Dictionaries | References

पतंजलि

   
Script: Devanagari

पतंजलि     

हिन्दी (hindi) WN | Hindi  Hindi
noun  संस्कृत के एक प्रख्यात विद्वान जो पाणिनि के बाद हुए   Ex. पतंजलि ने पाणिनि के कार्यों को और अधिक स्पष्ट किया ।
ONTOLOGY:
व्यक्ति (Person)स्तनपायी (Mammal)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
SYNONYM:
पातंजलि भोगींद्र भोगीन्द्र
Wordnet:
benপতঞ্জলি
gujપતંજલિ
kasپَتَنجٔلی , پاتَنجٔلی
kokपतंजली
malപതംജലി
marपतंजली
oriପତଞ୍ଜଳି
panਪਤੰਜਲੀ
tamபதஞ்சலி
urdپتنجلی , بھوگیندر

पतंजलि     

पतंजलि n.  संस्कृत भाषा का सुविख्यात व्याकरणकार एवं पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी; नमक व्याकरणग्रंथ का प्रामाणिक व्याख्याकार । संस्कृत व्याकरणशास्त्र के बृहद्‍ नियमों एवं भाषाशास्त्र के गंभीर विचारों के निर्माता के नाते पाणिनि, व्याडि, कात्यायन, एवं पतंजलि इन चार आचार्यो के नाम आदर से स्मरण किये जाते है । उनमें से पाणिनी का काल ५०० खि पू. होकर शेष वैय्याकरण मोर्य युग के (४००खि. पू.-२०० ई. पू.) माने जाते है । वैदिकयुगीन साहित्यिक भाषा (‘छंदस् या ‘नैगम’) एवं प्रचलित लोकभाषा (‘लौकिक’) में पर्याप्त अंत था । ‘देववाक्’ या ‘देववाणी’ नाम से प्रचलित साहित्यिक संस्कृत भाषा को लौकिक श्रेणी में लाने का युगप्रवर्तक कार्य आचार्य पाणिनि ने किया । पाणिनीय व्याकरण के अद्वितीय व्याख्याता के नाते, पाणिनि की महान् ख्याति को आगे बढाने का दुष्कर कार्य पतंजलि ने किया । व्याकरणशास्त्र के विषयक नये उपलब्धियों के स्त्रष्टा, एवं नये उपादनों का जन्मदाता पतंजलि एक ऐसा मेधावी वैय्याकरण था कि, जिसके कारण ब्रह्माजी से ले कर पाणिनि तक की संस्कृत व्याकरणपरंपरा अनेक विचार वीथियों में फैल कर, चरमोन्नत अवस्था में पहुँची । पतंजलि पाणिनीय व्याकरण का केवल व्याख्याता ही न हो कर, स्वयं एक महान् मनस्वी विचारक भी था । इसकी ऊँची सूझ एवं मौलिक विचार इसके ‘व्याकरण महाभाष्य’ में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हैं । इसीलिये इस को स्वतंत्र विचारक की कोटि में खडा करते हैं । अपने निर्भीक विचार एवं असामान्य प्रतिभा के कारण, इसने पाणिनीय व्याकरण की महत्ता बढायी, एवं ‘वैयाकरण पाणिनि; को ‘भगवान् पाणिनि; के उँची स्तर तक पहुँचा दिया ।
पतंजलि n.  प्राचीन ग्रंथों एवं कोशों में, पतंजलि के निम्नलिखित नामांतर मिलते हैः---गोनर्दीय, गोणिकापुत्र नागनाथ, अहिपति, फणिभृत, फणिपति, चूर्णिकाकार, पदकार, शेष, वासुकि, भोगींद्र [विश्वप्रकाशकोश १.१६, १९] ;[महाभाष्यप्रदीप. ४.२.९२] ;[अभिधान. पृ.१०१] । इन नामों मे से, ‘गोनर्दीय’ संभवतः इसका देशनाम था, एवं ‘गोणिकपुत्र’ इसका मातृकनाम था । उतर प्रदेश के गोंडा जिला को प्राचीन गोनर्द देश कहा गया है । कल्हणकृत ‘राजतरंगिणी’ में, गोनर्द नाम से काश्मीर के तीन राजाओं का निर्देश किया गया है । ‘गोनर्दीय’ उपाधि के कारण, पतंजलि काश्मीर या उत्तर प्रदेश का रहनेवाला प्रतीत होता है । ‘चूर्णिकाकार ’ एवं ‘पदकार’ इन नामों का निर्वचन नहीं मिलता । पतंजलि के बाकी सारी नामांतर कि वह भगवान शेष का अवतार था, इसी एक कल्पना पर आधारित है । शेष, वासुकि, फणिपति आदि पतंजलि के बाकी सारे नाम इसी एक कल्पना को दोहराते है ।
