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षडशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - षडशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


शाल्वो भैष्मीविवाहे यदुबलविजितश्र्चन्द्रचूडाद्विमानं

विन्दन् सौभं स मायी त्वयि वसति कुरूंस्त्वत्पुरीमभ्यभाङ्क्षीत् ।

प्रद्युम्नस्तं निरुन्धन् निखिलयदुभटैर्न्यग्रहीदुग्रवीर्यं

तस्यामात्यं द्युमन्तं व्यजनि च समरः सप्तविंशत्यहान्तम् ॥१॥

तावत् त्वं रामशाली त्वरितमुपगतः खण्डितप्रायसैन्यं

सौभेषं तं न्यरुन्धाः स च किल गदया शार्ङ्गमभ्रंशयत् ते ।

मायातातं व्यहिंसीदपि तव पुरतस्तत् त्वयापि क्षणार्धं

नाज्ञायीत्याहुरेके तदिदमवमतं व्यास एव न्यषेधीत् ॥२॥

क्षिप्त्वा सौभं गदाचूर्णितमुदकनिधौ मड्क्षु शाल्वेऽपि चक्रे -

णोत्कृत्ते दन्तवक्त्रः प्रसभमभिपतन्नभ्यमुञ्चद्गदां ते ।

कौमोदक्या हतोऽसावपि सुकृतनिधिश्र्चैद्यवत् प्रापदैक्यं

सर्वेषामेष पूर्वं त्वयि धृतमनसां मोक्षणार्थोऽवतारः ॥३॥

त्वय्यायातेऽथ जाते किल कुरुसदसि द्यूतके संयतायाः

क्रन्दन्त्या याज्ञसेन्याः सकरुणमकृथाश्र्चेलमालामनन्ताम् ।

अन्नान्तप्राप्तशर्वांशजमुनिचकितद्रौपदीचिन्तितोऽथ

प्राप्तः शकान्नमश्नन् मुनिगणमकृथास्तृप्तिमन्तं वनान्ते ॥४॥

युद्धोद्योगेऽथ मन्त्रे मिलति सति वृतः फल्गुनेन त्वमेकः

कौरव्ये दत्तसैन्यः करिपुरमगमो दौत्यकृत् पाण्डवार्थम् ।

भीष्मद्रोणादिमान्ये तव खलु वचने धिक्कृते कौरवेण

व्यावृण्वन् विश्र्वरूपं मुनिसदसि पुरीं क्षोभयित्वाऽऽगतोऽभूः ॥५॥

जिष्णोस्त्वं कृष्ण सूतः खलु समरमुखे बन्धुघाते दयालुं

खिन्न तं वीक्ष्य वीरं किमिदमयि सखे नित्य एकोऽयमात्मा ।

को वध्यः कोऽत्र हन्ता तदिह वधभियं प्रोज्झ्य मय्यर्पितात्मा

धर्म्यं युद्धं चरेति प्रकृतिमनयथा दर्शयन् विश्र्वरूपम् ॥६॥

भक्तोत्तंसेऽथ भीष्मे तव धरणिभरक्षेपकृत्यैकसक्ते

नित्यं नित्यं विभिन्दत्यवनिभृदयुतं प्राप्तसादे च पार्थे ।

निश्शस्त्रत्वप्रतिज्ञां विजहदरिवरं धारयन् क्रोधशाली -

वाधावन् प्राञ्जलिं तं नतशिरसमथो वीक्ष्य मोदादपागाः ॥७॥

युद्धे द्रोणस्य हस्तिस्थिरणभगदत्तेरितं वैष्णवास्त्रं

वक्षस्याधत्त चक्रस्थगितरविमहाः प्रार्दयत्सिन्धुराजम् ।

नागास्त्रे कर्णमुक्ते क्षितिमवनमयन् केवलं कृत्तमौलिं

तत्रे तत्रापि पार्थं किमिव नहि भवान् पाण्डवानामकार्षीत् ॥८॥

युद्धादौ तीर्थगामी स खलु हलधरो नैमिषक्षेत्रमृच्छन्नप्रत्युत्थायि

सूतक्षयकृदथ सुतं तत्पदे कल्पयित्वा । यज्ञघ्नं बल्वलं पर्वणि परिदलयन् स्नाततीर्थो रणान्ते

