बिनती सुण म्हारी, सुमरो सुखकारी हरिके नामनै ॥
भटकत फिरयो जूण चौरासी लाख महा दुखदाई ।
बिन कारण कर दया नाथ फिर मिनख देह बकसाई ॥
गरभमायँ माताके आकर पाया दुःख अनेक ।
अरजी करी प्रभूसे, बाहर काढ़ो, राखो टेक ॥
करी प्रतिग्या गरभमायँ मैं सुमरण करस्यूँ थारो ।
नही लगाऊँ मन विषयाँमें प्रभुजी मने उबारो ॥
जलम लेय जगमायँ चित्तनै विषयाँ मायँ लगायो ।
जलम-मरण दुःख-हरण रामको पावन नाम भुलायो ॥
खोई उमर ब्रथा भोगाँके सुख-सुपने कै माँई ।
सुख नहिं मिल्यो, बड़्हयो दुख दिन-दिन, रह्यो सोग मन छाई ॥।
मृग-तृस्नाकी धरती मैं जो समझै भ्रमसैं पाणी ।
उसकी प्यास नही मिटणैकी, निश्चै लीज्यो जाणी ॥
यूँ इण संसारी भोगाँमैं नही कदे सुख पायो ।
दुःखरूप सुख देवै किस बिध मूरख मन भरमायो ॥
कर बिचार, मन हटा बिषयसैं प्रभु चरणाँमैं ल्याओ ।
करो कामना त्याग, हरीको नाम प्रेमसैं गाओ ॥
सुख-दुखमें संतोष करो अब, सगली इच्छा छोड़ो ।
'मै' और 'मेरो' त्याग हरीके रूप मायँ चित्त जोड़ो ॥
मिलै सांति दुख कदे न ब्यापै, आवै आनँद भारी ।
प्रेममगन हो नाम हरीको जपो सदा सुखकारी ॥