मन बन मधुप हरिपद-सरोरुह लीन हो ।
निश्चिन्त कर रस-पान भय-भ्रम हीन हो ॥टेक॥
तु भुलकर सारे जगतकी भावना,
रह मस्त आठों पहर, मत यों दीन हो ॥मन०॥
तू गुनगुनाहट छोड़ बाहरकी सभी,
बस रामगुन गुंजार कर मधु पीन हो ॥मन०॥
तू छोड दे अब जहँ तहाँका भटकना,
हरि-चरण आश्रित तू यथा जल मीन हो ॥मन०॥