सम्प्राप्तो भीमदुर्योधनरणमशमं वीक्ष्य यातः पुरीं ते ॥९॥

संसुप्तद्रौपदेयक्षपणहतधियं र्दाणिमेत्य त्वदुक्त्या

तन्मुक्तं ब्राह्ममस्त्रं समहृत विजयो मौलिरत्नं च जह्रे ।

उच्छित्त्यै पाण्डवानां पुनरपि च विशत्युत्तरागर्भमस्त्रे

रक्षन्नङ्गुष्ठमात्रः किल जठरमगाश्र्चक्रपाणिर्विभो त्वम् ॥१०॥

धर्मौघं धर्मसूनोरभिदधदखिलं छन्दमृत्युः स भीष्म -

स्त्वां पश्यन् भक्तिभूम्नैव हि सपदि ययौ निष्कलब्रह्मभूयम् ।

संयाज्याथाश्र्वमेधैस्त्रिभिरतिमहितैर्धर्मजं पूर्णकामं

सम्प्राप्तो द्वारकां त्वं पवनपुरपते ! पाहि मां सर्वरोगात् ॥११॥

॥इति शाल्वादिवधवर्णनं भारतयुद्धवर्णनं च षडशीतितमदशकं समाप्तम्॥

रुक्मिणी -विवाहके अवसरपर यादवी सेनाने शाल्वको पराजित कर दिया था । जिससे दुःखी होकर उससे चन्द्रचूड भगवान् शंकरकी आराधना की और उनसे सौभ नामक विमान प्राप्त किया । जब आप कुरुदेशकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे , उसी समय वह मायावी आपकी द्वारकापुरीपर आक्रमण करके उसे नष्ट -भ्रष्ट करने लगा । तब प्रद्युम्नने समस्त यदुवीरोंके साथ नगरसे बाहर निकलकर उसका सामना किया और उसके मन्त्री उग्र पराक्रमी द्युमान्को नष्ट कर दिया । इस प्रकार यह युद्ध सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा ॥१॥

इसी बीच आप बलरामजीके साथ द्वारका लौट आये और तुरंत ही रणभूमिमें जाकर , जिसकी सारी सेनाएँ प्रायः नष्ट हो चुकी थीं , उस सौभपति शाल्वका सामना करने लगे । उसने आपपर गदासे वार किया , जिससे शार्ङ्गधनुष आपके हाथसे गिर गया । पुनः उसने मायानिर्मित आपके पिता वसुदेवजीको आपके देखते -देखते मार डाला । कुछ लोग ऐसा कहते है कि उस समय उसकी उस मायाको आधे क्षण आप भी नहीं समझ सके । परंतु उनका यह कथन ठीक नहीं है —— इस प्रकार कहकर व्यासजीने ही निषेध कर दिया है ॥२॥

तब आपने अपनी गदासे सौभ विमानको चूर -चूर करके समुद्रमें गिरा दिया और तत्काल ही चक्रद्वारा शाल्वके मस्तकको काट गिराया । इसी समय दन्तवक्त्रने वेगपूर्वक आपपर आक्रमण किया और अपनी गदासे चोट की । तब आपने अपनी कौमोदकी गदासे उसे भी कालके गालमें डाल दिया । उस समय पुण्यशाली दन्तवक्त्र शिशुपालकी भॉंति आपमें लीन हो गया । इस प्रकार आपका यह अवतार उन सभी लोगोंके मोक्षके लिये ही हुआ है , जिन्होंने अपने मनको पहलेसे आपमें लगा रखा था ॥३॥

आपके इन्द्रप्रस्थसे द्वारका चले आनेपर कौरवोंकी सभामें कपटद्यूतका समारम्भ हुआ । उसमें पाण्डवोंके हार जानेपर दुःशासन द्रौपदीको पकड़कर सभामें खींच लाया और उसे नंगा करना चाला , तब रोती हुइ द्रौपदीने आपको पुकारा । उस समय आपने दयावश उसकी साड़ीको इतना बढ़ा दिया कि उसका कहीं ओर -छोर नहीं था । पाण्डवोंकेवनसासके समय भोजनोपरान्त पधारे हुए दुर्वास मुनिके शापसे भयभीत हुई द्रौपदीके ध्यान करनेपर आप वहॉं भी जा पहुँचे और पात्रमें लगे हुए शाकान्नको खाकर शिष्योंसहित दुर्वासा मुनिक तृप्त कर दिया ॥४॥

युद्धोद्योगके अवसरपर सैन्य -संगठनके समय अर्जुनने अकेले आपको ही मन्त्रणार्थ वरण किया , तब आपने दुर्योधनको अपनी यादवी सेना प्रदान की । पुनः पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये आप दूत बनकर हस्तिनापुर गये । वहॉं भीष्म , द्रोणाचार्य आदिने आपके कथनको स्वीकार किया , परंतु दुर्योधनने उसे अनसुना कर दिया । तब आपने मुनियोंकी उस सभामें अपना विश्र्वरूप प्रकट किया और हस्तिनापुरको क्षुब्ध करके आप लौट आये ॥५॥

