सकल जग हरिको रूप निहार !
हरि बिनु विश्व कतहुँ कोउ नाहीं, मिथ्या भ्रम संसार ॥
अलख-निरंजन, सब जग ब्यापक, सब जग को आधार ।
नहिं आधार नाहिं कोउ हरिमहुँ, केवल हरि-विस्तार ॥
अति समीप, अति दूर, अनोखे जगमहँ जगतें पार ।
पय-घृत पावक काष्ठ, बीजमहँ तरु फल पल्लव-डार ॥
तिमि हरि ब्यापक अखिल विश्वमहँ आनँद पूर्ण अपार ।
एहि बिदि एक बार निरखत ही भवबारिधि हो पार ॥