प्रभु ! मेरो मन ऐसो ह्वै जावै ।
बिषयनको बिष सगरो उतरै, पुनि नहिं कबहूँ छावै ॥
बिनसै सकल कामना मनकी अनत न कतहूँ धावै ।
निरखत निरत निरंतर माधुरि, स्याम मुरति सुख पावै ॥
कामी जिमि कामिनि-सँग चाहै, लोभी धन मन लावै ।
तिमि अबिरत निज प्रियतमकी सुधि, छिन इक नहिं बिसरावै ॥
ममता सकल जगतकी छूटै, मधुर स्याम छबि भावै ।
तवै आनन सरोज-रस चाखन मन मधुकर बनि जावै ॥