पाणिनि n. लौकिक संस्कृत भाषा का वैयाकरण, जिसका ‘अष्टाध्यायी’ नामक ग्रंथ संस्कृतभाषा का श्रेष्ठतम व्याकरणग्रंथ माना जाता है । संस्कृत भाषा के क्षेत्र में, एक सर्वथा नये युग के निर्माण का कार्य आचार्य पाणिनि एवं इसके द्वारा निर्मित ‘पाणिनीय व्याकरण’ ने किया । यह युग लौकिक संस्कृत का युग कहा जाता है, जो वैदिक युग की अपेक्षा सर्वथा भिन्न है । जब वैदिक संस्कृत भाषा पुरानी एवं दुर्बोध होने लगी, तब उत्तर पश्चिम एवं उत्तर भारत के ब्राह्मणों में उस भाषा का एक आधुनिक रुप साहित्यिक भाषा के रुप में प्रस्थापित हुआ । इस नये साहित्यिक भाषा को व्याकरणबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य पाणिनि ने किया, एवं इसे भाषा को ‘लौकिक संस्कृत’ यह नया नाम प्रदान किया । पाणिनि केवल व्याकरणशास्त्र का ही आचार्य नहीं था । एक व्याकरणकार के नाते, लौकिक संस्कृत का भाषाशास्त्र एवं व्याकरणशास्त्र की सामग्री इकठ्ठा करते करते, तत्कालीन भारतवर्ष (५०० ई.पू) की राजकीय, सांस्कृतिक, सामजिक, एवं भौगोलिक सामग्री शास्त्रीय दृष्टि से एकत्र करने का महान् कार्य पाणिनि ने किया । अन्य व्याकरणकारों की अपेक्षा, इस कार्य में पाणिनि ने अत्यधिक सफलता भी प्राप्त की । इस कारण, पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ वेद के उत्तर कालीन एवं पुराणों के पूर्वकालीन प्राचीन भारतीय इतिहास का श्रेष्ठतम प्रमाणग्रंथ माना जाता हैं । ढाई सहस्त्र वर्षों के दीर्घ कालावधि के पश्चात्, पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ का पाठ जितने शुद्ध एवं प्रामाणिक रुप में आज भी उपलब्ध है, उसके तुलना केवल वेदों के विशुद्ध पाठों से की जा सकती है। किंतु वेदों के शब्द हमें विशुद्धरुप में प्राप्त हो कर भी, उनका अर्थ अस्पष्ट एवं धुँधला सा प्रतीत होता है । संस्कृत व्याकरणशास्त्र की श्रेष्ठ परंपरा के कारण, पाणिनीय व्याकरण के शब्द एवं अर्थ दोनों भी विशुद्ध रुप में आज भी उपलब्ध है । इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से, पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ का मूल्य वैदिक ग्रंथों की अपेक्षा आज अधिक माना जाता है । कई वर्षो के पूर्व, केवळ शब्दसिद्धि के दृष्टि से ‘पाणिनीय व्याकरण’ का अध्ययन किया जाता था । फिर कई अध्ययनशील लोगों ने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि में ‘पाणिनीय व्याकरण; की समालोचन करने का कार्य शुरु किया, एवं ऐतिहासिक सामग्री का एक नया विश्व, अभ्यासकों के लिये खोल दिया । ई.पू.५०० के लगभग भारत में उपलब्ध प्राचीन लोकजीवन की जानकारी पाने के लिये, एवं उस काल के ऐतिहासिक अंधयुग में नया प्रकाश डालने के लिये ‘पाणिनीय व्याकरण’ का अध्ययन अत्यावश्यक है, यह विचारप्रणाली आज सर्वमान्य हो चुकी है । इस विचारप्रणाली के निर्माण का बहुतांश श्रेय, बनारस विद्यापीठ के डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल एवं उनके ग्रंथ ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ को देना जरुरी है ।
