बिदुर-गह्र स्याम पाहुने आये ।
नख-सिख रुचिररूप मनमोहन, कोटिमदन छबि छाये ॥
बिदुर न हुते घरहिमें तेहि छिन, स्याम पुकारन लागे ।
बिदुर घरनि नहाति उठि धाई नैन प्रेमरस पागे ॥
भूली बसन न्हात रहि जेहि थल, तनु सुधि सकल भुलाई ।
बोलति अटपट बचन प्रेमबस, कदरी-फल ले आई ॥
छीलत डारत गूदो इत-उत छिलका स्याम खवावै ।
बारहिं-बार स्वाद कहि-कहि हरि,प्रमुदित भोग लगावै ॥
तनिक बेर मह॥ हरि गुन गावत, बिदुर घरहिं जब आये ।
देखि दरस सो कहत, 'अहह ! तैं छिलका स्याम खवायें' ॥
करतें केरा झटकि बिदुर घरनी घरमाहि पठाई ।
तनु सुधि पाइ सलाज ससंकित, बसन पहिरि चलि आई ॥
बिदुर प्रेमजुत छीलि छीलिकै केरा हरिहिं खवावै ।
कहत स्याम वह सरस मनोहर स्वाद न इनमहँ आवै ॥
भूखो सदा प्रेमको डोलूँ भगत-जनन गृह जाऊँ ।
पाइ प्रेमजुत अमिय पदारथ, खात न कबहुँ अघाऊँ ॥
हरि अवतरे कारागार ॥
दिसि सकल भइँ परम निरमल अभ्र सुखमा-सार ।
लता-बिटप सुपल्लवित पुष्पित नमत फल-भार ॥
सुखद मंद सुगंध सीतल बहत मलय-बयार ।
देवगन हरखत सुमन बरखत करत जयकार ॥
बिनय करत बिरंचि नारद सिद्ध बिबिध प्रकार ।
करत किन्नर गान बहु गंधरब हरख अपार ॥
संख चक्र गदा नवांबुज लसत है भुज चार ।
भृगु-लता कौस्तुभ सुसोभित, कांतिके आगार ॥
नौमि नीरद नील नव तनु गले मुकताहार ।
पीत पट राजत, अलक लखि अलिहु करत पुकार ॥
परम बिस्मित देखि दंपति छबिहिं अमित उदार ।
निरखि सुंदरता अपरिमित लाजत कोटिन मार ॥