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त्रिसप्ततिमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - त्रिसप्ततिमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


निशमय्य तवाथ यानवार्तां भृशमार्ताः पशुपालबालिकास्ताः ।

किमिदं कथं न्वितीमाः समवेताः परिदेवितान्यकुर्वन् ॥१॥

करुणानिधिरेष नन्दसूनुः कथामस्मान् विसृजेदनन्यनाथाः ।

बत नः किमु दैवमेवमासीदिति तास्त्वद्गतमानसा विलेपुः ॥२॥

चरमप्रहरे प्रतिष्ठमानः सह पित्रा निजमित्रमण्डलैश्र्च ।

परितापभरं निताम्बिनीनां शमयिष्यन् व्यमुचः सखायमेकम् ॥३॥

अचिरादुपयामि संनिधिं वो भविता साधु मयैव सङ्गमश्रीः ।

अमृताम्बुनिधौ निमज्जयिष्ये द्रुतमित्याश्र्वसिता वधूरकार्षीः ॥४॥

सविषादभरं सयाच्ञमुच्चैरतिदूरं वनिताभिरीक्ष्यमाणः ।

मृदु तद्दिशि पातयन्नपाङ्गान् सबलोऽक्रूररथेन निर्गतोऽभूः ॥५॥

अनसा बहुलेन वल्लवानां मनसा चानुगतोऽथ वल्लभानाम् ।

वनमार्तमृगं विषण्णवृक्षं समतीतो यमुनातटीमयासीः ॥६॥

नियमाय निमज्ज्य वारिणि त्वामभिवीक्ष्याथ रथेऽपि गान्दिनेयः ।

विवशोऽजनि किं न्विदं विभोस्ते ननु चित्रं त्ववलोकनं समन्तात् ॥७॥

पुनरेष निमज्ज्य पुण्यशाली पुरुषं त्वां परमं भुजङ्गभोगे ।

अरिकम्बुगदाम्बुजैः स्फुरन्तं सुरसिद्धौघपरीतमालुलोके ॥८॥

स तदा परमात्मसौख्यसिन्धौ विनिमग्नः प्रणुवन् प्रकारभेदैः ।

अविलोक्य पुनश्र्च हर्षसिन्धोरनुवृत्या पुलकावृतो ययौ त्वाम् ॥९॥

किमु शीतलिमा महान् जले यत् पुलकोऽसाविति चोदितेन तेन ।

अतिहर्षनिरुत्तरेण सार्धं रथवासी पवनेश पाहि मां त्वम् ॥१०॥

॥ इति मथुरापुरयात्रावर्णनं त्रिसप्ततितमदशकं समाप्तम् ॥

आपके मथुरा जानेकी बात सुनकर गोपकिशोरियॉं अत्यन्त आर्त हो उठीं । ‘यह क्या , यह क्या , ऐसा कैसे होगा ?’ इस प्रकार कहती हुई वे सब -की -सब एकत्र हो विलाप करने लगीं ॥१॥

‘ ये नन्दनन्दन तो करुणाके सागर हैं , हम गोपियोंका इनके सिवा दूसरा कोई नाथ या रक्षक नहीं हैं । फिर ये हमें कैसे त्याग सकते हैं । हाय ! क्या हमारा भाग्य ऐसा ही था ?’—— ऐसा कहकर आपमें ही चित्त लगायी हुई वे गोपियॉं विलाप कर रही थीं ॥२॥

रातके पिछले पहरमें अपने पिता और मित्रमण्डलीके साथ जब आप प्रस्थान करने लगे , तब उन गोपाङ्गनाओंके भारी संतापको शानत करनेके लिये आपने अपने एक सखाको भेज दिया ॥३॥

‘ गोपियो ! मैं शीघ्र तुम्हारे पास लौट आऊँगा । फिर मेरे साथ तुम सभीका मङ्गल मिलन सम्भव होगा । मैं शीघ्र ही तुम सबको अमृतके महासागरमें निमज्जित कर दूँगा। ’—— इस प्रकार संदेश देकर उन गोपाङ्गनाओंको आपने सान्त्वना दी ॥४॥

आपके बहुत दूर चले जानेपर भी वे वनिताएँ बड़े विषाद और अत्यन्त याचनापूर्वक आपकी ओर देखती रहीं । और आप भी मधुर भावसे उन्हीकी ओर कटाक्षपात करते हुए अक्रूरके रथद्वारा बलरामसहित आगे निकल गये ॥५॥

गोपोंके बहुत -से छकड़े आपके पीछे रहे थे और प्रियतमाओंका मन भी आपका अनुसरण कर रहा था । वनके पशु भी आपको जाते देख आर्त हो गये थे और वृक्ष भी विषादमें डूब गये थे । आप इन सबको लॉंघकर यमुनाके तटपर जा पहूँचे ॥६॥

वहॉं मध्याह्न -संध्याके नियमका निर्वाह करनेके लिये जब अक्रूरजीने यमुना -जलमें डुबकी लगायी , तब वहॉं उन्हें आप दिखायी दिये । फिर आप रथपर भी बैठे दृष्टिगोचर हुए । यह देख अक्रूर विवश हो गये और सोचने लगे —— ‘यह क्या है ?’ आप सर्वव्यापी ईश्र्वरका सब ओर दर्शन होने लगा । यह विचित्र बात थी ॥७॥

पुण्यशाली अक्रूरने फिर गीता लगाया तो आप परमपुरुषको शेषनागकी शय्यापर आसीन देखा । आप चक्र — शङ्ख ‘गदा और पद्मसे सुशोभित थे और देवताओं तथा सिद्धोंका समुदाय आपको चारों ओरसे घेरकर खड़ा था ॥८॥

उस समय अक्रूर ब्रह्मानन्द -सिन्धुमें निमग्न हो विभिन्न प्रकारसे आपकी स्तुति करने लगे । तदनन्तर पुनः आप नहीं दिखायी दिये । केवल आनन्दसिन्धुके अनुवर्तनसे रोमाञ्चित हो वे फिर आपके पास आये ॥९॥

आपने पूछा — ‘अक्रूरजी ! क्या पानीमें सर्दी अधिक रही , जिससे आपको रोमाञ्चित हो वे फिर आपके पास आये ॥९॥

आपने पूछा —— ‘अक्रूरजी ! क्या पानीमें सर्दी अधिक रही , जिससे आपको रोमाञ्च हो आया है ?’ इस प्रकार पूछनेपर भी वे अत्यन्त हर्षके कारण कोई उत्तर नहीं दे सके । उनके साथ रथपर बैठे हुए हे पवनपुरेश्र्वर ! आप मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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