश्राम ॥
छोड़ सभी धर्मोको मेरी एक शरण हो जा निष्काम ।
चिंता मत कर, सभी पापसे तुझे छुड़ा दूँगा प्रिय काम ॥
श्रीहरिके सुखमय मंगलमय प्रण वाक्योंकी स्मृति कर दीन ।
चित्त ! सभी चंचलता तजकर चारु चरणोंमें हो जा लीन ॥
रसिक बिहारी मुरलीधर, गीतागायकके हो आधीन ।
त्रिभुवनमोहनके अतुलित सौंदर्याम्बुधिका बन जा मीन ॥