गौतम बुद्ध n. बुद्धधर्म का सुविख्यात संस्थापक, जो बौद्ध वाड्मय में निर्दिष्ट पच्चीस बुद्धों में से अंतिम बुद्ध माना जाता हैं । बोध प्राप्त हुए साधक को बौद्ध वाड्मय में ‘ बुद्ध ’ कहा गया है, एवं ऐसी व्यक्ति धर्म के ज्ञान के कारण अन्य मानवीय एवं दैवी व्यक्तियों से श्रेष्ठ माना गया है ।
गौतम बुद्ध n. ‘ दीपवंश ’ जैसे प्राचीनतर बौद्ध ग्रंथ में बुद्धों की संख्या सात बतायी गयी हैं, एवं उनके नाम निम्न प्रकार दिये गये है : - १. विपश्य; २. शिखिन् ३. वेश्यभू; ४. ककुसंघ; ५. कोणागमन; ६. कश्यप; ७. गौतम (दीप. २.५, संयुक्त. २.५) ।
‘ बुद्धवंश ’ जैसे उत्तरकालीन बौद्ध ग्रंथ में बुद्धों की संख्या पच्चीस बतायी गयी है, जिनमें उपनिर्दिष्ट बुद्धों के अतिरिक्त निम्नलिखित वृद्ध विपश्य से पूर्वकालीन बताये गये हैं :- १. दीपंकर; २. कौंडन्य; ३. मंगल; ४. सुमन, ५. रेवत; ६. शोभित, ७. अनोमदर्षिन्; ८. पद्म; ९. नारद १०. पक्षुत्तर; ११. सुमेध; १२. सुजात; १३. प्रियदर्शन; १४. अर्थदर्शिन्; १५. धर्मदर्शिन्; १६. सिद्धांत; १७. तिप्य; १८. पुष्य ।
गौतम बुद्ध n. गौतम के पिता का नाम शुद्धोदन था, जो श्रावस्ती से साठ मील उत्तर में एवं रोहिणी नदी के पश्चिम तट पर स्थित शाक्यों के संघराज्य का प्रमुख था । शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु में थी, जहाँ गौतम का जन्म हुआ था । प्राचीन शाक्य जनपद कोमल देश का ही भाग था, इसी कारण गौतम ‘ शाकीय ’ एवं ‘ कोसल ’ कहलाता था
[मज्झिम. २.१२४] । गौतम की माता का नाम महामाया था, जो रोहिणी नदी के पूरब में स्थित कोलिय देश की राजकन्या थी । आषाढ माह की पौर्णिमा के दिन महामाया गर्भवती हुई, जिस दिन बोधिसत्त्व ने एक हाथी के रुप में उसके गर्भ में प्रवेश किया । दस महीनों के बाद कपिलवस्तु से देवदह नगर नामक अपने मायके जाते समय लुंबिनीवन में वह प्रसूत हुई । वैशाख माह की पौर्णिमा बौद्ध का जन्मदिन मानी गयी है । इसी दिन, इसकी पत्नी राहुलमाता, बोधिवृक्ष, इसका कंथक नामक अश्व, एवं छन्न एवं कालुदाई नामक इसके नौकर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए । गौतम का जन्मस्थान लुम्बिनी आधुनिक काल में ‘ रुम्मिनदेई ’ नाम से सुविख्यात है, जो नेपाल की तराई में बस्ती नामक जिले की सीमापर स्थित है । इसके जन्म के पश्चात् सात दिनों के बाद इसकी माता की मृत्यु हुई । जन्म के पाँचवे दिन इसकी नामकरणविधि सम्पन्न हुई, जिसमें इसका नाम ‘ सिद्धार्थ ’ रक्खा गया ।
गौतम बुद्ध n. इसका स्वरुपवर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है । यह लेव कद का था । इसकी आँखे नीली, रंग गोरा, कान लटकते हुए, एवं हाथ लंबे थे, जिनकी अंगुलियाँ घुटने तक पहुँचती थी । इसके केश घुघराले थे, एवं छाती चौडी थी । इसकी आवाज अतिसुंदर एवं मधुर थी, जिसमें उत्कृष्ट वक्ता के लिए आवश्यक प्रवाह, माधुर्य, सुस्पष्टता, तर्कशुद्धता एवं नादमधुरता ये सारे गुण समाविष्ट थे
[मज्झिम. १.२६९] ; १७५ । बौद्ध साहित्य में निर्दिष्ट महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से यह युक्त था ।
गौतम बुद्ध n. उसकी आयु के पहले उन्तीस वर्ष शाही आराम में व्यतीत हुए । इसके रम्य, सुरम्य, एवं शुभ नामक तीन राजप्रसाद थे, जहाँ यह वर्ष के तीन ऋतु व्यतीत करता था
