प्रियतम ! न छिप सकोगे, चाहे जो वेश धर लो ।
अब हो चुकी ह, मुझको, पहचान वह तुम्हारी ॥
ढूँढ़ा तुम्हे अभीतक, मंदिर जा मस्जिदोमें ।
पर देख तौ न पाया वह माधुरी पियारी ॥
जिसने बताया जैसे, वैसे ही ढूँढा मैने ।
भटका, कहीं न दीखे, चैतन्य ! चित्तहारी ॥
बस, बेतरह हराया, आया जो पास मेरे ।
तुमको, बता-बताकर, शब्दोंकी मार मारी ॥
पर देखकर न तुमको, था सोचता यों मनमें ।
है वा नहीं है जगमें सत्ता कही तुम्हारी ॥
संदेह जब यों होता, झाँकी-सी मार जाते ।
तिरछी नजरसे हँसकर, छिपते तुरत बिहारी ॥
बिजली-सी दौड जाती, सन-सन शरीर करता ।
होती थी इन्द्रियाँ सब प्रखर प्रकाशकारी ॥
तब दीखता था मुझको, फैला प्रकाश सबमें ।
प्राणेश ! बस, तुम्हारा, वह दिव्य मोदकारी ॥
आँधी-सी एक आती, धन कीर्ति-कामिनीकी ।
सारा प्रकाश ढकता, उस तमसे अंधकारी ॥
आ-आके इस तरह तुम, यों बार-बार जाते ।
मुझको न थी तुम्हारी पहचा पुण्यकारी ॥
आँखोंमें बैठ करके तुम देखते हो सबको ।
कानोमें बैठ सुनते तुम शब्द सौख्यकारी ॥
नाकोंसे गंध लेते रसनासे चाखते तुम ।
हो स्पर्श तुम ही करते, लीला विचित्रकारी ॥
प्राणोमें, चित्त-मनमें मतिमें, अहंमे, तूमे ।
सबमें पसार करके तुम खेलते खिलारी ॥
बेढब नकाबपोशी रक्खी है सीख तुमने ।
अंदर समाके सबके छिपते, अजीब यारी ॥
जिसको दिखाया तुमने परदा हटाके अपना ।
वह रूप-रंग अनोखा, प्रेमोन्मत्तकारी ॥
पिर भूलता नही वह, औ भूल भी न सकता ।
पहचान नित्य होती पारस्परिक तुम्हारी ॥
आँधी कभी न आती, आँखे न चौधियाती ।
वह दिव्य दृष्टि पाकर होता सदा सुखारी ॥
सुख-दुःख जय-पराजय, तम-तेज, यश-अयशमें ।
दिखती उसे सभीमें छबि मोहिनी तुम्हारी ॥
फिर देखता वह तुमसे सारा जगत भरा है ।
अपनी जरा-सी सत्ता वह देखता न न्यारी ॥
तुम हो समाये सबमे, वह है समाया तुममे ।
भय-भेद-भ्रांति मिटती उस एक छनमें सारी ॥