ज्यों-ज्यों मैं पीछे हटता हूँ त्यों-त्यों तुम आगे आते ।
छिपे हुए परदोंमे अपना मोहन मुखड़ा दिखलाते ॥
पर मै अन्धा नही देखता परदोंके अंदरकी चीज ।
मोह-मुग्ध मैं देखा करता परदे बहुरंगे नाचीज ॥
परदोंके अंदरसे तुम हँसते प्यारी मधुरी हाँसी ।
चित खींचनेको तुम तुरत बजा देते मीठी बाँसी ॥
सुनता हूँ, मोहित होता, दर्शनकी भी इच्छा करता ।
पाता नही देख, पर, जडमति इधर-उधर मारा फिरता ॥
तरह-तरहसे ध्यान खींचते करते विविध भाँति संकेत ।
चौकन्ना-सा रह जाता हूँ, नहीं समझता मूर्ख अचेत ॥
तो भी नहीं ऊबते हो तुम, परदा जरा उठाते हो ।
धीरेसे संबोधन करके अपने निकट बुलाते हो ॥
इतनेपर भी नही देखता, सिंह-गर्जना तब करते ।
तन-मन-प्राण काँप उठते है, नही धीर कोई धरते ॥
डरता, भाग छूटता, तब आश्वासन देकर समझाते ।
ज्यों-ज्यों मैं पीछे हटता हूँ त्यों-त्यों तुम आगे आते ॥