पतंजलि n.  पतंजलि की ‘व्याकरण महाभाष्य’; में पुण्यमित्र एवं चंद्रगुप्त राजाओं की सभाओं का निर्देश प्राप्त है [महा.१.१.६८] । मिनँन्डर नामक यवनों के द्वारा साकेत नगर घेरे जाने का निर्देश भी, ‘अरुद्यवनः साकेतगों’ इस रुप में, किया गया है । पुष्यमित्र राजा का यज्ञ संप्रति चालू है (‘पुष्यमित्रं याजयामः’) इस वर्तमानकालीन क्रियारुप के निर्देश से पतंजलि उस राजा का समकालीन प्रमाणित होता है । इसी के कारण, डॉं रा.गो. भांडारकर, डॉं. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉं. प्रभातचंद्र चक्रवर्ति प्रभृति विद्वानों का अभिमत है कि, पतंजलि का काल १५० खि. पू. के लगभग था ।
पतंजलि n.  पतंजलि का जीवनचरित्र कई पुराणों में प्राप्त है । भविष्य के अनुसार, यह बुद्धिमान् ब्राह्मण एवं उपाध्याय था । यह सारे शास्त्रों में पारंगत था, फिर भी इसे कात्यायन ने काशी में पराजित किया । प्रथम यह विष्णुभक्त था । किंतु बाद में इसने देवी की उपासना की, जिसके फलस्वरुप, आगे चल कर, इसने कात्यायन को वादचर्चा में पराजित किया । इसने ‘कृष्णमंत्र’ का काफी प्रचार किया । इसने ‘व्याकरणभाष्य’ नामक ग्रंथ की रचना की । आखिर ‘विष्णुमाया’ के योग से, यह चिरंजीव बन गया [भवि. प्रति.२.३५]
पतंजलि n.  पाणिनि का ‘अष्टाध्यायी’ का ग्रंथ लोगों को समझने के लिये कठिन मालूम पडता था । इस लिये अपने ‘व्याकरणमहाभाष्य’ की रचना पतंजलि ने की । पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ में आठ अध्याय एवं प्रत्येक अध्याय में चार पाद है । इस तरह कुल ३२ पादों में ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ का का विभाजन कर दिया गया है । पतंजलि के महाभाष्य की रचना ‘आह्रिकात्मक’ है। इस ग्रंथ में कुल ८५ आह्रिक है । ‘आह्रिक’ का शब्दशः अर्थ ‘एक दिन में दिया गया व्याख्यान’ है । हर एक आह्रिक को स्वतंत्र नाम दिया है । उन में से प्रमुख आह्रिकों के नाम इस प्रकर हैः---१. पस्पशा (प्रस्ताव), २. प्रत्याहार (शिवसूत्र-अइउण्‍ आदि), २. गुणवृद्धि संज्ञा, ४. संयोगादि संज्ञा, ५. प्रगृह्यादि संज्ञा, ६. सर्वनामाव्ययादि संज्ञा, ७. आगमादेशदिव्यवस्था, ८. स्थानिवद्‍भाव, ९. परिभाषा । पाणिनि के ‘अष्ठाध्यायी’ पर सर्वप्रथम कात्यायन ने ‘वार्तिकों’ की रचना की । उन ‘वार्तिको’ को उपर पतंजलि ने दिये व्याख्यान ‘महाभाष्य’ नाम से प्रसिद्ध है । पाणिनि-सूत्र एवं वार्तिकों में जो व्याकरणविषयक भाग है उसका स्पष्टीकरण महाभाष्य में तो है ही, किन्तु उसके साथ, जिन व्याकरणविषयक सिद्धान्त उन में रह गये है, उनको महाभाष्य में पूरा किया गया है । उसके साथ, पूर्वग्रंथों