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भीषण तमपरिपूर्ण निशीथिनि ...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - भीषण तमपरिपूर्ण निशीथिनि ...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

भीषण तमपरिपूर्ण निशीथिनि, निविड़ निरर्गल झंझावात ।

नभ घनघोर महारवपूरित, विकट, त्रिघाती विद्युत्पात ॥

सागर-वक्ष-क्षुब्ध उल्लोलित, क्षित क्षितिधर क्षत, कंपितगात ।

प्रलय-शिखा-पावक अप्रतिहत त्रिभुवन त्रस्त्र, सहत अभिघात ॥

कैसा यह भीषण वेश ! काँपता जगत, न कोई शेष ।

बचा हुआ निर्भय, जिसने 'उस प्रियतमको पहचान लिया' ॥

धन्य वेशधारिन ! बस, मैने 'छिपे हुएको जान लिया' ।

विस्तृत अति दारिद्र्य, रोगपीड़ित अपमानित दुःसहनीय ॥

त्यक्त-बंधु, जग-हसित, श्रमिततनु, भ्रमित वेदना दुर्दमनीय ।

एकमात्र सुत-शव निपतित संमुख प्राणोपम अति कमनीय ॥

हा ! हा ! रवरत-विगत शान्ति-सुख, शोक सरितगत, नहिं कथनीय ।

नहिं सुख-स्वप्नका लेश ! निदारुण महाभयानक क्लेश !

आवृत बदन निरखकर जिसने 'प्रियतमको पहचान लिया' ।

धन्य वेशधारिन ! बस, मैने 'छिपे हुएको जान लिया' ॥

अन्नहीन तन, मृतप्राय मन, वस्त्राभाव अनावृत देह ।

अबला अवलंबविह्न, नित घृणा, दोषदर्शन, संदेह ॥

स्वजन हीन अति दीन-छीन जग वैरभावयुत विगतस्नेह ।

दलित, स्खलित, पतित, निष्कासित, देश-जति-धन-जन सुत-गेह ॥

रह गया निपट अकेला शेष ! दिगम्बर शुष्क अस्थि अवशेष ।

रुद्ररूप दर्शनकर जिसने 'प्रियतमको पहचान लिया' ।

धन्य वेशधारिन ! बस, मैने 'छिपे हुएको जान लिया' ॥

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Last Updated : September 25, 2008

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