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विश्वपावनी बाराणसिमें संत...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - विश्वपावनी बाराणसिमें संत...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

विश्वपावनी बाराणसिमें संत एक थे करते वास ।

राम-चरण-तल्लीन चित्त थे, नाम निरत, नय-निपुण निरास ॥

नित सुरसरिमें अवगाहन कर, विश्वेश्वर अर्चन करते ।

क्षमाशील, पर-दुख-कातर थे, नही किसीसे थे डरते ॥

एक दिवस श्रीभागीरथिमें ब्राह्मण विदथ नहाते थे ।

दयासिंधु देवकिनंदनके गोप्य गुणोंको गाते थे ॥

देखा, एक बहा जाता है वृश्चिक जल-धाराके साथ ।

दीन समझकर उसे उठाया संत विप्रने हाथों-हाथ ॥

रखकर उसे हथेलीपर फिर संत पोछने लगे निशंक ।

खल, कृतघ्न, पापी वृश्चिकने मारा उनके भीषण डंक ॥

काँप उठा तत्काल हाथ, गिर पड़ा अधम वह जलके बीच ।

लगा डूबने अथाह जलमें निज करनीवश निष्ठुर नीच ॥

देखा मरणासन्न, संतका चित करुणासे भर आया ।

प्रबल वेदना भूल उसे फिर उठा हाथपर, अपनाया ॥

ज्यों ही सम्हला, चेत हुआ फिर उसने वही डंक मारा ।

हिला हाथ, गिर पड़ा बहाने लगी उसे जलकी धारा ॥

देखा पुनः संतने उसको जलमें बहते दीन-मलीन ।

लगे उठाने फिर भी ब्राह्मण क्षमामूर्ति प्रतिहिंसाहीन ॥

नहा रहे थे लोग निकट सब, बोले, 'क्या करते है आप?

हिंसक जीव बचाना कोई धर्म नहीं है पूरा पाप ॥

चक्खा हाथों-हाथ बिषम फल तब भी करते है फिर भूल ।

धर्म-कर्मको डुबा चुका भारत इस कायरताके कूल ॥

'भाई! क्षमा नही कायरता यह तो वीरोंका बाना ।

स्वल्प महापुरुषोने है इसका सच्चा स्वरूप जाना ॥

कभी न डूबा क्षमा-धर्मसे, भारतका वह सच्चा धर्म ।

डूबा, जब भ्रमसे था इसने पहना कायरताका वर्म ॥

भक्तराज प्रह्लाद क्षमाके परम मनोहर थे आदर्श ।

जिनसे धर्म बचा था, जो खुद जीत चुके थे हर्षामर्ष ॥

बोले जब हँसकर यो ब्राह्मण, कहने लगे दूसरे लोग-

'आप जानते है तो करिये, हमें बुरा लगता यह योग' ॥

कहा संतने 'भाई ! मैने नही बड़ा कुछ काम किया ।

निज स्वभाव ही बरता मैने, इसने भी तो वही किया ॥

मेरी प्रकृति बचानेकी है, इसकी डंक मारनेकी ।

मेरी इसे हरानेकी है, इसकी सदा हारनेकी ॥

क्या इस हिंसकके बदलेमें मै भी हिंसक बन जाऊँ ।

क्या अपना कर्तव्य भूलकर प्रतिहिंसामें सन जाऊँ ॥

जितनी बार डंक मारेगा, उतनी बार बचाऊँगा ।

आखिर अपने क्षमा-धर्मसे निश्चय इसे हराऊँगा ॥

संतोके दर्शन-स्पर्शन-भाषण दुर्लभ जगतीतलमें ।

वृश्चिक छूट गया पापोंसे संत मिलनसे उस पलमें ॥

खुले ज्ञानके नेत्र, जन्म-जन्मान्तरकी स्मृति हो आई ।

छूटा दुष्ट स्वभाव, सरलता सुचिता सब ही तो आई ॥

संत-चरणमें लिपट गया वह, करनेको निज पावन-तन ।

छूट गया भवव्याधि विषमसे, हुआ रुचिर वह भी हरि-जन ॥

जब हिंसक जड-जंतु क्षमासे हो सकते है साधु-सुजान ।

हो सकते क्यो नही मनुज तब, माने जाते जो सज्ञान ॥

पढ़कर वृश्चिक और संतका यह नितांत सुखकर संवाद ।

अच्छा लगे मानिये, तज प्रतिहिम्सा-वैर-विवाद-विषाद ॥

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Last Updated : September 25, 2008

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