पाणिनि n. पुरुषोत्तमदेव के ‘त्रिकांडशेष’ कोश के अनुसार, पाणिनि को निम्नलिखित नामांतर प्राप्त थेः---पाणिन्, दाक्षीपुत्र, शालंकि, शालातुरीय एवं आहिक ।
पाणिनि n. पतंजलि ने पाणिनी को ‘दाक्षीपुत्र’ कहा है, जिससे प्रतीत होता है की, पाणिनि के माता का नाम ‘दाक्षी’ था, एवं वह दक्षकुल से उत्पन्न था
[महा.१.१२०] । इसके पिता का नाम ‘शलकं’ था, एवं पाणिनि; इसका कुलनाम था । हरिदत्त के अनुसार, पाणिपुत्र, ‘पाणिन,’ नामक ऋषि का पाणिनि पुत्र था
[पदमंजरी २.१४] । छंदःशास्त्र का रचयिता पिंगल ऋषि पाणिनि का छोटा भाई था (षड्गुरुशिष्यकृत ‘वेदार्थदिपिका’) । व्याडि नामक व्याकरणाचार्य को ‘दाक्षायणि’ नामांतर था, जिससे प्रतीत होता हैं कि, वह पाणिनि का मामा था । व्याडि के ‘संग्रह’ नामक ग्रंथ की प्रशंसा पतजंलि ने की हैं
[महा.२.३.६६] ।
पाणिनि n. पाणिनि के विद्यादाता गुरु का नाम ‘वर्ष’ था
[कथासरित.१.४.२०] । ब्रह्मवैवर्त के अनुसार, शेष इसका गुरु था
[ब्रह्मवै. प्रकृति.४.५७] । काव्यमिमांसा के अनुसार, वर्ष, उपवर्ष, पिंगल एवं व्याडी इन सहाध्यायियों के साथ, पाणिनि ने पाटलीपुत्र में शिक्षा प्राप्त की, एवं वहॉं शास्त्रपरीक्षा में यह उत्तीर्ण हुआ
[काव्यमी.१०] । माहेश्वर को भी पाणिनि का गुरु कहा गया है, जिसका कोई आधार नही मिलता है । कई अभ्यासकों के अनुसार, पाणिनि की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी (एस्. के. चटर्जी.‘भारतीय आर्यभाषा तथा हिंदी’ पृ.६६) । पाणिनी के अनेक शिष्य भी थे
[महा.१.४.१] । उनमें ‘कौत्स’ नामक शिष्य का निर्देश ‘महाभाष्य’ में प्राप्त है
[महा.३.२.१०८] । अष्टाध्यायी के प्राणभूत १४ सूत्रों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि, पाणिनि ने शिवोपासना कर के ‘१४ माहेश्वरी सूत्रों’ (प्रत्याहार सूत्रों) की प्राप्ति साक्षात् शिवजी से की थी, एवं उन सूत्रों के आधार पर अपने व्याकरणग्रंथ की रचना की ।
पाणिनि n. ‘शालातुरीय’ नाम से, पाणिनि ‘शलातुर’ ग्राम का रहनेवाला था, ऐसा कई अभ्यासकों का कहना है
[गण. पृ.१] । अफगाणिस्थान की सीमा पर, अटक के समीप स्थित आधुनिक लाहु ग्राम ही प्राचीन शलातुर है । अन्य कई अभ्यासकों के अनुसार, शलातुर पाणिनि का जन्मस्थान न हो कर, इसके पूर्वजों का निवासस्थान था । पाणिनि का जन्म वाहीक देश में कही हुआ था