[अंगुत्तर. १.१४५] । सोलह वर्ष की आयु में सुप्रबुद्ध की कन्या यशोधरा (भद्रकच्छा अथवा बिंबा) से इसका विवाह संपन्न हुआ, जो आगे चलकर राहुलमाता नाम से सुविख्यात हुई । कालोपरांत अपनी इस पत्नी से इसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे अपने आध्यात्मिक जीवन का बंधन मानकर उसका नाम ‘ राहुल ’ (बंधन) रख दिया ।
गौतम बुद्ध n. इसकी मनोवृत्ति शुरु से ही चिंतनशील, एवं वैराग्य की ओर झुकी हुयी थी । आगे चल कर एक बूढा, एक रोगी, एवं एक लाश के रुप में इसे आधिभौतिक जीवन की त्रुटियाँ प्रकर्ष से ज्ञात हुई, एवं लगा कि, क्षुद्र मानवीय जंतु जिसे सुख मान कर उसमें ही लिप्त रहता है, वह केवल क्षणिक ही नहीं, बल्कि समस्त मानवीय दुःखों का मूल है । उसी समय इसने एक शांत एवं प्रसन्नमुख संन्यासिन् को देखा, जिसे देख कर इसका संन्यास जीवन के प्रति झुकाव और भी बढ गया ।
गौतम बुद्ध n. पश्चात् आषाढ माह की पौर्णिमा की रात्रि में इसने समस्त राजवैभव एवं पत्नीपुत्रों को त्याग कर, यह अपने कंथक नामक अश्वपर आरुढ हो कर कपिलावस्तु छोड कर चला गया । पश्चात् शाक्य, कोल्य, एवं मल्ल राज्यों को एवं अनुमा नदी को पार कर, यह राजगृह नगर पहुँच गया । इसे गौतम का महाभिनिष्क्रमण कहते है ।
गौतम बुद्ध n. राजगृह में बिंबिसागर राजा से भेंट करने के उपरान्त यह तपस्या में लग गया । आधिभौतिक गृहस्थधर्म से यह पहले से ही ऊब चुका था । अब यह संन्यास देहदण्ड का आचारण कर तपस्या करने लगा । सर्वप्रथम यह आडार, कालम एवं उद्रक रामपुत्र आदि आचार्यौं का शिष्य बना, किन्तु उनकी सूखी तत्त्वचर्चा से ऊब कर यह उरुबेला में स्थित सेनानीग्राम में गया, एवं वहाँ पंचवर्गीय ऋषियों के साथ इसने छः वर्षोंतक कठोर तपस्या की । इस तपस्या के पश्चात् भी इसका मन अशान्त रहा, इस कारण यह हठयोगी तापसी का जीवन छोड कर सामान्य जीवन बिताने लगा । इस समय इसे प्रतीत हुआ कि, मानवी शरीर को अत्यधिक त्रस्त करना उतना ही हानिकारक है, जितना उसे अत्यधिक सुख देना है । पश्चात् यह अकेला ही देहाती स्त्रियों से भिक्षा माँग कर धीरे धीरे स्वाथ्य प्राप्त करने लगा । इसी काल में, सुजाता नामक स्त्री पीने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ हुए इसे वृक्षदेवता समझ कर लगातार पाँच दिनों तक सुवर्ण पात्र में पायस खिलायी ।
गौतम बुद्ध n. वैशाख पौर्णिमा के दिन नैरंजरा नदी में स्थित सुप्रतीर्थ में इसने स्नान किया, एवं वही स्थित शालवन में सारा दिन व्यतीत किया । पश्चात् श्रोत्रिय के द्वारा दिये गये घांस का आसन बना कर, यह बोधि वृक्ष के पूर्व भाग में बैठ गया । उसी समय, गिरिमेखल नामक हाथी पर आरुढ हो कर, मार (मनुष्य की पापी वासनाएँ) ने इस पर आक्रमण किया, एवं अपना चक्रायुध नामक अस्त्र इसपर फेंका । इसने मार को जीत लिया, एवं इसके चित्तशान्ति के सारे विक्षेप नष्ट हुए । पश्चात् उसी रात्रि में इसे अपने पूर्वजन्मों का, एवं विश्व के उत्पत्ति कारणपरंपरा (प्रतीत्य समुत्पाद) का ज्ञान हुआ, एवं दिव्यचक्षु की प्राप्ति हुई । बाद में उसे वह बोध (ज्ञान) हुआ, जिसकी खोज में यह