विश्व-वाटिकाकी प्रति क्यारीमें क्यों नित फिरता माली ।
किसके लिये सुमन चुन-चुनकर सजा रहा सुन्दर डाली ॥
क्या तू नही देखता इन सुमनोंमें उसका प्यारा रूप ।
जिसके लिये विविध विधिसे, है हार गूँथता तू अपरूप ॥
बीजांकुर शाखा-उपशाखा, क्यारी-कुंज, लता-पत्ता ।
कण-कणमें है भरी हुई उस मोहनकी मधुरी सत्ता ॥
कमलोंका कोमल पराग विकसित गुलाबकी यह लाली ॥
सनी हुई है उससे सारे विश्व-बागकी हरियाली ॥
मधुर हास्य उसका ही पाकर खिलती नित नव-नव कलियाँ ।
उसकी मंजु मत्तता पाकर भ्रमर कर रहे रँगरँलियाँ ॥
पाकर सुस्वर कंठ उसीका विहग कूँजते चारों ओर ।
देख उसीको मेघरूपमें हर्षित होते चातक मोर ॥
हार गूँथकर कहाँ जायेगा उसे ढूँढने तू माली ?
देख, इन्ही सुमनोंके अंदर उसकी मूरति मतवाली ॥
रूप रंग सौरभ-परागमें भरा उसीका प्यारा रूप ।
जिसके लिये इन्हे चुन-चुनकर हार गूँथता तू अपरूप ॥