'मै-मै' कहता भटक रहा, भवसागरकी चोटें सहता ।
नहीं परंतु जानता 'मै' है कौन तथा कैसे कहता?
यदि शरीर ही 'मै' होता, तो सबमें 'मै' कैसे रहता ॥
होता 'मै' मन-इन्द्रिय तो, इनको मेरे कैसे कहता?
सुन रहा छिपकर सारी बात ।
देखता सभी घात-प्रतिघात ॥
हो गयी उससे अब पहचान ।
वही मै, भेद गया हूँ जान ॥
उसीमें समा रहा तू यार ! परम प्रिय मेरे प्राणाधार !