आज तक भटकता फिरता था । उसी दिन इसे ज्ञात हुआ, कि संयमसहित सत्याचरण एवं जीवन ही धर्म का सार है, जो इस संसार के सभी यज्ञ, शास्त्रार्थ एवं तपस्या से बढ कर हैं । पश्चात् यह तीन सप्ताहों तक बोधिवृक्ष के पास ही चिंतन करता रहा । इसी समय इसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि, अपने को ज्ञात हुआ बोध यह अपने पास ही रक्खें, अथवा उसे सारे संसार को प्रदान करें । उसी समय ब्रह्मा ने प्रत्यक्ष दर्शन दे कर इसे आदेश दिया कि, ‘ उत्थान ’ (सतत उद्योगत रहना) एवं ‘ अप्रमाद ’ (कभी ढील न खाना) यही इसका जीवन कर्तव्य है । ब्रह्मा के इस आदेश के अनुसार, इस ने स्वयं को प्राप्त हुए बोध का संसार में प्रसार करना प्रारंभ किया ।
गौतम बुद्ध n. अपने धर्मरुपी चक्र का प्रवर्तन (सतत प्रचार करना) का कार्य इसने सर्व प्रथम सारनाथ (वाराणसी) में प्रारंभ किया, जहा इसने पाँच तापसों के समुदाय के सामने अपना पहला धर्मप्रवचनं दिया । इसने कहा, ‘ संन्यासियों को चाहिये कि, वे दो अन्तों (सीमाओं) का सेवन न करे । इनमें से एक ‘ अन्त ’ काम एवं विषय सुख में फँसना है, जो अत्यंत हीन ग्राम्य एवं अनार्य है । दूसरा ‘ अन्त ’ शरीर को व्यर्थ कष्ट देना है, जो अनार्य एवं निरर्थक है । इन दोनों अन्तों का त्याग कर ‘ तथागत ’ ठीक समझनेवाले (बुद्ध) ने ‘ मध्यम प्रतिपदा ’ (मध्यम मार्ग) को स्वीकरणीय माना है, जो विचारप्रणाली आँखे खोल देनेवाली एवं ज्ञान प्राप्त करनेवाली है ’ । मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करनेवाला बुद्ध का यह पहला प्रवचन ‘ धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र ’ नाम से सुविख्यात है । जिस प्रकार राजा लोग चक्रवर्ती बनने के लिए अपने रथ का चक्र चलाते है, वैसे ही इसने धर्म का चक्र प्रवर्तित किया । वे चातुर्मास्य के दिन थे, जिसमें संन्यासियों के लिए यात्रा निषिद्ध मानी गयी है । इसी कारण चार महिनों तक यह सारनाथ में ही रहा । इसी काल में इसने ‘ अन्तलख्खण सूत्र ’ नामक अन्य एक प्रवचन किया, एवं इसके शिष्यों में साठ भिक्षु एवं बहुत से उपासक (गृहस्थ अनुयायी) शामिल हो गयें ।
गौतम बुद्ध n. अपने उपर्युक्त भिक्षुओं को इसने ‘ संघ ’ (प्रजातंत्र) के रुप में संघटित किया, जहाँ किसी एक व्यक्ति की हुकूमत न हो कर, संघ की ही सत्ता चलती थी । चातुर्मास्य समाप्त होते ही इसने अपने संघ के भिक्षुओं आज्ञा दी, ‘ अब तुम जनता के हित के लिए घूमना प्रारंभ करो । मेरी यही इच्छा है कि, कोई भी दो भिक्षु एक साथ न जाये, किन्तु अलग स्थान पर जा कर धर्मोपदेश करता रहे ’ ।
गौतम बुद्ध n. चातुर्मास्य के पश्चात् यह सेनानीग्राम एवं उरुवेला से होता हुआ गया पहुँच गया । वहाँ ‘ आदिन्त परियाय ’ नामक सुविख्यात प्रवचन दिया, जिस कारण इसे अनेकानेक नये शिष्य प्राप्त हुए । उनमें तीन काश्यप बन्धु भी थें, जो बडे विद्वान् कर्मकाण्डी थे, एवं जिनके एक सहस्त्र शिष्य थें । इसका प्रवचन सुन कर उन्होंनें यज्ञों की सभी सामग्री निरंजना नदी में बहा दी, एवं वे इसके शिष्य बन कर इसके साथ निकल पडे । कश्यप बन्धुओं के इस वर्तन का काफी प्रभाव मगध की जनता पर पडा ।
