खड़ा अपराधी प्रभुके द्वार !
न्याय चाहता, क्षमा नहीं, दो दण्ड दोष अनुसार ॥१॥
अर्थ-दण्ड देना चाहो तो करो स्वार्थ सब छार ।
रहने मत दो कुछ भी इसके 'अपना' 'मेरा' कार ॥२॥
कैद अगर करना चाहो तो प्रेम-बेड़ियाँ डार ।
रक्खो बाँध इसे नित निज चरणोंके कारागार ॥३॥
निर्वासित करना चाहो तो लूटो घर-संसार ।
पहुँचा दो सत्वर दोषीको भव-समुद्रके पार ॥४॥
कभी न आने दो फिर वापस, मरने दो बेकार ।
बह जाने दो इसे वहाँ सच्चिदानन्दकी धार ॥५॥