कृष्ण ! आपने अर्जुनका सारथ्य स्वीकार किया । तत्पश्र्चात् युद्धके मुहानेपर बन्धु -वधरूप कार्यके उपस्थित होनेपर अर्जुनको दया उत्पन्न हो गयी । तब उस वीरको खिन्न एवं युद्धसे विमुख हुआ देखकर आप बोले ——‘अयि सखे ! यह क्या बात है ? अरे ! यह आत्मा तो सदा अद्वितीय एवं अविनाशी है । भला , यहॉं कौन मारा जाता है ? और कौन मारता है ? अतः इस विषयमें वधकी आशङ्काको त्यागकर आत्माको मुझमें समर्पित करके क्षात्रधर्मसम्मत युद्धमें लग जाओ । ’—— यों समझाते हुए आपने अपना विश्र्वरूप दिखलाकर अर्जुनके मोहको भंग किया —— उन्हें स्वाभाविक स्थितिमें ले आये ॥६॥

भक्तश्रेष्ठ भीष्मने आपके भूमि -भारापहरणरूप कार्यमें संलग्न होकर जब प्रतिदिन दस हजार राजाओंका संहार करते हुए अर्जुनको हतोत्साह कर दिया , तब आप क्रोधीका -सा नाट्य करते हुए ‘मैं शस्त्र नहीं ग्रहण करूँगा ’—— उस प्रतिज्ञाको तोड़कर सुदर्शनचक्र धारण करके भीष्मपर झपटे । उस समय भीष्म हाथ जोड़कर नतमस्तक हो गये । यह देखकर आप हर्षित होकर लौट पड़े ॥७॥

द्रोणाचार्यके युद्धमें बैठकर युद्ध करनेवाले भगदत्तद्वारा चलाये गये वैष्णवास्त्रको आपने अपने वक्षःस्थलपर रोक लिया । पुनः सुदर्शनचक्रद्वारा सूर्यके तेजको स्थगित करके सिन्धुराज जयद्रथका वध कराया । पुनः कर्णद्वारा नागास्त्रके छोड़े जानेपर पृथ्वीको नीचे दबाकर वहॉं भी आपने अर्जुनकी रक्षा की । उस समय अर्जुनका केवल केशसहित किरीट कट गया था । इस प्रकार आपने पाण्डवोंका कौनसा उपकार नहीं किया ?॥८॥

महाभारत -सुद्धके प्रारम्भमें बलरामजी तीर्थयात्राके लिये चले गये थे । घूमते -घूमते वे नैमिषारण्यमें जा पहुँचे । वहॉं उन्होंने आसनसे उठकर स्वागत न करनेके कारण रोमहर्षण सूतको मार डाला और पुनः मुनियोंके कहनेपर उनके पुत्रको उस स्थानपर नियुक्त करके वे तीर्थोंमें स्नान करते हुए भ्रमण करने लगे । फिर पर्वके समय किये जाते हुए यज्ञको नष्ट -भ्रष्ट करनेवाले बल्वल दैत्यको मारकर महाभारत -युद्धकी समाप्तिपर वे हस्तिनापुर पहुँचे । वहॉं मना करनेपर भी भीम और दुर्योधनके गदायुद्धको शान्त होते न देखकर वे आपकी पुरी द्वारकाको चले गये ॥९॥

विभो ! सोये हुए द्रौपदीके पॉंचों पुत्रोंका वध कर देनेसे जिसकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी , उस द्रोणकुमार अश्र्वत्थामाके निकट जाकर अर्जुनने आपकी आज्ञासे उसके द्वारा छोड़े हुए ब्रह्मास्त्रके उत्तराके गर्भमें प्रवेश करनेपर आप उसके रक्षार्थ अँगूठेके बराबर शरीर धारण करके हाथमें चक्र लेकर उत्तराके उदरमें घुस गये ॥१०॥

स्वच्छन्दमृत्यु भीष्मने धर्मनन्दन युधिष्ठिरको सारे धर्मोंका उपदेश दिया । तत्पश्र्चात् वे आपका दर्शन करते हुए आपकी अनपायिनी भक्तिके ही प्रतापसे शीघ्र ही निष्कल ब्रह्मस्वरूप —— मोक्षको प्राप्त हो गये । तदनन्तर आपने युधिष्ठिरसे अत्यन्त ऐश्र्वर्यशाली तीन अश्र्वमेध -यज्ञोंका अनुष्ठान कराया । इस प्रकार उनकी कामना पूर्ण करके आप द्वारकाको लौट गये । पवनपुरपते ! सम्पूर्ण रोगोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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