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पञ्चचत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चचत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अयि सबल मुरारे पाणिजानुप्रचारैः

किमपि भवनभागान् भूषयन्तौ भवन्तौ ।

चलितचरणकञ्चौ मञ्जुमञ्जीरशिञ्जा -

श्रवणकुतुकभाजौ चेरतुश्र्चारुवेगात् ॥१॥

मृदु मृदु विहसन्तावुन्मिषद्दन्तवन्तौ

वदनपतितकेशौ दृश्यपादाब्जदेशौ ।

भुजगलितकरान्तव्यालगत्कङ्कणाङ्कौ

मतिमहरतमुच्चैः पश्यतां विश्र्वनॄणाम् ॥२॥

अनुसरति जनौघे कौतुकव्याकुलाक्षे

किमपि कृतनिनादं व्याहसन्तौ द्रवन्तौ ।

वलितवदनपद्मं पृष्ठतो दत्तदृष्टी

किमिव न विदधाथे कौतुकं वासुदेव ॥३॥

द्रुतगतिषु पन्तावुत्थितौ लिप्तपङ्कौ

दिवि मुनिभिरपङ्कैः सस्मितं वन्द्यमानौ ।

द्रुतमथ जननीभ्यां सानुकम्पं गृहीतौ

मुहुरपि पिरब्धो द्राग्ययुवां चुम्बितौ च ॥४॥

स्नुतकुचभरमङ्के धारयन्ती भवन्तं

तरलमति यशोदा स्तन्यदा धन्यधन्या ।

कपटपशुप मध्ये मुग्धहासाङ्करं ते

दशनमुकुलहृद्यं वीक्ष्य वक्त्रं जहर्ष ॥५॥

तदनु चरणचारी दारकैः साकमारा -

न्निलयततिषु खेलन् बालचापल्यशाली ।

भवनशुकविडालान् वत्सकांश्र्चानुधावन्

कथमपि कृतहासैर्गोपकैर्वारितोऽभूः ॥६॥

हलधरसहितस्त्वं यत्र यत्रोपयातो

विवशपतितनेत्रास्तत्र तत्रैव गोप्यः ।

विगलितगृहकृत्या विस्मृतापत्यभृत्या

मुरहर मुहुरत्यन्ताकुला नित्यमासन् ॥७॥

प्रतिनवननवनीतं गोपिकादत्तमिच्छन्

कलपदमुपगायन् कोमलं क्वापि नृत्यन् ।

सदययुवतिलोकैरर्पितं सर्पिश्र्नन्

क्वचन नवविपक्वं दुग्धमप्यापिबस्त्वम् ॥८॥

मम खलु बलिगेहे याचनं जातमास्ता -

मिह पुनरबलानामग्रतो नैव कुर्वे ।

इति विहितमतिः किं देव संत्यज्य याच्ञां

दधिघृतमहरस्त्वं चारुणा चोरणेन ॥९॥

तव दधिघृतमोषे घोषयोषाजनाना -

मभजत हृदि रोषो नावकाशं न शोकः ।

हृदयमपि मुषित्वा हर्षसिन्धौ न्यधास्त्वं

स मम शमय रोगान् वातगेहाधिनाथ ॥१०॥

॥ इति बालक्रीडावर्णनं पञ्चचत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

हे बलरामसहित मुरारि श्रीकृष्ण ! अब आप दोनों घुटनों और हाथोंके बल बकैयॉं चलते हुए भवनके विभिन्न भागोंको सुशोभित करने लगे । उस समय चरणकमलके हिलनेसे नूपुरकी बड़ी मधुर झनकार होती थी , जिसे सुननेसे कौतुकवश आप दोनों बड़े सुन्दर ढंगसे वेगपूर्वक विचरने लगते थे ॥१॥

बीच -बीचमें मन्द -मन्द मुसकरा देते थे , जिससे नयी -नयी निकलती आपकी दँतुलियॉं दिख पड़ती थीं । भागनेके कारण आपके मुखपर घुँघराली अलकें बिखर जाती थीं । घुटनेके बल चलनेसे आपके चरणकमलके तलवे स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते थे । भुजाओंके ऊपरी भागसे खिसककर मणिबन्धमें सटे हुए कङ्कणोंसे आपकी अनोखी शोभा हो रही थी । इस प्रकार आप दोनों अपनेको निहारनेवाले सभी मनुष्योंके मनको हठात् लेते थे ॥२॥

