पतित नही जो होते जगमें, कौन पतितपावन कहता ?
अधमोंके अस्तित्व बिना अधमोद्धारण कैसे कहता ॥
होते नही पातकी, 'पातकि-तारण' तुमको कहता कौन ?
दीन हुए बिन, दीनदयालो ! दीनबंधु फिर कहता कौन? ॥
पतित, अधम, पापी दीनोंको क्योंकर तुम बिसार सकते ।
जिनसे नाम कमाया तुमने, क्योंकर उन्हें टाल सकते ॥
चारों गुण मुझमें पूरे, मै तो विशेष अधिकारी हूँ ।
नाम बचानेका साधन हूँ, यों भी तो उपकारी हूँ ॥
इतनेपर भी नाथ ! तुम्हे यदि मेरा स्मरण नहीं होगा ।
दोष क्षमा हो, इन नामोंका रक्षण फिर क्योंकर होगा ॥
सुन प्रलापयुत पुकार, अब तो करिये नाथ ! शीघ्र उद्धार ।
नही, छोडिये, नामोंको यों कहनेको होता लाचार ॥
जिसके कोई नही, तुम्ही उसके रक्षक कहलाते हो ।
मुझे नाथ अपनोमें फिर क्यों इतना सकुचाते हो ?
नाम तुम्हारे चिर सार्थक है मेरा दृढ़ विश्वास यही ।
इसी हेतु, पावन कीजै प्रभु ! मुझे कहींसे आस नही ॥
चरणोंको दृढ़ पकड़े हूँ, अब नहीं हटूँगा किसी तरह ।
भले फेंक दो, नही सुहाता अगर पड़ा भी इसी तरह ॥
पर यह रखना, स्मरण नाथ ! जो यों दुतकारोगे हमको ।
अशरणशरण, अनाथनाथ, प्रभु कौन कहेगा फिर तुमको?