में जो भाग अनावश्यक एवं अप्रस्तुत है, यह पतंजलि ने निकाल दिया है । उसी कारण, पतंजलि के ग्रंथ को महाभाष्य कहा गया है । अन्य भाष्यग्रंथों में मूलग्रंथ का स्पष्टीकरण मात्र मिलता है, किन्तु पतंजलि के महाभाष्य में मूलग्रंथ की अपूर्णता पूरित की गयी है । इसी कारण पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि के व्याकरणविषयक ग्रंथों में पतंजलि का महाभाष्य ग्रंथ पूर्वकालीन (‘पूर्व पूर्व’) आचार्य का मत प्रमाण माना जाता है । किन्तु व्याकरण शास्त्र में पतंजलि ने की हुई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना के कारण, सर्वाधिक उत्तरकालीन आचार्य (पतंजलि) का मत प्रमाण माना जाता हैं । ‘यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यगों’ इस अधिनियम व्याकरण-शास्त्र में प्रस्थापित करने का सारा श्रेय पतंजलि को ही है । व्याकरण जैसे क्लिष्ट एवं शुष्क विषय को पतंजलि ने अपने महाभाष्य में अत्यंत सरल, सरस, एवं हृदयंगम ढंग से प्रस्तुत किया है । भाषा के सरलता, प्रांजलता, स्वाभाविकता एवं विषयप्रतिपादन शैली की दृष्टि से इसका महाभाष्य, समस्त संस्कृत वाङ्मय में आदर्शभूत है । इस ग्रंथ में तत्कालीन राजकीय, सामजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थिति की यथातथ्य जानकारी मिलती है । भगवान् पाणिनि के जीवन पर भी महाभाष्य में काफी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।
पतंजलि n.  कृष्ण यजुर्वेद के अनुयायी, कठ लोगों का पाठ, पतंजलि के काल में परम शुद्ध माना जाता था । उनके बारे में पतंजलि ने कहा है, ‘प्रत्येक नगर में कठ लोगों के द्वारा निर्धारित पाठ का प्रचलन है । उनका ‘काठकधर्मसूत्र’ नामक धर्मशास्त्रग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है, एवं ‘विष्णुस्मृति’ उसी के आधार पर बनी है । आर्य साहित्य में जब तक उपनिषदों का महत्त्व रहेगा तब तक कठ लोगों का नाम भी बराबर बना रहेगा [महा.४.३.१०१] । ‘पाणिनि-शिक्षा की तरह, पतंजलि ने भी वेदपाठ के शुद्धोच्चारण, शुद्ध स्वरक्रिया एवं विधिपूर्वक संपन्न किये ‘याग’ पर बडा जोर दिया है । इसका कहना है, अच्छा जाना हुआ, एवं अच्छी विधि से प्रयोग किया हुआ एक ही शब्द, स्वर्ग तथा मृत्यु दोनों लोकों की कामना पूर्ण करता है (एकःशब्द; सम्यग् ज्ञातः सुष्ठ प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग्‍ भवति) । पतंजलि के महाभाष्य में ‘काठक’, कालापक’, ‘मौदक’, ‘पैप्पलाद’ एवं ‘आथर्वण’ नामक प्राचीन धर्मसूत्रों का निर्देश किया है । ये सभी धर्मसूत्र संप्रति अनुपलब्ध है । किन्तु इन विलुप्त धर्मसूत्रों का काल ७०० ख्रिस्त पू. माना जाता है । भारतीय युद्ध का निर्देश पतंजलि ने अपने ‘महाभाष्य’ में दिया है । ‘कंसवध’ एवं ‘बलिबंध’ नामक दो नाटक कृतियों का निर्देश भी ‘महाभाष्य’ में दिया गया है । ‘वासवदत्ता’, ‘सुमनोत्तरा’, ‘भैमरथी’, आदि आख्यायिकाएँ पतंजलि को ज्ञात थी एवं उनमें अपने हाथ से यह काफी उलट-पुलट चुका था [महा.४.३.८७] । पाटलिपुत्रादि नगरों का निर्देश भी महाभाष्य में अनेक बार आया है ।
