स्याम मोरे ढिगते कबहुँ न जावै ।
कहा कहूँ सखि ! गैल न छाडै, जित जाऊँ तित धावै ॥
गैया दुहत गोद आ बैठे, दूध धार पी जावै ।
दही मथत नवनी लेबेकौ, मटकी माहिं समावै ॥
रोटी करत आइ चौकामै, ऊधम अमित मचावै ।
जेंवत बेर संग आ बैठे, माल-माल गटकावै ॥
सखियन सँग बतरात आइ जो पंचराज बनि जावै ।
मुरली मधुर बजाय देखु सखि, मोहन हमहिं रिझावै ॥
सोवत समै सेज आ पौढ़े, गृह स्वामी बनि जावै ।
स्वलप निंदरिया बिच सपनमहँ माधुरि-रूप दिखावै ॥
तदपि न बरजत बनै ताहि सखि, चित अति ही सुख पावै ।
बारहिं बार निहारि चंद्रमुख, अंदर अति हुलसावै ॥