[अष्टा.४.२.११७] ।
पाणिनि n. पाणिनि पारसीकों तथा उनके सेवक यवनों या ग्रीकों से परिचित था । उससे पाणिनी का काल संभवतः ५ वी शताब्दी ई. पू. रहा होगा । डॉ. अग्रवाल के अनुसार, ४८०-४१० ई. पू. पाणिनि का काल था । पाणिनि की मृत्यु एक सिंह के द्वारा हुई थी (पंचतंत्र श्लो. ३६) ।
पाणिनि n. पाणिनि को लौकिक संस्कृत का पहला वैय्याकरण माना जाता है । किंतु स्वयं पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ में ‘पाराशर्य’ एवं ‘शिलालि’ इन दो पूर्वाचार्यो का, एवं उनके द्वारा विरचित ‘भिक्षुसूत्र’ एवं ‘नटसूत्र’ नामक दो ग्रंथों का निर्देश किया है
[अष्टा.४.३.११०] । उनके सिवा, ‘अष्टाध्यायी’ में निम्नलिखित आचार्यो का निर्देश प्राप्त है ---अपिशालि
[अष्टा.६.१.९२] , काश्यप
[अष्टा.८.४.६७] , गार्ग्य, गालव
[अष्टा.६.३.६१, ७.१.७४, ३.९९, ८.३.२०, ४.६७] . चाक्रवर्मन
[अष्टा.६.१.१३०] , भारद्वाज
[अष्टा.७.२.६३] , शाकटायन
[अष्टा.३.४.१११, ८.३.१९, ४.५१] , सेनक
[अष्टा.५.४.११२] , स्फोटायन
[अष्टा.६.१.१२१] ।‘अष्टाध्यायी’ में निम्नलिखित ग्रंथों का निर्देश प्राप्त है---अनुब्राह्मण
[अष्टा.४.२.६.२] , अनुप्रवचन
[अष्टा.५.१.१११] , कल्पसूत्र
[अष्टा.४.३.१०५] , क्रम
[अष्टा.४.२.६१] , चात्वारिंश ऐतरेय ब्राह्मण
[अष्टा.५.१.११०] , पद
[अष्टा.४.२.६१] , भिक्षुसूत्र
[अष्टा.४.३.११०] । मीमांसा
[अष्टा.४.२.६१] , शिक्षा
[अष्टा.४.२.६१] । उपनिषद एवं आरण्यक ग्रंथों का निर्देश ‘अष्टाध्यायी’ में अप्राप्य है । ‘उपनिषद’ शब्द ‘पाणिनीय व्याकरण में आया है । किंतु वहॉं उसका अर्थ ‘रहस्य’ के रुप में लिया गया है
[अष्टा.१.४.७९] । ‘अष्टाध्यायी’ के लिये जिन वैदिक ग्रंथो से, पाणिनि से साधनसाम्रगी ली उनके नाम इस प्रकार हैः---अनार्ष
[अष्टा.१.१.१६,४.१.७८] , आथर्वणिक
[अष्टा.६.४.१७४] , ऋच्
[अष्टा.४.१.९,८.३.८] , काठक-यजु
[अष्टा.७.४.३८] , छन्दस्
[अष्टा.१.२.३६] , निगम
[अष्टा.३.८१,४.७४,४.९,६.३.११३,७.२.६४] , ब्राह्मण
[अष्टा.२.३.६०, ५.१.६२] , मंत्र
[अष्टा. २.४.८०] , यजुस्
[अष्टा.६.१.११५, ७.४.३८.८.३.१०२] , सामन्
[अष्टा.१.२.३४] । ‘अष्टाध्यायी’ में निम्नलिखित वैदिक शाखाप्रवर्तक ऋषियों का निर्देश प्राप्त हैः---अश्वपेज, उख, कठ, कठशाठ, कलापिन्, कषाय, (कशाय, का.) काश्यप, कौशिक, खंडिक, खाडायन, चरक, द्दगल, छंदोग, तल, तलवकार, तित्तिरि, दण्ड ,देवदर्शन, देवदत्त, शठ, पैङ्गुच
[अष्टा.४.३-१०५, उदाहरण] , पुरुपांसक (पुरुषासक, बृहकृच्)
[अष्टा.४.३.१२९] , याज्ञवल्क्य (वार्तिक) रज्जुकंठ, रज्जुमार, वरतंतु, वाजसनेय, वैशंपायन, शापेय (सांपेय,का.) शाष्पेय (शाखेय का.) शाङगरव (सांगव, का.) शाकल, शौनक, सापेय, स्कंद. स्तंभ (स्कंभ, का.)