गौतम बुद्ध n. पश्चात् यह अपने शिष्यों के साथ राजगृह के श्रेणिक बिंबिसार राजा के निमंत्रण पर उस नगरी में गया । वहाँ राजा ने इसका उचित आदरसत्कार किया, एवं राजगृह में स्थित वेलुवन बुद्धसंघ को भेंट में दे दिया । इसी नगर में रहनेवाले सारिपुत्त एवं मौद्गलायन नामक दो सुविख्यात ब्राह्मण बुद्ध के अनुयायी बन गये, जो आगे चलकर ‘ अग्रश्रावक ’ (प्रमुख शिष्य) कहलाये जाने लगे
[विनय. १ - २३] । इसी काल में बुद्ध के विरोधकों की संख्या भी बढती गयी, जो इसे पाखंडी मान कर अपने बंध्यत्व, आदि आपत्तियों के लिए इसे जिम्मेदार मानने लगे । किन्तु इसने इन आक्षेपों को तर्कशुद्ध एवं सप्रमाण उत्तर दे कर स्वयं को निरपराध साबित किया
[विनय १.] ।
गौतम बुद्ध n. इसका यश अब कपिलवस्तु तक पहुँच गया, एवं इसके पिता शुद्धोदन ने इसे खास निमंत्रण दिया । पश्चात् फाल्गुन पौर्णिमा के दिन, यह अपने बीस हजार भिक्षुओं के साथ कपिलवस्तु की ओर निकल पडा (थेरगाथा ५२७.३६) । कपिलवस्तु में यह न्यग्रोधाराम मे रहने लगा, एवं वहीं इसने ‘ वेशान्तर जातक ’ का प्रणयन किया । दूसरे दिन इसने अन्य भिक्षुओं के साथ कपिलवस्तु में भिक्षा माँगते हुए भ्रमण किया । पश्चात् इसका पिता शुद्धोदन अन्य अन्य भिक्षुओं के साथ इसे अपने महल में ले गया, जहाँ इसकी पत्नी यशोधरा के अतिरिक्त सभी स्त्री पुरुषों नें इसका उपदेश श्रवण किया । पश्चात् यह सारीपुत्त एवं मौद्गलायन इन दो शिष्यों के साथ यशोधरा के महल में गया, एवं उसे ‘ चण्डकिन्नर जातक ’ सुनाया । इसे देखते ही यशोधरा गिर पडी एवं रोने लगी । किन्तु पश्चात् उसने अपने आप को सम्हाला, एवं इसका उपदेश स्वीकार लिया । पश्चात् इसके पुत्र राहुल के द्वार ‘ पितृदाय ’ की माँग किये जाने पर इसने उसे भी प्रव्रज्या (संन्यास) का दान किया । यह सुन कर शुद्धोदन को अत्यधिक दुःख हुआ, जिससे द्रवित हो कर इसने यह नियम बनाया कि, अपनी मातापिताओं की संमति के विना किसी भी बालक को भिक्षु न बना दिया जाय । इसकी इस कपिलवस्तु की भेंट में ८० हजार शाक्य लोग भिक्षु बन गये, जिनमें आनंद एवं उपलि प्रमुख थे । आगे चल कर आनंद इस का ‘ उपस्थावक ’ (स्वीय सहायक) बन गया, एवं उपालि इस के पश्चात् बौद्ध संघ का प्रमुख बन गया ।
गौतम बुद्ध n. एक वर्ष के भ्रमण के पश्चात् यह पुनः एक बार राजगृह में लौट आया, जहाँ श्रावस्ती का करोडपति सुदत्त अनाथपिंडक इसे निमंत्रण देने आया । इस निमंत्रण का स्वीकार कर यह वैशाली नगरी होता हुआ श्रावस्ती पहुँच गया । वहाँ सुदत्त ने राजकुमार जेत से ‘ जेतवन ’ नामक एक बगीचा खरीद कर, उसे बुद्ध एवं उसके अनुयायियों के निवास के लिए दान में दे दिया । यह बगीचा खरीदने के लिए सुदत्त ने जेत को उतने ही सिक्के अदा किये, जितने उस बगीचे में बिछाये जा सकते थें । इसी काल में श्रावस्ती के विशाखा ने इसे ‘ पूर्वाराम ’ नामक वन इसे भेंट में दिया । श्रावस्ती के उग्रसेन ने भी इसी समय बौद्धधर्म का स्वीकार किया
[धम्मपद, ४.५९] ।
