तजो रे मन झूठे सुखकी आसा ।
हरि-पद भजो, तजो सब ममता, छोड़ बिषय-अभिलासा ।
बिषयनमें सुख सपनेहुँ नाहीं, केवल मात्र दुरासा ॥
कामिनि-सुत, पितु-मातु, बंधु, जस, कीरति सकल, सुपासा ।
छिनमहँ होत बियोग सबन्हते, कठिन काल जग नासा ॥
क्षणभंगुर सब बिषय, निरंतर बनत कालके ग्रासा ।
इनमें जो कोउ फिर सुख चाहत सो नित मरत पियासा ॥
प्रभु-पद-पदम सदा अबिनासी, सेवत परम हुलासा ।
मिलै परम सुख, घटै न कबहूँ, जिनके मन बिस्वासा ॥