[पा. सू. ४.३.१०२-१०९] गणों सहित;
[पा. सू. १२८, १२९] । इन में केवल तलवकर तथा वाजसनेय प्रणीत ब्राह्मण ग्रंथ आज उपलब्ध हैं । अन्य लोगों के कौन से ग्रन्थ थे यह बताना असंभव है । उलप, तुंबरु तथा हरिद्रु
[अष्टा.४.३.१९४] । ये नाम ‘काशिका’ में अधिक है । ‘अष्टाध्यायी’---पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ आठ अध्यायों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं । बत्तीस एवं आठ अध्यायों को इस ग्रंथों में कुल ३९९५ सूत्र हैं । इन सूत्रों में ‘अइउण’ आदि १४ माहेश्वरों सूत्रों का भी संग्रह है । लौकिक संस्कृत भाषा को व्याकरणीय नीतिनियमों में बिठाना, यह ‘अष्टाध्यायी;’ के अंतर्गत सूत्रों का प्रमुख उद्देश्य है । वहॉं संस्कृत भाषा का क्षेत्र वेद एवं लोकभाषा माना गया है, तथा उन दोनों भाषाओं का परामर्श ‘अष्टाध्यायी’ में लिया गया है । संस्कृत की भौगोलिक मर्यादा, गांधार से आसम (सूरमस) में स्थित सरमा नदी तक, एवं कच्छ से कलिंग तक मानी गयी है । उत्तर के काश्मीर कांबोज से ले कर, दक्षिण में गोदावरी नदी के तट स्थित अश्मक प्रदेश तक वह मर्यादा मानी गयी है । अष्टध्यायी में किया गया शब्दों का विवेचन, दुनिया की भाषाओं में प्राचीनतम समझा जाता है । उस ग्रंथ में किया गया प्रकृति एवं प्रत्यय का भेदाभेददर्शन, तथा प्रत्ययों का कार्य निर्धारण के कारण पाणिनि की व्याकरण पद्धति शास्त्रीय एवं अतिशुद्ध बन गयी है ।
पाणिनि n. पाणिनि ने अपनी ‘अष्टाध्यायी’ की रचना गणपाठ, धातृपाठ, उणादि, लिंगानुशान तथा फिटसूत्र ये ग्रंथों का आधार ले कर की है । उच्चारण-शास्त्र के लिये अष्टाध्यायी के साथ शिक्षा ग्रंथों के पठन-पाठन की भी आवश्यकता रहती है । पाणिनि प्रणीत व्याकरणशास्त्र में इन सभी विषयों का समावेश होता है । पतंजलि के अनुसार, गणपाठ की रचना पाणिनि व्याकरण के पूर्व हो चुकी थी
[महाभाष्य.१.३४] । परस्पर भिन्न होते हुए भी व्याकरण के एक नियम के अंतर्गत आ जानेवाले शब्दों का संग्रह ‘गणपाठ’ में समाविष्ट किया गया है । गणपाठ में संग्रहीत शब्दों का अनुक्रम प्रायः निश्चित रहता है । गण में छोटे छोटे नियमों के लिये अंतर्गतसूत्रों का प्रणयन भी दिखलायी पडता है । गणपाठ की रचना पाणिनिपूर्व आचार्यो द्वारा की गयी होगी । फिर भी वह पाणिनि व्याकरण की महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है । धातुपाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि पूर्व आचार्यो द्वारा प्रणीत होते हुए भी, ‘पाणिनि व्याकरण’ का महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है । लिंगानुशासन पाणिनिरचित है । ‘पाणिनीय शिक्षा’ में पाणिनि के मतों का ही संग्रह है । फिट्सूत्रों की रचना शांतनवाचार्य ने की है । फिर भी पाणिनि ने उनको स्वीकार किया है । प्रत्येक शब्द स्वाभाविक उदात्तादि स्वरयुक्त है । तदनुसार, शब्दों का उच्चारण करने मात्र से ही शब्दों का शुद्ध तथा अर्थबोधक ध्वनि निकलती है । इसलिए केवल वर्णौं के पठनमात्र से ही नहीं बल्कि आघातादि सहित शब्दों का उच्चारण वांछनीय है । इसलिए पाणिनि ने स्वरप्रक्रिया लिखी तथा ‘फिट्सूत्र’ जो उदात्त, अनुदात्त व स्वरित शब्दों का संग्रह तथा नियम बतलाया है और उसको मान्यता दी है । गणपाठ, धातुपाठ, उणादि, लिंगानुशासन, फिट्सूत्र तथा शिक्षा ये पाणिनि के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । इनका संग्रह करने से, सूत्रों की रचना करने में, पाणिनि को सुलभता प्राप्त हुई । इस प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में एक रचनात्मक कार्य करके पाणिनि ने संस्कृत भाषा को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया ।
पाणिनि n. व्याकरणशास्त्र में पाणिनि ने नैरुक्त एवं गार्ग्य सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया । नैरुक्त संप्रदाय एवं शाकटायन के अनुसार, संज्ञावाचक शब्द धातुओं से ही बने हैं । गार्ग्य तथा दूसरे वैय्याकरणों का मत इससे कुछ भिन्न था । उनका कहना था, खींचतान करके प्रत्येक शब्द को धातुओं से सिद्ध करना उचित नहीं हैं । पाणिनि ने ‘उणादि’शब्दों को अव्युत्पन्न माना है, तथा धातु से प्रत्यय लगाकर, सिद्ध हुये शब्दों को ‘कृदन्त’प्रकरण में स्थान दिया है । पाणिनि के अनुसार, ‘संज्ञाप्रमाण’ एवं ‘योगप्रमाण’ दोनों अपने अपने स्थान पर इष्ट एवं आवश्यक हैं । शब्द से जाति का बोध होता है, या व्यक्ति का, इस संबंध में भी पाणिनि ने दोनों मतों को समयानुसार मान्यता दी है । धातु का अर्थ ‘हो’ अथवा ‘भाव’ हो, यह भी एक प्रश्न आता है । पाणिनि ने दोनों को स्वीकार किया है ।
पाणिनि n. जैसे पहले कहा जा चुका है, कि पाणिनि की अष्टाध्यायों में, ५०० ई. पू. के प्राचीन भारतवर्ष के सांस्कृतिक, सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक लोकजीवन की ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है । प्राचीन भारतवर्ष के वर्ण, एवं जातियों, आर्य एवं दासों के संबंध, शिक्षा आदि समाजिक विषयों भारत में राजशासित एवं लोकशासित दोनों प्रकार की शासन पद्धतियॉं वर्तमान थीं जिसका विवरण अष्टाध्यायों में प्राप्त है ।