पतंजलि n.  पाणिनि के अष्टाध्यायी पर लिखे गये अनेक वार्तिक भाष्यों का निर्देश, पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में किया है । अकेले कात्त्यायन के पाठ पर तीन व्याख्याएँ पतंजलि के पहले लिखी जा चुकी थी । इसी प्रकार भारद्वाज, सौनाग आदि के वार्तिकपाठों पर भी अनेक भाष्य लिखे गये थे [महा.१.३.३,३.४.६७,६.३.६१] । पतंजलि के महाभाष्य में निम्नलिखित वैयाकरणों के एवं पूर्वाचार्यो के मत उद्‌धृत किये गये है--- १. गोनर्दीय [महा.१.२.२१,२९,३.१.९२] ---कैयट, राजशेखर, एवं वैजयन्ती कोश के अनुसार, यह स्वयं पतंजलि का ही नाम है । २. गोणिकापुत्र [महा.१.४.५१०] ---वात्स्यायन के कामसूत्रों में भी, इस आचार्य की निर्देश है [काम.१.१.१६] । ३. सौर्यभगवत्[महा.८.२.१०६] ---कैयट के अनुसार, यह सौर्य नगर का रहिवासी था [महाभाष्य प्रदीप ८.२.१०६] ;[काशिका. २.४.७] । ४. कुणरवाडव [महा.३.२.१४,७.३.१]
पतंजलि n.  पतंजलि के महाभाष्य पर निम्नलिखित टीकाकारों की टीकाएँ लिखी जा चुकी थी । उनमें से कुछ टीकाएँ नष्ट हो चुकी है--- १. भर्तृहरि---महाभाष्य की उपलब्ध टीकाओं में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक टीका भर्तृहरि की है । इसने लिखे हुए टीकाग्रंथ का नाम ‘महाभाष्यदीपिका’ था । मीमांसकजी के अनुसार, भर्तृहरि का काल ४५० वि. पू. था । २. कैयट---महाभाष्य पर कैयट ने लिखे हुए टीकाग्रंथ का नाम ‘महाभाष्यप्रदीप” था । कैयट स्वयं कश्मीरी था, एवं उसका काल ११०० माना जाता है । ३. मैत्रेयरक्षित (१२ वी शती)---टीका का नाम‘धातृप्रदीप’। ४. पुरुषोत्तमदेव (१२ वी शती वि.)---टीका का नाम---‘प्राणपणित’। ५. शेषनारायण (१६ वीं शती)---टींका का नाम---‘मुक्तिरत्नाकर’। ६. विष्णुमित्र (१६ वीं शती)---टीका का नाम---‘महाभाष्यटिप्पण’। ७. नीलकंठ (१७ वी शती)---टीका का नाम ‘भाषातत्त्वविवेक’। ८. शिवरामेंद्र सरस्वती (१७ वीं शती वि.)---टीका का नाम---‘महाभाष्यरत्नाकर’। ८. शेषविष्णु (१७ वीं शती)---टीका का नाम-महाभाष्यप्रकाशिका’। १७ वीं शताब्दी में तंजोर के शहाजी राजा के आश्रित ‘रामभद्र’ नामक कवि ने पतंजलि के जीवन पर ‘पतंजलि चरित’ नामक एक काव्य लिखा था ।
पतंजलि n.  इतिहास से विदित होता है कि, महाभाष्य का लोप कम से कम तीन बार अवश्य हुआ है । भतृहरि के लेख से विदित होता है कि बैजि, सौभव, हर्यक्ष आदि शुष्क तार्किकों ने महाभाष्य का प्रचार नष्ट कर दिया था । चन्द्राचार्य ने महान् परिश्रम कर के दक्षिण से किसी पार्वत्य प्रदेश से एक हस्तलेख प्राप्त कर के उसका पुनः प्रचार किया । कह्रण की ‘राजतंरगिणी’ से ज्ञात होता है कि, विक्रम की ८ वीं शती में महाभाष्य का प्रचार पुनः नष्ट हो गया था । कश्मीर के महाराज जयापीड ने देशान्तर से ‘क्षीर; संज्ञक-शब्दविद्योपाध्याय को बुला कर विच्छिन्न महाभाष्य का पुनः प्रचार कराया । विक्रम