जब कुछ लोग आपके पीछे चलने लगते तब आपके नेत्र कौतुकवश चञ्चल हो जाते और आप दोनों अद्भुत किलकारीके साथ हँसते हुए भागने लगते । पुनः मुखकमलको तिरछा करके पीछेकी ओर देखने लगते । वासुदेव ! इस प्रकार आप दोनों कौन -सा कौतुक नहीं करते थे ॥३॥

कभी -कभी वेगसे भागते आप दोनों व्रजकी कीचमें गिर पड़ते फिर पङ्करहित मुनिगण मुसकराते हुए आप दोनोंकी वन्दना करने लगते । तदनन्तर दोनों माताएँ यशोदा और रोहिणी दयापरवश हो शीघ्र ही दौड़कर आप दोनोंको गोदमें उठा लेतीं , बारंबार हृदयसे लगातीं और चुम्बन करने लगतीं ॥४॥

आपको स्तन्य पान करानेवाली कृपाकुला माता यशोदाके स्तनोंसे दूध झरने लगता और वे आपको अङ्कमें लेकर धन्य -धन्य हो जाती थीं ।मायामय गोपरूपधारी भगवन् ! स्तनपान करते समय बीच -बीचमें आप हँस देते थे , जिससे आपकी छोटी -छोटी दँतुलियोंके दीखनेसे हृदयहारी आपके मुखको देखकर यशोदा हर्ष -समुद्रमे हिलारें लेने लगतीं ॥५॥

कुछ ही दिनोंमें आप पैरोंके बल खड़े होकर चलने लगे । तब बालचपलतावश समवयस्क ग्वालबालोंके साथ समीपस्थ पड़ोसियोंके घरोंमें खेलने जाने लगे । वहॉं जब घरके पालतू शुक , बिलाव तथा बछड़ोंके पीछे दौड़ने लगते , तब हँसते हुए गोप बड़ी कठिनतासे आपको रोक पाते थे ॥६॥

मुरारे ! हलधरके साथ आप जहॉं -जहॉं जाते , वहीं -वहीं गोपियोंके नेत्र विवश होकर आपके ऊपर पड़ते । उनके गृहकार्य पड़े ही रह जाते । यहॉंतक कि उन्हें अपने शिशुओं तथा नौकरोंचाकरोंका भी स्मरण नहीं रहता । इस प्रकार वे प्रतिदिन आपकी बाललीला देखनेमें ही व्यग्र रहती थीं ॥७॥

गोपिकाएँ मुझे सद्यः निकाला हुआ ताजा मक्खन दें ——इस इच्छासे आप कहीं तो मीठे सुरीले पद गाते थे और कहीं -कहीं ठुमुक -ठुमुककर नाचते थे । तब दयालु युवतियॉं आपको मक्खन देती थीं । इस प्रकार आप कहीं सद लोना मक्खन खाते थे और कहीं गरमागरम ताजा दूध पीते थे ॥८॥

‘ पूर्वकालमें मैने बलिके घर जाकर याचना की थी , सो वह याचना वहीं रह जाय ; अब मैं पुनः इन अबलाओंके आगे याचना - कर्म नहीं करूँगा । ’ देव ! क्या मनमें ऐसा ही विचार करके आप मॉंगना छोड़कर मधुर मनोहर चोरी - लीलाद्वारा दही - मख्खन चुराने लगे थे ? ॥९॥

आपके दही -माखन चुरानेपर गोपाङ्गाओंके हृदयमें क्रोध और शोकको प्रवेश करनेका अवकाश ही नहीं मिलता , उलटे उन्हें हर्ष होता था ; क्योंकि आप उनके हृदयको भी चुराकर हर्ष -सिन्धुमें निमग्न कर देते थे । हे वातगेहाधिनाथ ! ऐसे आप मेरे रोगोंको शान्त कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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