विश्वपावनी बाराणसिमें संत एक थे करते वास ।
राम-चरण-तल्लीन चित्त थे, नाम निरत, नय-निपुण निरास ॥
नित सुरसरिमें अवगाहन कर, विश्वेश्वर अर्चन करते ।
क्षमाशील, पर-दुख-कातर थे, नही किसीसे थे डरते ॥
एक दिवस श्रीभागीरथिमें ब्राह्मण विदथ नहाते थे ।
दयासिंधु देवकिनंदनके गोप्य गुणोंको गाते थे ॥
देखा, एक बहा जाता है वृश्चिक जल-धाराके साथ ।
दीन समझकर उसे उठाया संत विप्रने हाथों-हाथ ॥
रखकर उसे हथेलीपर फिर संत पोछने लगे निशंक ।
खल, कृतघ्न, पापी वृश्चिकने मारा उनके भीषण डंक ॥
काँप उठा तत्काल हाथ, गिर पड़ा अधम वह जलके बीच ।
लगा डूबने अथाह जलमें निज करनीवश निष्ठुर नीच ॥
देखा मरणासन्न, संतका चित करुणासे भर आया ।
प्रबल वेदना भूल उसे फिर उठा हाथपर, अपनाया ॥
ज्यों ही सम्हला, चेत हुआ फिर उसने वही डंक मारा ।
हिला हाथ, गिर पड़ा बहाने लगी उसे जलकी धारा ॥
देखा पुनः संतने उसको जलमें बहते दीन-मलीन ।
लगे उठाने फिर भी ब्राह्मण क्षमामूर्ति प्रतिहिंसाहीन ॥
नहा रहे थे लोग निकट सब, बोले, 'क्या करते है आप?
हिंसक जीव बचाना कोई धर्म नहीं है पूरा पाप ॥
चक्खा हाथों-हाथ बिषम फल तब भी करते है फिर भूल ।
धर्म-कर्मको डुबा चुका भारत इस कायरताके कूल ॥
'भाई! क्षमा नही कायरता यह तो वीरोंका बाना ।
स्वल्प महापुरुषोने है इसका सच्चा स्वरूप जाना ॥
कभी न डूबा क्षमा-धर्मसे, भारतका वह सच्चा धर्म ।
डूबा, जब भ्रमसे था इसने पहना कायरताका वर्म ॥
भक्तराज प्रह्लाद क्षमाके परम मनोहर थे आदर्श ।
जिनसे धर्म बचा था, जो खुद जीत चुके थे हर्षामर्ष ॥
बोले जब हँसकर यो ब्राह्मण, कहने लगे दूसरे लोग-
'आप जानते है तो करिये, हमें बुरा लगता यह योग' ॥
कहा संतने 'भाई ! मैने नही बड़ा कुछ काम किया ।
निज स्वभाव ही बरता मैने, इसने भी तो वही किया ॥
मेरी प्रकृति बचानेकी है, इसकी डंक मारनेकी ।
मेरी इसे हरानेकी है, इसकी सदा हारनेकी ॥
क्या इस हिंसकके बदलेमें मै भी हिंसक बन जाऊँ ।
क्या अपना कर्तव्य भूलकर प्रतिहिंसामें सन जाऊँ ॥
जितनी बार डंक मारेगा, उतनी बार बचाऊँगा ।
आखिर अपने क्षमा-धर्मसे निश्चय इसे हराऊँगा ॥
संतोके दर्शन-स्पर्शन-भाषण दुर्लभ जगतीतलमें ।
वृश्चिक छूट गया पापोंसे संत मिलनसे उस पलमें ॥
खुले ज्ञानके नेत्र, जन्म-जन्मान्तरकी स्मृति हो आई ।
छूटा दुष्ट स्वभाव, सरलता सुचिता सब ही तो आई ॥
संत-चरणमें लिपट गया वह, करनेको निज पावन-तन ।
छूट गया भवव्याधि विषमसे, हुआ रुचिर वह भी हरि-जन ॥
जब हिंसक जड-जंतु क्षमासे हो सकते है साधु-सुजान ।
हो सकते क्यो नही मनुज तब, माने जाते जो सज्ञान ॥
पढ़कर वृश्चिक और संतका यह नितांत सुखकर संवाद ।
अच्छा लगे मानिये, तज प्रतिहिम्सा-वैर-विवाद-विषाद ॥