पाणिनि n. अष्टाध्यायों में प्राप्त भौगोलिक विवरण का महत्त्व अन्य सारे विवरणों की अपेक्षा कहीं अधिक हैं ५०० ई. पू. प्राचीन भारत के जनपदों, पर्वतों, नदियॉं, वनों एवं ग्राम व नगरों की स्थिति का अत्याधिक प्रामाणिक ज्ञान अष्टाध्यायी से द्वारा प्राप्त होता है । (१) जनपद---पाणिनि के अष्टाध्यायी, एवं गणपाठ में निम्नलिखित जनपदों का निर्देश प्राप्त हैः---अंबष्ठ
[अष्टा.८.२.९७] ; अजाद
[अष्टा.४.१.१७१] ; अवन्ति
[अष्टा.४.१.१७६] ; अश्मक
[अष्टा.४.१.७३] ; उदुंबर
[अष्टा.४.३.५३] ; उरश
[अष्टा.४.३.९३, गण.] ; उशीनर
[अष्टा.४.२.११८] ; ऐषुकारि
[अष्टा.४.२.५४] ; कंबोज
[अष्टा.४.१.१७५] ; कच्छ
[अष्टा.४.२.१३४] ; कलकूट
[अष्टा.४.१.१७१] ; कलिंग
[अष्टा.४.१.१७०] ; काश्मिर
[अष्टा.४.२.१३३] ;,४.३.९३, गण.; कारस्कर
[अष्टा.६.१.१५६] ; काशि
[अष्टा.४.१.११६] ; किष्किंधा
[अष्टा.४.३.६३. गण.] ; कुरु
[अष्टा.४.१.१७२, १७६, २.१३०] ; कुंति
[अष्टा.४.१.१७६] ; केकय
[अष्टा.७.३.२] ; कोसल
[अष्टा.४.१.१७१] ; गंधारि
[अष्टा.४.१.१६९] ; गाब्दिका
[अष्टा.४.३.६३, गण.] त्रिगर्त
[अष्टा.५.३.११६] ; दरद्
[अष्टा.४.३.११०, गण.] प्रत्यग्रथ
[अष्टा.४.१.१२७] ; पटच्चरे
[अष्टा.४.२.११०, गण.] । प्रत्यग्रथ
[अष्टा.४.१.१७१] ; पारस्कर
[अष्टा.६.१.१४७] ; बर्बर
[अष्टा.४.३.९३,गण.] ; ब्राह्मणक
[अष्टा.५.२.७१] ; भर्ग
[अष्टा.४.१.१११] ; भारद्वाज
[अष्टा.४.१.११०] ; भौरिकि
[अष्टा.४.२.५४] ; मगध
[अष्टा.४.१.१७०] ; मद्र
[अष्टा.४.२.१३१] ; यकृल्लोम
[अष्टा.४.२.११०,गण.] युगंधर
[अष्टा.४.२.१३०] . योवेध
[अष्टा.४.१.१७८,५.३.११७] ; रंकु
[अष्टा.४.२.१००] ; वाहीक
[अष्टा.४.२.११७] ; वृजि
[अष्टा.४.२.१३१] ; सर्वसेन
[अष्टा.४.३.९२,गण] ; साल्व
[अष्टा.४.२.१३५] ; साल्वावय्व
[अष्टा.४.१.१७३] ; साल्वेय
[अष्टा.४.१.१६९] ; सूरमसे
[अष्टा.४.१.१७०] ; सिंधु
[अष्टा.४.३.९२] ; सौवीर
[अष्टा.४.२.७६] । (२) पर्वत---पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित पर्वतों का निर्देश प्राप्त हैः--अंजनागिरे, किंशुलगिरि;
[अष्टा.६.३.११६] ; त्रिककुत्
[अष्टा.५.४.१४७] ; भंजनागिरि; लोहितागिरे; विदूर
[अष्टा.४.३.८४] ; शाल्वकागिरि । (३) नदियॉं---पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित नदियों का विवरण प्राप्त हैः---अजिरवती
[अष्टा..३.११७] ; उध्रय
[अष्टा.३.१.११५] ; चर्मण्वती
[अष्टा.८.२.१२] ; देविका
[अष्टा.७.३.१] ; भिद्य
[अष्टा.३.१.११५] ; वर्णु
[अष्टा.४.२.१०३] ; विपाश
[अष्टा.४.२.७४] ; शरावती
[अष्टा.६.३.११९] ; सरयू
[अष्टा.६.४.१७४] ; सिंधु
[अष्टा.४.६.९३] ; सुवास्तु