गौतम बुद्ध n. इसे परमज्ञान होने के पश्चात् इसके पिता शुद्धोदन का देहान्त हुआ । इसके पिता की मृत्यु के पश्चात्, इसकी माता महाप्रजापति गौतमी एवं अन्य शाक्य स्त्रियों ने बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा प्रकट की । इसने तीन बार उस प्रस्ताव का अस्वीकार किया, किन्तु आगे चल कर आनंद की मध्यस्थता के कारण इसने स्त्रियों को बौद्धधर्म में प्रवेश करने की अनुज्ञा दी । तत्पश्चात् भिक्षुणी के संघ की अलग स्थापना की गयी, एवं जिस प्रकार वृद्ध भिक्षु ‘ थेर ’ (स्थविर) नाम से प्रसिद्ध थे, उसी प्रकार वृद्ध भिक्षुणियाँ ‘ थेरी ’ (स्थविरी) कहलायी जाने लगी । इन दो बुद्धसंघों का साहित्य क्रमशः ‘ थेरगाथा ’ एवं ‘ थेरीगाथा ’ में संग्रहित है ।
गौतम बुद्ध n. तदुपरांत अपनी आयु का ४५ वर्षौ तक का काल इसने भारत के विभिन्न सोलह जनपदों में भ्रमण करने में व्यतीत किया, जिसकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है : - १. छठवें साल में - श्रावस्ती, जहाँ इसने ‘ यमकपाठिहारिय ’ नामक अभियानकर्म का दर्शन अपने भिक्षुओं को दिया
[धम्मपद. ३.१९९] ; २. सातवें साल में - मंकुलपर्वत; ३. आठवें साल में - भर्ग
[मनोरथपूरणी. १.२१७] ; ४. नौंवें साल में - कौशांबी; ५. दसवें साल में - पारिलेयक्कवन; ६. ग्यारहवें साल में - एकनाला ग्राम; ७ बारहवें साल में - वेरांजाग्राम; ८. तेरहवें साल में - चालिकपर्वत; ९. चौदहवें साल में - श्रावस्ती; १०. पद्रहवें साल में - कपिलवस्तु; ११. सोलहवें एवं सत्रहवें साल में - अलावी; १२. अठारहवें एवं उन्नीसवें साल में - चालिकपर्वत; १३. वीसवें साल में - राजगृह ।
गौतम बुद्ध n. प्रचलित बौद्ध साहित्य से प्रतीत होता है कि, पच्चीस वर्ष की आयु में इसे परमज्ञान की प्राप्ति हुई । उसके बाद के पच्चीस साल इसने भारत के विभिन्न जनपदों के भ्रमण में व्यतीत किये । इस भ्रमणपर्व के पश्चात् पच्चीस साल तक यह जीवित रहा, किन्तु बौद्धजीवन से संबंधित इस पर्व की अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध सामुग्री से प्रतीत होता है कि, वर्षाकाल के चार महिने यह श्रावस्ती के जेतवन, एवं पूर्वाराम में व्यतीत करता था, एवं बाकी आठ महिने विभिन्न स्थानों में घूमने में व्यतीत करता था ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध के द्वारा भेंट दिये गये स्थानों में निम्नलिखित प्रमुख थे :- अग्रालवचेतीय; अनवतप्त सरोवर, अंधकविंद, आम्रपालीवन, अंबयष्टिकावन, अश्वपुर, आपण, उग्रनगर, उत्तरग्राम, उत्तरका, उत्तरकुरु, उरुवेलाकप्प, एकनाल, ओपसाद, कजंगल, किंबिला, कीटगिरि, कुण्डधानवन, केशपुत्र, कोटिग्राम, कौशांबी, खानुमत, गोशिंगशालवन, चंडालकप्प, चंपा, चेतीयगिरि, जीवकंबबन, तपोदाराम, दक्षिण गिरि, दण्डकप्प, देवदह, नगरक, नगारविंद, नालंदा, पंकधा, पंचशाला, पाटिकाराम, वेलुव, भद्रावती, भद्रिय, भगनगर, मनसाकेत, मातुला, मिथिला, मोरणिवाप, रम्यकाश्रम, यष्टिवन, विदेह, वेनागपुर, वेलुद्वार, वैशालि, साकेत, श्यामग्राम, शालवाटिक, शाला, शीलावती, सीतावन, सेतव्य, हस्तिग्राम, हिमालय पर्वत ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध के महानिर्वाण के पूर्व की एक महत्त्वपूर्ण घटना, इसका देवदत्त से विरोध कही जा सकती है । परिनिर्वाण के आठ साल पहले मगध देश का सुविख्यात सम्राट् एवं बुद्ध का एक एकनिष्ठ उपासक राजा बिंबिसार मृत हुआ । इस सुसंधी का लाभ उठा कर देवदत्त नामक बुद्ध के शिष्य ने