बलसमेतबलानुगतो भवान् पुरमगाहत भीष्मकमानितः ।
द्विजसुतं त्वदुपागमवादिनं धृतरसा तरसा प्रणनाम सा ॥१॥
भुवनकान्तवेक्ष्य भवद्वपुर्नृपसुतस्य निराम्य च चेष्टितम् ।
विपुलखेदजुषां पुरवासिनां सरुदितैरुदितैरगमन्निशा ॥२॥
तदनु वन्दितुमिन्दुमुखी शिवां विहितमङ्गलभूषणभासुरा ।
निरगमद्भवदर्पितजीविता स्वपुरतः पुरतः सुभटावृता ॥३॥
कुलवधूभिरुपेत्य कुमारिका गिरिसुतां परिपूज्य च सादरम् ।
मुहुरयाचत तत्पदपङ्कजे निपतिता पतितां तव केवलम् ॥४॥
समवलोक्य कुतूहलसंकुले नृपकुले निभृतं त्वयि च स्थिते ।
नृपसुता निरगाद् गिरिजालयात् सुरुचिरं रुचिरञ्चितदिङ्मुखा ॥५॥
भुवनमोहनरूपरुचा तदा विवशिताखिलराजकदम्बया ।
त्वमपि देव कटाक्षविमोक्षणैः प्रमदया मदयाञ्चकृषे मनाक् ॥६॥
क्व नु गमिष्यसि चन्द्रमुखीति तां सरसमेत्य करेण हरन् क्षणात् ।
समधिरोप्य रथं त्वमपाहृथा ततो विततो निनदो द्विषाम् ॥७॥
क्व नु गतः पशुपाल इति क्रुधा कुतरणा यदुभिश्र्च जिता नृपाः ।
न तु भवानुदचाल्यत तैरहो पिशुनकैः शुनकैरिव केसरी ॥८॥
तदनु रुक्मिणमागतमाहवे वधमुपेक्ष्य निबध्य विरूपयन् ।
हृतमदं परिमुच्य बलोक्तिभिः पुरमया रमया सह कान्तया ॥९॥
नवसमागमलज्जितमानसां प्रणयकौतुकजुम्भितमन्मथाम् ।
अरमयः खलु नाथ यथासुखं रहसि तां हसितांशुलसन्मुखीम् ॥१०॥
विविधनर्मभिरेवमहर्निशं प्रमदमाकलयन् पुनरेकदा ।
ऋजुमतेः किल वक्रगिरा भवान् वरतनोरतनोदतिलोलताम् ॥११॥
तदधिकैरथ लालनकौशलैः प्रणयिनीमधिकं सुखयन्निमाम् ।
अयि मुकुन्द भवच्चरितानि नः प्रगदतां गदतान्तिमपाकुरु ॥१२॥
॥ इति रुक्मिणीस्वयंवरवर्णनम् एकोनाशीतितमदशकं समाप्तम् ॥
तदनन्तर कलहकी आशङ्कासे बलरामजी भी सेनाके साथ आपके पीछे गये । वहॉं पहुँचनेपर महाराज भीष्मकद्वारा सम्मानित होकर आपने नगरमें प्रवेश किया । तब आपके आगमनकी सूचना देनेवाले वे ब्राह्मणकुमार रुक्मिणीके पास गये । हर्षित हुई रुक्मिणीने बड़े वेगसे धरतीपर माथा टेककर उन्हें प्रणाम किया ॥१॥
एक ओर आपके त्रिभुवनकमनीय रूपको देखकर और दूसरी ओर राजकुमार रुक्मीकी कुचेष्टा सुनकर पुरवासियोंको महान् खेद हुआ , जिससे उनकी वह रात्रि रोदनपूर्वक वार्तालाप करते ही व्यतीत हुई ॥२॥
तत्पश्र्चात् जिसने अपना जीवन आपको ही अर्पित कर रखा था , वह चन्द्रवदनी रुक्मिणी माङ्गलिक आभूषणोंसे विभूषित हो पार्वती -वन्दनाके निमित्त अपने नगरसे बाहर निकली । उसी समय बहुतेरे सुभट उसके आगे -आगे तथा उसे घेरकर चल रहे थे ॥३॥
उस कुमारीने कुलाङ्गनाओंके साथ पार्वतीजीके निकट जाकर आदरपूर्वक उनकी पूजा की और भवानीके चरणकमलोंपर गिरकर बारंबार एकमात्र यही याचना की कि श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों ॥४॥
रुक्मिणीको देखकर सारा राजसमाज कौतूहलपूर्ण हो रहा था , परंतु आप चुपचाप एकान्तमें खड़े थे । तबतक अपनी कान्तिसे दिशाओंको अनुरञ्जित करती हुई राजकुमारी रुक्मिणी मनोहर चालसे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकली ॥५॥
देव ! उस समय जिसने अपने भुवनमोहन रूपकी सुन्दरतासे सम्पूर्ण राजसमूहोंको परवश कर दिया था , उस सुन्दरी रुक्मिणीने अपने कटाक्षोंद्वारा आपको भी थोड़ा मतवाला -सा बना दिया ॥६॥
उसी क्षण हरण करनेकी इच्छासे स्नेहपूर्वक रुक्मिणीके निकट जाकर ‘चन्द्रमुखी ! कहॉं जाओगी ?’——यों कहते हुए आपने उसे हाथसे पकड़कर अपने रथपर बैठा लिया और फिर वहॉंसे चलते बने । यह देखकर वहॉं शत्रु राजाओंका महान् कोलाहल होने लगा ॥७॥
तब कुछ नरेश क्रोधपूर्वक ‘अरे ! वह ग्वाला कहॉं भाग गया ?’—— यों कहते हूए युद्धमें तत्पर हो गये , परंतु यादवोंने समरभूमिमें उन्हें पराजित कर दिया । अहो ! उन चुगलखोरोंद्वारा आप किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं किये जा सके , जैसे कुत्ते सिंहका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ॥८॥
तत्पश्र्चात् रुक्मी संग्राममें आ डटा ; परंतु आपने उसके वधकी उपेक्षा कर दी और उसे विरूप करके रथमें बॉंध दिया । इस प्रकार उसका गर्व तो गल ही गया था , पुनः बलरामजीके कहनेसे आपने उसे बन्धमुक्त कर दिया और स्वयं उस प्राणवल्लभा लक्ष्मीके साथ द्वारकापुरीको लौट आये ॥९॥
नाथ ! प्रथम समागमके कारण जिसका मन लज्जित हो रहा था , प्रेमजनित कौतुकसे जिसकी कामव्यथा बढ़ गयी थी तथा मन्द मुस्कानकी किरणोंसे जिसका मुख सुशोभित हो रहा था , उस रुक्मिणीके साथ आपने एकान्तमें सुखपूर्वक रमण किया ॥१०॥
इस प्रकार आप रात -दिन विभिन्न प्रकारके परिहास -वचनोंद्वारा रुक्मिणीको हर्षित करने लगे । पुनः एक बार उस कोमल बुद्धिवाली सुन्दरी रुक्मिणीके मनको आपने वक्रोक्तिद्वारा अतिशय चञ्चल कर दिया ॥११॥
मुनहार करनेमें तो आप निपुण हैं ही , अतः अधिक प्रेम प्रदर्शित करके प्रियतमा रुक्मिणीके साथ तरह -तरहसे विहार करने लगे । अयि मुकुन्द ! हम भी आपकी लीलाओंका गान करनेवाले हैं , अतः हमारी रोगपीड़ाको दूर कर दीजिये ॥१२॥