[अष्टा.४.२.७७] । (४) वन---पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्न वनों का उल्लेख प्राप्त हैः---अग्रेवण
[अष्टा.८.४.४] ; कोटरवण, पुरगावण, ल्मित्रकवण, शारिकावण, तथा सिध्रकावण । (५) ग्राम व नगर---पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित ग्राम एवं नगरों का निर्देश प्राप्त हैः--- अजस्तुंद
[अष्टा.६.१.१५५] ; अरिष्टपुर
[अष्टा.६.२.१००] ; आश्वायन
[अष्टा.४.२.११०] ; आश्वकायन या अश्वक
[अष्टा.४.१.९९] ; आसंदीवत्
[अष्टा.८.२.१२,४.२.८६] ; ऐषकारिभक्त
[अष्टा.४.२.५४] ; कत्त्रि
[अष्टा.४.२.९५] ; कपिस्थल
[अष्टा.७.२.९१] ; कपिशी
[अष्टा.४.२.९९] ; कास्तीर
[अष्टा.६.१.१५५] ; कुण्डिन
[अष्टा.४.२.९५,गण.] ; कूचवार
[अष्टा.४.३.९४] ; कौशाम्बी
[अष्टा.४.२.९५] ; गण कूचवार
[अष्टा.४.३.९४] ; कौशाम्बी
[अष्टा.४.२.९७] ; गौडपुर
[अष्टा.६.२.२००] ; चक्रवाल
[अष्टा.४.२.८०] ; चिहणकंथ
[अष्टा.६.२.१२५] ; तक्षशिला
[अष्टा.४.३.९३] ; तूदी
[अष्टा.४.३.९४] ; तौषाण
[अष्टा.४.२.८०] ; नड्वल
[अष्टा.४.२.८८] ; नवनगर
[अष्टा.६.२.८९] ; पलदी
[अष्टा.४.२.११०] ; फलकापुर
[अष्टा.४.२.१०१०] ; मार्देयपुर
[अष्टा.४.२.१०१] ; महानगर
[अष्टा.६.२.८९] ; माहिष्मती
[अष्टा.४.२.९५] ; मंडु तथा खंडु
[अष्टा.४.२.७७] ; रोणी
[अष्टा.४.२.७८] ; वरण
[अष्टा.४.२.८२] ; वर्मती
[अष्टा.४.३.९४] ; वाराणसी
[अष्टा.४.२.९७] ; वार्णव
[अष्टा.४.२.७७-१०३] ; शलातुर
[अष्टा.४.३.९४] ; शर्करा
[अष्टा.४.२.८३] ; शर्यणावत्
[अष्टा.४.२.८६] ; शिखावल
[अष्टा.४.२.८९] ; श्रावस्ती
[अष्टा.४.२.९७] ; संकल
[अष्टा.४.२.८९] ; सरालर्क
[अष्टा.४.३.९३] ; सांकाश्य
[अष्टा.४.२.८०] ; सौभूत
[अष्टा.४.२.,८०] ; सौवास्तव
[अष्टा.४.२.७७] ; हास्तिनायन
[अष्टा.६.४.१७४] ।
पाणिनि n. पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ में निम्नलिखित सिक्कों का निर्देश प्राप्त हैः---कार्षायण
[अष्टा.५.१.२९,३४.४८] ; त्रिंशक्त
[अष्टा.५.१.२४] ; माष
[अष्टा.५.१.३४] ; विंशतिक
[अष्टा.५.१.२७] ; शतमान
[अष्टा.५.१.२७] ; शाण
[अष्टा.५.१.३५] ; सुवर्णमाशक
[अष्टा.५.१.३४] ; सुवर्णहिरण्य
[अष्टा.६.२.५५] ।
पाणिनि n. पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित परिमाणदर्शक शब्द प्राप्त हैः--- (१) कालपरिमाण---अपराह्र
[अष्टा.४.३.२४] ; अहोरात्र
[अष्टा.२.४.२८] ; नक्तंदिव
[अष्टा.५.४.७७] ; परिवासर
[अष्टा.५.१.९२] ; पूर्वाह्र
[अष्टा.४.३.२४] ; मास
[अष्टा.५.१.८१] ;व्युष्ट
[अष्टा.५.१.९७] ; संवत्सर
[अष्टा.४.३.५०] । (२) वस्तुपरिमाण---आचित
[अष्टा.४.१.२२,५.१.५३] ; कुलिज