बौद्धधर्म का संचालक्त्व इससे छीनना चाहा । इसी कार्य में मगध देश के नये सम्राट अजातशत्रु ने देवदत्त की सहायता की । गृध्रकूट पर्वत से एक प्रचंड शीला गिरा कर देवदत्त ने इसका वध करने का प्रयत्न किया । यह प्रयत्न तो असफल हुआ, किन्तु आहत हो कर इसे जीवक नामक वैद्यकशास्त्रज्ञ का औषधोपचार लेना पडा । इसके वध का यह प्रयत्न असफल होने पर, देवदत्त ने अपने पाँच सौ अनुयायियों के साथ एक स्वतंत्र सांप्रदाय स्थापन करना चाहा, जिसका मुख्य केंद्र गयाशीर्ष में था । किन्तु सारीपुत्त एवं मौद्गलायन के प्रयत्नों से देवदत्त का यह प्रयत्न भी असफल हुआ, एवं वह अल्पावधी में ही मृत हुआ ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध के अंतीमयात्रा का सविस्तृत वर्णन ‘ महापरिनिर्वाण ’ एवं ‘ महासुदर्शन ’ नामक सूत्र ग्रंथों में प्राप्त है । गृध्रकूट से निकलने के पश्चात् यह अंबयष्टिका, नालंदा, पाटलिग्राम, गोतमद्वार, गोतमतीर्थ, कोटीग्राम आदि ग्रामों से होता हुआ वैशाली नगरी में पहुँच गया । वहाँ लिच्छवी के नगरप्रमुख के निमंत्रण का अस्वीकार कर, वृद्ध ने आम्रपाली गणिका के आमंत्रण का स्वीकार किया । उसी समय आम्रपाली ने वैशालि में स्थित अपना ‘ आम्रपालीवन ’ इसे अर्पित किया । पश्चात् यह वैशालि से वेलुवग्राम गया, जहाँ यह बीमार हुआ ।
गौतम बुद्ध n. बीमार होते ही इसने आनंद से कहा “ मेरा अवतारकार्य समाप्त हो चुका है । जो कुछ भी मुझे कहना था वह मैने कहा है । अब तुम अपनी ही ज्योति में चलो, धर्म की शरण में चलो ’ । पश्चात् इसने जन्मचक्र से छुटकारा पाने के लिए एक चतुः सुत्री कथन की, जिसमें पवित्र आचरण, तपः साधन, ज्ञानसाधना एवं विचारस्वातंत्र्य का समावेश था ।पश्चात् मल्लों के अनेक गाँवों से होता हुआ यह पावा पहुँच गया, वहाँ चुन्द नामक लुहार ने ‘ सूकरमद्दव ’ नामक सूकरमाँस से युक्त पदार्थ का भोजन इसे कराया, जिस कारण रक्तातिसार हो कर कुशीनगर के शालवन में इसका महापरिनिर्वाण (बूझना) हुआ । महापरिनिर्वाण के पूर्व अपना अंतीम संदेश कथन करते हुए इसने कहा था, ‘ संसार की सभी सत्ताओं की अपनी अपनी आयु होती है । अप्रमाद से काम करते रहो, यही ‘ तथागत ’ की अंतिम वाणी है ’ । महापरिनिर्वाण के समय इसकी आयु अस्सी वर्ष की थी, एवं इसका काल इ. पूर्व ५४४ माना जाता है ।
गौतम बुद्ध n. कुशीनगर के मल्लों ने इसका दाहकर्म कर, एवं इसकी धातुओं (अस्थियाँ) को मालाधनुषों से घिर कर आठदिनों तक नृत्यगायन किया । पश्चात् इसकी धातु निम्नलिखित राजाओं ने आपस में बाँट लिये : - १. अजातशत्रू (मगध); २. लिच्छवी (वैशालि); ३. शाक्य (कपिलवस्तु); ४. बुलि (अल्लकप्प); ५. कोलिय (रामग्राम); ६. मल्ल (पावा); ७. एक ब्राह्मण (वेठद्वीप) । बुद्ध की रक्षा पिप्तलीवन के मोरिय राजाओं ने ले ली । पश्चात् बुद्ध की अस्थियों पर विभिन्न स्तूप बनवाये गये । किसी पवित्र अवशेष के उपर यादगार के रुप में वास्तु बनवाने की पद्धति वैदिक लोगों में प्रचालित थी । बौद्ध सांप्रदायी लोगों ने उसका ही अनुकरण कर बुद्ध के अवशेषों पर स्तूपों की रचना की ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध का समस्त तत्वज्ञान तात्त्विक एवं नैतिक भागों में विभाजित