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पुत्र -शोक सन्तप्त कभी कर...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - पुत्र -शोक सन्तप्त कभी कर...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

पुत्र-शोक सन्तप्त कभी कर, दारुन दुख है देती ।

कभी अयश अपमान दानकर, मान सभी हर लेती ॥

कभी जगतके सुंदर सुख सब छीन, दीन मन करती ।

पथभ्रान्त कर कभी कठिन व्यवहार बिषम आचरती ॥१॥

पुत्र-कलत्र, राजबैभव बहु मान कभी है देती ।

दारुण दुख-दारिद्र्य-दीनता क्षणभरमें हर लेती ॥

पल-पलमें प्रत्येक दिशामें सतत कार्य है करती ।

कड़वी-मीठी औषध देकर व्यथा ह्रदयकी हरती ॥२॥

पर वही नहीं कदापि सहज ही परिचय अपना देती ।

चमक तुरत चंचल चपला-सी दृग अञ्चल ढक लेती ॥

जबतक इस घूँघटवालीका मुख नहि देखा जाता ।

नाना भाँति जीव तबतक अकुलाता, कष्ट उठाता ॥३॥

जिस दिन यह आवरण दूर कर दिव्य द्युति दिखलाती ।

परिचय दे, पहचान बताकर शीतल करती छाती ॥

उस दिनसे फिर सभी वस्तु परिपूर्ण दीखती उससे ।

संसृतिहारिणि सुधा-वृष्टि हो रही निरन्तर जिससे ॥४॥

सहज दयाकी मूरति देवीने जबसे अपनाया ।

महिमामय मुखमंड अपनेकी दिखला दी छाया ॥

तपसे अभय हुआ, आकुलता मिटी, प्रेम-रस छलका ।

मनका उतरा भार सभी, अब ह्रदय हो गया हलका ॥५॥

जिन विभीषिकाओंसे डरकर पहले था थर्राता ।

उनमें भव्य दिव्य दर्शन कर अब प्रमुदित मुसकाता ॥

भगवत्कृपा ! 'अकिंचन' तेरे ज्यों-ज्यों दर्शन पाता ।

त्यों-ही-त्यों आनंद-सिंधुमें गहरा डूबा जाता ॥६॥

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Last Updated : May 24, 2008

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