की १८ वीं तथा १९ वीं शती में सिद्धांतकौमुदी तथालघुशब्देदुशेखर आदि अर्वाचीन ग्रंथों के अत्यधिक प्रचार के कारण, महाभाष्य का पठन प्रायः लुप्तसा हो गया था । स्वामी विरजानंद तथा उनके शिष्य स्वामी दयानंद सरस्वती ने महाभाष्य का उद्धार किया, तथा उसे पूर्वस्थान प्राप्त कराया । ‘महाभाष्य’ के उपलब्ध मुद्रित आवृत्तियों में, डॉं. फ्रॉंन्झ कीलहॉर्नद्वारा १८८९ ई. स. में संपादित त्रिखण्डात्मक आवृत्ति सर्वोत्कृष्ट हैं । उसमें वार्तिकादिकों का निर्णय बहुत ही शास्त्रीय पद्धति से किया गया है । ‘महाभाष्य’ में उपलब्ध शब्दों की सूचि म.म.श्रीधरशास्त्री पाठक, एवं म.म.सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव इन ग्रंथकारों ने तयार की है, एवं पूना के भांडारकर इन्स्टिटयूट ने उसे प्रसिद्ध किया है । ये सारे ग्रंथ महाभाष्य की महत्ता को पुष्ट करते है ।
पतंजलि n.  व्याकरण के अतिरिक्त, सांख्य, न्याय, काव्य आदि विषयों पर पतंजलि का प्रभुत्त्व था । ‘व्याकरण महाभाष्य’ के अतिरिक्त पतंजलि के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैः---(१) सांख्यप्रवचन, (२) चंदोविचिति, (३) सामवेदीय निदान सूत्र (C,C)
पतंजलि II. n.  ‘चरक संहिता’ नामक आयुर्वेदीय ग्रंथ का प्रति संस्करण करनेवाला आयुर्वेदाचार्य । ‘चरकसंहिता’ पर इसने ‘पांतजलवार्तिक’ नामक ग्रंथ की रचना की थी । आषाढवर्मा के ‘परिहारवार्तिक’ एवं रामचंद्र दीक्षित के ‘पतंजलि चरित’ में पंतजलि के इस ग्रंथ का निर्देश है (‘वैद्यशास्त्र वार्तिकानि च ततः’) । पतंजलिरचित ‘वातस्कंध-पैतस्कंधोपेत-सिद्धांतसारावलि’ नामक और एक वैद्यकशास्त्रीय ग्रंथ लंदन के इंडिया ऑफीस लायब्रेरी में उपलब्ध है । आयुर्वेदाचार्य पतंजलि के द्वारा कनिष्ठ राजा की कन्या को रोगमुक्त करने का निर्देश प्राप्त है । इससे इसका काल २०० ई०, माना जाता है । पतंजलि ने ‘रसशास्त्र’ पर भी एक ग्रंथ लिखा था, ऐसा कई लोग मानते है। किंतु रसतंत्र का प्रचार छठी शताब्दी के पश्चात् होने के कारण, वह पतंजलि एवं चरकसंहिता पर भाष्य लिखनेवाले पतंजलि एक ही थे, ऐसा निश्चित रुप से नहीं कहा जा सकता ।
पतंजलि III. n.  ‘पातंजलयोगसूत्र’ (या सांख्यप्रवचन) नामक सुविख्यात योगशास्त्रीय ग्रंथ का कर्ता । कई विद्वानों ने 'पातंजल योगसूत्रों' कोषड्‌-दर्शनों में सर्वाधिक प्राचीन बताया है, एवं यह अभिमत व्यक्त किया है कि, उसकी रचना बौधयुग से पहले लगभग ७०० ई. पू. में हो चुकी थी [‘पतंजलि योगदर्शन’ के भूमिका पृ.२] । किंतु डॉं. राधाकृष्णन आदि आधुनिक तत्वाजों के अनुसार ‘योगसूत्र’ का काल लगभग ३०० ई. है [इं.फि. २.३४१-३४२] । उस ग्रंथ पर लिखे गये प्राचीनतम बादरायण, भाष्य की रचना व्यास ने की थी उस भाष्य की भाषा अन्य बौद्ध ग्रंथो की तरह है, एवं उसमें न्याय आदि दर्शनों के मतों का उल्लेख किया गया है । ‘योगसूत्रों’ पर लिखे गये ‘व्यासभाष्य’ का निर्देश ‘वात्स्यायनभाष्य’ में एवं कनिष्ठ के समकालीन भदन्त धर्मत्रात के ग्रंथों में उपलब्ध है ।