किया जा सकता है । किन्तु सही रुप में, वे दो विभिन्न तत्त्वज्ञान एक ही तत्त्वज्ञान के दो पहलु कहे जा सकते है । इस तत्त्वज्ञान में मानवीय जीवन दूःखपूर्ण बताया गया है, एवं उस दुःख को उत्पन्न करनेवाले कारणों को दूर कर उससे छुटकारा पाने का संदेश बुद्ध के द्वारा दिया गया है । मानवीय जीवन की इस दुःखरहित अवस्था को बुद्ध के द्वारा ‘ निर्वाण ’ कहा गया है । बुद्ध के द्वारा प्रणीत ‘ निर्वाण ’ की कल्पना परलोक में ‘ मुक्ति ’ प्राप्त कराने का आश्वासन देनेवाले वैदिक हिंदुधर्म से सर्वस्वी भिन्न है । मुमुक्षु साधक को इसी आयु में मुक्ति मिल सकती है, एवं उसे प्राप्त करने के लिए चित्तशुद्धि एवं सदाचरण की आवश्यकता है, यह तत्त्व बुद्ध ने ही प्रथम प्रतिपादन किया, एवं इस प्रकार धर्म को ‘ परलोक ’ का नही, बल्कि ‘ इहलोक ’ का साधन बनाया । इस निर्वाणप्राप्ति के लिए ‘ मध्यममार्ग ’ से चलने का आदेश बुद्ध के द्वारा दिया गया है, एवं देहदण्ड एवं शारीरिक सुखोपभोग इन दोनों आत्यंतिक विचारों का त्याग करने की सलाह बुद्ध के द्वारा ही गयी है । बुद्ध के द्वारा प्रणीत ‘ मध्यममार्ग ’ के तत्त्वज्ञान में, निर्वाणप्राप्ति के निम्नलिखित आठ मार्ग बताये गये है : - १. सुयोग्य धार्मिक दृष्टिकोन, जो हिंसक यज्ञयाग, एवं परमेश्वरप्रधान धार्मिक तत्त्वज्ञान से अलिप्त है; २. सुयोग्य मानसिक निश्चय, जो जातीय, वर्णीय एवं सामाजिक भेदाभेद से अलिप्त है; ३. सुयोग्य संभाषण, जो अनृत, काम, क्रोध, भय आदि से अलिप्त है; ४. सुयोग्य वर्तन, जो हिंसा, चौर्यकर्म एवं कामक्रोधादि विकारों से अलिप्त हैं; ५. सुयोग्य जीवन, जो हिंसा आदि निषिद्ध व्यवसायों से अलिप्त है; ६. सुयोग्य प्रयत्नशीलता, जो व्यक्ति के मानसिक एवं नैतिक उन्नति की दृष्टिकोन से प्रेरित है; ७. सुयोग्य तपस्या, जिसमें निर्वाण के अतिरिक्त अन्य कौनसे भी विचार निषिद्ध माने गये हैं; ८. सुयोग्य जागृति, जिसमें मानवीय शरीर की दुर्बलता की ओ सदैव ध्यान दिया जाता है ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध के अनुसार, निर्वाणेच्छु साधक के लिए एक चतुः सूत्रीय आचरण संहिता बतायी गयी है, जिसमें मेत्त (सारे विश्व से प्रेम), करुणा, मुदित (सहानुभूतिमय आनंद), उपेख्य (मानसिक शांति) ये चार आचरण प्रमुख कहे गये हैं ।
गौतम बुद्ध n. बुद्ध की मृत्यु के पश्चात्, बौद्ध संघ अनेकानेक बौद्ध सांप्रदायों में विभाजित हुआ, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थें :- १. स्थविरवादिन्, जो बौद्ध संघ में सनातनतम सांप्रदाय माना जाता है; २. महासांघिक, जो उत्तरकालीन महायान - सांप्रदाय का आद्य प्रवर्तक सांप्रदाय माना जाता है । बौद्ध संघ में सुधार करने के उद्देश्य से यह सांप्रदाय सर्वप्रथम मगध देश में स्थापन हुआ, एवं उसने आगे चल कर काफी उन्नति की ।
(१) स्थविरवादिन्---इस सांप्रदाय के निम्नलिखित उपविभाग थे :- १. सर्वास्तिवादिन् (उत्तरी पश्चिम भारत; प्रमुख पुरस्कर्ता - कनिष्क); २. हैमवत, (हिमालय पर्वत); ३. वात्सिपुत्रीय, (आवंतिक, अवंतीदेश; प्रमुखपुरस्कर्त्री - हर्षवर्धनभगिनी राज्यश्री); ४. धर्मगुप्तिक, (मध्यएशिया एवं चीन); ५. महिशासक (सिलोन);