[अष्टा.५.१.५५] ; बिस्त
[अष्टा.४.१.२२,५.१.३१] ; भार
[अष्टा.६.२.३८] ; मंथ
[अष्टा.६.२.१२२] ; शाण
[अष्टा.५.१.३५,७३.१७] । (३) परिमाण---अंजलि
[अष्टा.५.४.१०२] ; आढक
[अष्टा.५.१.५३] ; कंस
[अष्टा.५.१.२५,६.२.१२२] ; कुंभ
[अष्टा.६.२.१०२] ; खारी
[अष्टा.५.१.३३] ; निष्पाव
[अष्टा.३.३.२८] ; पाय्य
[अष्टा.३.१.१३९] ; वह
[अष्टा.३.३.११९] ; शूर्प
[अष्टा.५.१.२६,६.२.१२२] । (४) क्षेत्रपरिणाम---अंगुलि
[अष्टा.५.४.८६] , काण्ड
[अष्टा.४.१.२३] ; किष्कु
[अष्टा..१.१५७] दिष्टि
[अष्टा.६.२.७१] ; पुरुष अष्टा.(४.१.२४); योजन (४ कोस)
[अष्टा. ५.१.७४] ; वितस्ति
[अष्टा.६.२.७१] ; हस्ति
[अष्टा.५.२.३८] ।
पाणिनि n. पतंजलि के महाभाष्य में अष्टाध्यायी के निम्नलिखित वार्तिककारों के निर्देश प्राप्त हैः---कात्य वा कात्यायन
[अष्टा.३.२.११८] ; कुणरवाडव
[अष्टा.३.२.१४,७.३.१] भारद्वाज
[अष्टा.१.१.२०] ; सुनाग
[अष्टा.२.२.१८] ; क्रोष्टा
[अष्टा.१.१.३] ; वाडव
[अष्टा.८.२.१०६] , व्याध्रभूति एवं वैयाघ्रपद्य ।
पाणिनि n. ‘अष्टाध्यायी’ पर लिखे गये ’वृत्ति’ एवं भाष्यग्रंथों में, जयादित्य एवं वामन नामक ग्रंथकारों द्वारा लिखी गयी, ‘काशिका’ नामक ग्रंथ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । ‘काशिका’ के अतिरिक्त, निम्नलिखित वृत्तिकारों ने ‘अष्टाध्यायी’ पर भाष्य एवं वृत्तियॉं लिखी हैं । उन ग्रंथकारों के लिखे हुए ‘वृत्तिग्रंथ’ का निर्देश इसी सूची में किया गया है ।
पाणिनि n. १ कुणी (अष्टाध्यायीवृत्ति) २. माथुर (माथुरिवृत्ति); ३. श्वोभूति (श्वोभूतिवृत्ति); ४. वररुचि (वाररुचवृत्ति); ५. देवनंदी (शब्दावतारन्यास), ६. दुर्विनित (शब्दावतार)
पाणिनि n. १. भर्तृहरि (भागवृत्ति); २. भर्त्रीकर्ल; ३. भट्टजयंत; ४. केशव; ५. इंदुमित्र (इंदुमतिवृत्ति); ६. मैत्रेयरक्षित (दुर्घटवृत्ति); ७. पुरुषोत्तमदेव (भाषावृत्ति); ८. शरणदेव (दुर्घटवृत्ति); ९. भट्टोजीदीक्षित (शब्दकौस्तुभ); १०. अप्पय दिक्षीत (सूत्रप्रकाश); ११. नीलकंठ वाजपेयी (पाणिनीय दीपिका), १२. अन्नंभट्ट (पाणिनीय मिताक्षरा); १३. स्वामी दयानंदसरस्वती (अष्टाध्यायीभाष्य) ।
पाणिनि n. १. अष्टाध्यायी, २. धातुपाठ, ३. गणपाठ, ४. उणादिसूत्र, ५. लिंगानुशासन । इनमें से ‘अष्टाध्यायी’ को छोड कर बाकी सारे ग्रंथ, उसी मूल ग्रंथ के पाणिनिसम्मत परिशिष्टस्वरुप है । इसी, कारण, प्राचीन ग्रंथकार उनका खिल शब्द से व्यवहार करते हैं । उषरिर्दिष्ट ग्रंथों के अतिरिक्त, पाणिनि के नाम पर शिक्षासूत्र जाम्बवतीविजय (पातालविजय)नामक काव्य एवं ‘द्विरुपकोश’ नामक कोशग्रंथ भी उपलब्ध है ।