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पञ्चाशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चाशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


ततो मगधभूभृता चिरनिरोधसंक्लेशितं

शताष्टकयुतायुतद्वितयमीश भूमीभृताम्

अनाथशरणाय ते कमपि पूरुषं प्राहिणो -

दयाचत स मागधक्षपणमेव किं भूयसा ॥१॥

यियासुरभिमागधं तदनु नारदोदीरिता -

द्युधिष्ठिरमखोद्यमादुभयकार्यपर्याकुलः ।

विरुद्धजयिनोऽध्वरादुभयसिद्धिरित्युद्धवे

शशंसुषि निजैः समं पुरमियेथ यौधिष्ठिरीम् ॥२॥

अशेषदयितायुते त्वयि समागते धर्मजा

विजित्य सहजैर्महीं भवदपाङ्गसंवर्द्धितैः ।

श्रियं निरुपमां वहन्नहह भक्तदासायितं

भवन्तमयि मागधे प्रहितवान् सभीमार्जुनम् ॥३॥

गिरिव्रजपुरं गतास्तदनु देव यूयं त्रयो

ययाच समरोत्सवं द्विजमिषेण तं मागधम् ।

अपूर्णसुकृतं त्वमुं पवनजेन संग्रामयन्

निरीक्ष्य सह जिष्णुना त्वमपि राजयुद्ध्वा स्थितः ॥४॥

अशान्तसमरोद्धतं विटपपाटनासंज्ञया

निपात्य जरसः सुतं पवनजेन निष्पाटितम् ।

विमुच्य नृपतीन् मुदा समनुगृह्य भक्तिं परां

दिदेशिथ गतस्पृहानपि च धर्मगुप्त्यै भुवः ॥५॥

प्रचकु्रषि युधिष्ठिरे तदनु राजसूयाध्वरं

प्रसन्नभृतकीभवत्सकलराजकव्याकुलम् ।

त्वमप्ययि जगत्पते द्विजपदावनेजादिकं

चकर्थ किमु कथ्यते नृपवरस्य भाग्योन्नतिः ॥६॥

ततः सवनकर्मणि प्रवरमग्र्य़पूजाविधिं

विचार्य सहदेववागनुगतः स धर्मात्मजः ।

व्यधत्त भवते मुदा सदसि विश्र्वभूतात्मने

तदा ससुरमानुषं भुवनमेव तृप्तिं दधौ ॥७॥

ततः सपदि चेदिपो मुनिनृपेषु तिष्ठत्स्वहो

सभाजयति को जडः पशुपदुर्दुरूढं वटुम् ।

इति त्वयि स दुर्वचोविततिमुद्वमन्नासना -

दुदापतदुदायुधः समपतन्नमुं पाण्डवाः ॥८॥

निवार्य निजपक्षगानभिमुखस्य विद्वेषिण -

स्त्वमेव जहृषे शिरो दनुजदारिणा स्वारिणा ।

जनुस्त्रितयलब्धया सततचिन्तया शुद्धधी -

स्त्वया स परमेकतामधृत योगिनां दुर्लभाम् ॥९॥

ततः सुमहिते त्वया क्रतुवरे निरूढे जनो

ययौ जयति धर्मजो जयति कृष्ण इत्यालपन् ।

खलः स तु सुयोधनो धुतमनाः सपन्तश्रिया

मयार्पितसभामुखे स्थलजलभ्रमादभ्रमीत् ॥१०॥

तदा हसितमुतत्थितं द्रुपदनन्दनाभीमयो -

रपाङ्गकलया विभो किमपि तावदुज्जृम्भयन् ।

धराभरनिराकृतौ सपदि नाम बीजं वपन्

जनार्दन मरुत्पुरीनिलय पाहि मामामयात् ॥११॥

॥ इति जरासंधवधवर्णनं राजसूयवर्णनं च पञ्चाशीतिमदशकं समाप्तम्॥

ईश ! तदनन्तर मगधराज जरासंधद्वारा चिरकालसे बंदी बनाये जानेके कारण क्लेश उठानेवाले बीस हजार आठ सौ राजाओंके समुदायने अशरणशरण आपके पास किसी पुरुषको दूत बनाकर भेजा । अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता ? आपसे जरासंधके वधकी ही याचना की ॥१॥

यह सुनकर आप जरासंधपर चढ़ाई करनेका विचार कर ही रहे थे कि इस बीच आपको नारदजीके मुखसे युधिष्ठिरके राजसूय -यज्ञका वृत्तान्त ज्ञात हुआ । इस प्रकार दो कार्य एक साथ ही उपस्थित होनेपर आप द्विविधामें पड़ गये । तब उद्धवने ‘शत्रुनिग्रहपूर्वक ’ किये गये यज्ञनसे दोनों कार्य सिद्ध हो जायँगे ’—— ऐसी सलाह दी । फिर तो उसी समय आप स्वजनोंके साथ युधिष्ठिरकी राजधानी इन्द्रप्रस्थके लिये रवाना हो गये ॥२॥

