श्लोक - नारायणं ह्रषीकेशं गोविन्दं गरुडध्वजम् ।
वासुदेवं हरिं कृष्णं केशवं प्रणमाम्यहम् ॥
दोहा - श्रीगनपति गुरु सारदा, बंदौ बारंबार ।
परब्रह्मके रूप सब भिन्न-भिन्न आकार ॥१॥
पुनि सुमिरौं गुरुबर चरन, बांछित-फलदातार ।
अति दुस्तर भवसिंधुतें, जे पहुँचवहिं पार ॥२॥