पतंजलि III. n.  विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में विखरे हुए योगसंधी विचारों के संग्रह कर, एवं उनको अपनी प्रतिभा से संयोज कर, पतंजलि ने अपने ‘योगसूत्र’ ग्रंथ की रचना की । ‘योगदर्शन’ के विषय पर, ‘योगसूत्रों’ जैसा तर्कसंमत, गंभीर एवं सर्वांगीण ग्रंथ संसार में दूसरा नहीं है । उस ग्रंथ की युक्तिशृंखला एवं प्राज्कल दृष्टी कोण अतुलनीय है, एवं प्राचीन भारत की दार्शनिक श्रेष्ठता सिद्ध करता है । ‘पातंजल योगसूत्र’ ग्रंथ समाधि, साधन, विभूति एवं कैवल्य इन चार पादों (अध्यायों) में विभक्त किया गया है । उस ग्रंथ मे समाविष्ट कुल सुत्रों की संख्या १९५ है । समाधिपाद---में योग का उद्देश्य, उसका लक्षण एवं साधन वर्णन किया है । चित्त को एकाग्र करने की पद्धति इस ‘पाद’ में बतायी गयी है । साधन पाद---में क्लेश, कर्म एवं कर्मफल का वर्णन है । इंद्रियदमन कर के ज्ञानप्राति कैसी की जा सकती है उसका मार्ग इस ‘पाद’ में बताया गया है । विभूति पाद---में योग के अंग, उनका परिणाम, एवं ‘अणिमा’, महिमा’ आदि सिद्धियों का वर्णन किया गया है । कैवल्य पाद---में मोक्ष का विवेचन है । ज्ञानप्राप्ति के बाद आत्मा कैवल्यरुप कैसे बनती है, इसकी जानकारी इस ‘पाद’ में दी गयी है ।
पतंजलि III. n.  आत्मा एवं जगत् के संबंध में, सांख्यदर्शन जिन सिद्धांतो का प्रतिपादन करता है, ‘योगदर्शन’ भी उन्ही का समर्थक है । ‘सांख्य’ के अनुसार ‘योग’ ने भी पच्चीस तत्त्वों का स्वीकार किया है । किंतु ‘योग-दर्शन’ में एक छब्बीसवॉं तत्त्व ‘पुरुषविशेष’ शामिल करा दिया है, जिससे ‘योग-दर्शन’ सांख्यदर्शन जैसा निरीश्वरवादी बनने से बच गया है । फिर भी ‘ईश्वरप्रणिधाद्वा’ [योग.१.२३] सूत्र के आधार पर कई विद्वान पतंजलि को ‘न्रीरीश्वरवादी’ मानते है । ‘योग-सूत्रों’ के सिद्धांत अद्वैती है या द्वैती, इस विषय पर विद्वानों का एकमत नहीं है । ‘ब्रह्मसूत्रकार’ व्यास एवं शंकराचार्य ने पतंजलि को ‘द्वैतवादी’ समझ कर, सांख्य के साथ इसका भी खंडन किया है । ‘योग सूत्र’ के सिद्धांतो के अनुसार, चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है [योग.१.२] । इन चित्तवृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है [योग.१.१२,१५] । पुरुषार्थविरहरीत गुण जब अपने कारण में लय हो जाते हैं, तब ‘कैवल्यप्राप्ति’ होती है [योग.४.३४] । योगदर्शन का यह अंतिम सूत्र है । अविद्या, अत्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन पंचविध कुशों से योग के द्वारा विमुक्त हो कर, मोक्ष प्राप्त करना, यह ‘योगदर्शन’ का उद्देश्य है । चंचल चित्तवित्तियों को रोकने एवं योगसिद्धि के लिये, ‘योगसूत्र’ कार ने ग्यारह साधनों का कथन किया है । वे साधन इस प्रकार हैः---यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, अभ्यास, वैराग्य, ईश्वर,प्रणिधान, समाधि एवं विषयविरक्ति । ‘योग-दर्शन’ के अनुसार, संसार दुःखमय है । जीवात्मा को मोक्षप्राति के लिये ‘योग’ एकमात्र ही उपाय है । ‘योगदर्शन’ का दूसरा नाम कर्मयोग भी है, क्यों कि साधक को वह ‘मुक्तिमार्ग’ सुझाता है ।