(२) महासांघिक सांप्रदाय---इस सांप्रदांय के निम्नलिखित उपविभाग थे; - १. गोकुलिक (कुककुलिक); २. एकव्यावहारिक; ३. चैत्यक; ४. बहुश्रुतीय; ५. प्रज्ञप्तिवादिन्; ६. पूर्वशैलिक; ७. अपरशैलिक; ८. राजगिरिक; ९. सिद्धार्थिक ।
गौतम बुद्ध n. इस धर्म के प्रसारकों में अनेक विभिन्न राजा, भिक्षु एवं पाली तथा संस्कृत ग्रंथकार प्रमुख थे जिनकी संक्षिप्त नामावलि नीचे दी गयी है: -
(१) राजा---बिंबिसार, अजातशत्रु, अशोक, मिनँडर (मिलिंद), कनिष्क, हर्षवर्धन ।
(२) भिक्षु---सारीपुत्त, आनंद, मौद्गलायन, आनंद, उपालि ।
(३) पाली ग्रंथकार---नागसेन, बुद्धद, बुद्धधोप, धम्मपाद ।
(४) संस्कृत ग्रंथकार---अश्वबोप, नागार्जुन, बुद्धपालित, भावविवेक, असंग, वसुबंधु, दिड्नाग, धर्मकीर्ति ।
गौतम बुद्ध n. बौद्धसाहित्य में बुद्ध के जीवन से संबंधित निम्नलिखित आठ प्रमुख तीर्थस्थानों (अष्टमहास्थानानि) का निर्देश प्राप्त है : - १. लुम्बिनीवन, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था; २. बोधिया, जहाँ बुद्ध को परमज्ञान की प्राप्ति हुई थी; ३. सारनाथ (इषिपट्टण), जहाँ बुद्ध के द्वारा धर्मचक्रप्रवर्तन का पहला प्रवचन हुआ था; ४. कुशिनगर, जहाँ बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था; ५. श्रावस्ती (कोसलदेश की राजधानी), जहाँ तीर्थिक सांप्रदाय के लोगों को पराजित करने के लिए बुद्ध ने अनेकानेक चमत्कार दिखाये थे; ६. संकाश्य, जहाँ अपनी माता मायादेवी को मिलने के लिए बुद्ध कुछ काल तक तुषित स्वर्ग में प्रविष्ट हुआ था; ७. राजगृह, (मगधदेश की राजधानी), जहाँ देवदत्त के द्वारा छोडे गये नालगिरि नामक वन्य हाथी को इसने अपने चमत्कारसामर्थ्य से शांत किया; ८. वैशालि, जहाँ कई वानरों ने बुद्ध को कुछ शहद ला कर अर्पण किया था ।
गौतम बुद्ध n. इस साहित्य में इसे विष्णु का नौवाँ अवतार कहाँ गया है, एवं असुरों का विनाश तथा धर्म की रक्षा करने के लिए इसके अवतीर्ण होने का निर्देश वहाँ प्राप्त है
[मत्स्य. ४७.२४७] । पुराणों में अन्यत्र इसे दैत्य लोगों में अधर्म की प्रवृत्ति निर्माण करनेवाला मायामोह नामक अधम पुरुष कहा गया है
[शिव. रुद्र. युद्ध. ४] ;
[पद्म. सृ. १३.३६६ - ३७६] । किंतु पौराणिक साहित्य में प्राप्त बुद्ध का यह सारा वर्णन सांप्रदायिक विद्वेष से प्रेरित हुआ प्रतीत होता है ।
गौतम बुद्ध n. एक सुविख्यात वैद्यकशास्त्रज्ञ, जो राजगृह के शालावती नामक गणिका का पुत्र था । यह मगध देश के बिंबिसार एवं अजातशत्रु राजाओं का वैद्य था । पैदा होते ही माता ने इसका परित्याग किया था । तत्पश्चात् बिंबिसार राजा के पुत्र अभय ने इसे पालपोंस कर बडा किया । इसने तक्षशीला में सात वर्षौं तक वैद्यकशास्त्र का अध्ययन किया, एवं आयुर्वेद शास्त्रांतर्गत ‘ कौमारभृत्य ’ शाखा में विशेष निपुणता प्राप्त की । मगध देश लौटने पर यह सुविख्यात वैद्य बना । यह बुद्ध का अनन्य उपासक था, एवं इसने राजगृह के आम्रवन में एक विहार बाँध कर वह बुद्ध को प्रदान किया था
[सुमंगल. १.१३३] । बुद्ध ने इसके लिए ‘ जीवक सुत्त ’ का उपदेश दिया था । इसीके कहने पर बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को टहलने का व्यायाम करने के लिए कहा ।