सोलह हजार एक सौ आठ रानियोंसहित आपके पधारनेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने आपकी कृपादृष्टिसे संवर्धित भाईयोंद्वारा सारी पृथ्वीको जीतकर अनुपम लक्ष्मी प्राप्त की । फिर अयि भगवन् ! आश्र्चर्य तो यह है कि उन्होंने भक्त -दासकी तरह आचरण करनेवाले आपको भीम और अर्जुनके साथ जरासंधको जीतनेके लिये भेज दिया ॥३॥

देव ! तत्पश्र्चात् आप तीनों वीर जरासंधकी राजधानी गिरिव्रजको गये । वहॉं ब्राह्मण -वेष धारण करके जरासंधके निकट जाकर आपलोगोंने उससे समरोत्सवकी याचना की और उस अपूर्ण पुण्यवाले जरासंधको भीमसेनके साथ लड़ाकर बड़े -बड़े राजओंसे जूझनेवाले आप भी उस युद्धको देखते हुए अर्जुनके साथ चुपचाप खड़े रहे ॥४॥

किसीकी जय -पराजय न होनेसे वह युद्ध समाप्त नही हो रहा था ; अतएव जरासंधकी उद्दण्डता बढ़ती जाती थी । तब आपने भीमसेनको वृक्षके चीरनेका -सा संकेत किया । उसका आशय समझकर भीमने उस जरा -पुत्रकी टॉंगे पकड़कर उसे बीचसे ही चीर डाला । इस प्रकार उसका वध कराकर आपने बंदी राजाओंको बन्धनमुक्त किया और हर्षपूर्वक उन्हें आपनी प्रेमलक्षणा भक्ति प्रदान की । तत्पश्र्चात् यद्यपि उन्हें राज्यभोगकी इच्छा नही रह गयी थी , तथापि आपने धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करनेके लिये उन्हें (अपने -अपने राज्यको लौट जानेकी ) आज्ञा दी ॥५॥

तत्पश्र्चात् राजा युधिष्ठिरने राजसूय -यज्ञका अनुष्ठान किया । वह यज्ञ प्रसन्नतापूर्वक सेवकका कार्य करनेवाले समागत भूपाल -समूहोंसे भरा था । अयि जगदीश्र्वर ! उस यज्ञमें आपने भी ब्राह्मणोंके पाद -प्रक्षालन आदिका कार्य स्वयं अपने हाथसे किया । नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरके भाग्योदयका इससे अधिक क्या वर्णन किया जा सकता है ? ॥६॥

तदनन्तर सवन -कर्मके अवसरपर सहदेवके कथानुसार आपको सर्वश्रेष्ठ समझकर धर्मनन्दन युधिष्ठिरने हर्षपूर्वक उस राजसभामें समस्त प्राणियोंके आत्मास्वरूप आपकी श्रेष्ठतम अग्रपूजा की । उस समय देवताओं और मनुष्योंसहित समस्त चराचर लोक संतुष्ठ हो गया ॥७॥

अहो ! तब मुनियों तथा नरेशोंके देखते -देखते वह चेदिराज शिशुपाल ‘कौन मूर्ख इस नीच ग्वालेके छोकरेकी पूजा कर रहा है ’—— यों आपके लिये दुर्वचनोंकी बौछार करता हुआ हाथमें खङ्ग धारण करके तुरंत ही अपने आसनसे उठ खड़ा हुआ । यह देखकर पाण्डव उसे मार डालनेके लिये टूट पड़े ॥८॥

तब अपने पक्षपाती पाण्डवोंको उसे मारनेसे रोककर स्वयं आपने ही अपने दनुजविदारक सुदर्शनचक्रसे सम्मुख खड़े हुए शिशुपालके सिरको धड़से अलग कर दिया । (हिरण्यकशिपु , रावण , शिशुपाल ) इन तीन जन्मोंतक अनवरत आपकी चिन्तना करनेसे शिशुपालकी बुद्धि शुद्ध हो गयी थी , अतः वह आपके साथ उस ऐकात्म्यको प्राप्त हुआ , जो योगियोंको भी दुर्लभ है ॥९॥

तदनन्तर आपकी देख -रेखमें जब वह श्रेष्ठ यज्ञ भलीभॉंति पूजित होकर समाप्त हुआ , तब समागत जन -समूह ‘श्रीकृष्णकी जय हो , धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी जय हो ’—— यों कहता हुआ अपने -अपने घर चला गया । परंतु दुर्योधन तो दुष्ट विचारवाला था , अतः अपने शत्रुभूत पाण्डवोंकी उस समृद्धिकोा देखकर उसका मन चञ्चल हो गया । वह मयदानवद्वारा दी हुई सभाके द्वारपर स्थलको जल और जलको स्थल समझकर सम्भ्रान्त हो गया ॥१०॥

विभो ! यह देखकर द्रौपदी और भीमसेनके मुखसे हँसी निकल पड़ी और उन्होंने कनखियोंद्वारा दुर्योधनकी ओर देखकर उसके रोषको और भी उत्तेजित कर दिया । जर्नादन ! इस रूपमें आपने शीघ्र ही पृथ्वीके भार -हरणरूप कार्यके लिये बीजारोपण किया । मरुत्पुरीनिलय ! इस रोगसे मेरी रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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