पतंजलि IV. n.  ‘इलावृतवर्ष’ (भारतवर्ष) के उत्तर के मध्यदेश में उत्पन्न एक आचार्य ।
पतंजलि V. n.  कश्यप एवं कद्रू का पुत्र, एक नाग ।
पतंजलि VI. n.  अंगिराकुल में उत्पन्न एक गोत्रकार ।
पतंजलि VII. n.  वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा के कौथुम पाराशर्य ऋषि का शिष्य (व्यास देखिये) ।

Related Words

पतंजलि   पतंजली   പതംജലി   பதஞ்சலி   পতঞ্জলি   ପତଞ୍ଜଳି   ਪਤੰਜਲੀ   પતંજલિ   पातंजलि   भोगींद्र   मुनित्रय   भोगीन्द्र   पातंजल   ग्लुचुकायन   स्कूल   महाभाष्य   अर्तृहरि   व्याडि दाक्षायण   निपात   क्षुद्रक   उपमन्यु   शाकल   शौनक   भागुरि   शांतनव   शाकटायन   चरक   मुनि   शाकल्य   शूद्र   यवन   वैशंपायन   पाणिनि   पिप्पलाद   राधा   व्यास   अंगिरस्   सिकंदर   विष्णु   बलि      कृष्ण   रुद्र-शिव      હિલાલ્ શુક્લ પક્ષની શરુના ત્રણ-ચાર દિવસનો મુખ્યત   ନବୀକରଣଯୋଗ୍ୟ ନୂଆ ବା   વાહિની લોકોનો એ સમૂહ જેની પાસે પ્રભાવી કાર્યો કરવાની શક્તિ કે   સર્જરી એ શાસ્ત્ર જેમાં શરીરના   ન્યાસલેખ તે પાત્ર કે કાગળ જેમાં કોઇ વસ્તુને   બખૂબી સારી રીતે:"તેણે પોતાની જવાબદારી   ਆੜਤੀ ਅਪੂਰਨ ਨੂੰ ਪੂਰਨ ਕਰਨ ਵਾਲਾ   బొప్పాయిచెట్టు. అది ఒక   लोरसोर जायै जाय फेंजानाय नङा एबा जाय गंग्लायथाव नङा:"सिकन्दरनि खाथियाव पोरसा गोरा जायो   आनाव सोरनिबा बिजिरनायाव बिनि बिमानि फिसाजो एबा मादै   भाजप भाजपाची मजुरी:"पसरकार रोटयांची भाजणी म्हूण धा रुपया मागता   नागरिकता कुनै स्थान   ३।। कोटी   foreign exchange   foreign exchange assets   foreign exchange ban   foreign exchange broker   foreign exchange business   foreign exchange control   foreign exchange crisis   foreign exchange dealer's association of india   foreign exchange liabilities   foreign exchange loans   foreign exchange market   foreign exchange rate   foreign exchange regulations   foreign exchange reserve   foreign exchange reserves   foreign exchange risk   foreign exchange transactions   foreign goods   foreign government   foreign henna   foreign importer   foreign income   foreign incorporated bank   foreign instrument   foreign investment   foreign judgment   foreign jurisdiction   foreign law   foreign loan   foreign mail   foreign market   foreign matter   foreign minister   foreign mission   foreign nationals of indian origin   foreignness   foreign object   foreign office   foreign owned brokerage   foreign parties   foreign periodical   foreign policy   foreign port   
Folder  Page  Word/Phrase  Person

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP