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एकाशीतितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकाशीतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


स्निग्धां मुग्धां सततमपि तां लालयन् सत्यभामां

यातो भूयः सह खलु तया याज्ञसेनीविवाहम् ।

पार्थप्रीत्यै पुनरपि मनागास्थितो हस्तिपुर्यां

शक्रप्रस्थ पुरमपि विभो संविधायागतोऽभूः ॥१॥

भद्रां भद्रां भवदवरजां कौरवेणार्थ्यमानां

त्वद्वाचा तामहृत कुहनामस्करी शक्रसूनुः ।

तत्र क्रुद्धं बलमनुनयन् प्रत्यगास्तेन सार्धं

शक्रप्रस्थं प्रियसखमुदे सत्यभामासहायः ॥२॥

तत्र क्रीडान्नपि च यमुनाकूलदृष्टां गृहीत्वा

तां कालिन्दीं नगरमगमः खाण्डवप्रीणिताग्निः ।

भ्रातृत्रस्तां प्रणयविवशां देव पैतृष्वसेयीं

राज्ञां मध्ये सपदि जहृषे मित्रविन्दामवन्तीम् ॥३॥

सत्यां गत्वा पुनरुदवहो नग्नजिन्नन्दनां तां

बद्ध्वा सप्तापि च वृषवरान् सप्तमूर्तिर्निमेषात् ।

भद्रां नाम प्रददुरथ ते देव संतर्दनाद्या -

सत्सोदर्यां वरद भवतः सापि पैतृष्वसेयी ॥४॥

पार्थाद्यैरप्यकृतलवनं तोयमात्राभिलक्ष्यं

लक्षं छित्त्वा शफरमवृथा लक्ष्मणां मद्रकन्याम् ।

अष्टावेवं तव समभवन् वल्लभास्तत्र मध्ये

शुश्रोथ त्वं सुरपतिगिरा भौमदुश्र्चेष्टितानि ॥५॥

स्मृतायातं पक्षिप्रवरमधिरूढस्त्वमगमो

वहन्नङ्के भामामुपवनमिवारातिनगरम् ।

विभिन्दम् दुर्गाणि त्रुटितपृतनाशोणितरसैः

पुरं तावत् प्राग्ज्योतिषमकुरुथाः शोणितपुरम् ॥६॥

मुरस्त्वां पञ्चास्यो जलधिवनमध्यादुदपतत्

स चक्रे चक्रेण प्रदलितशिरा मङ्क्षु भवता ।

चतुर्दन्तैर्दन्तावलपतिभिरिन्धानसमरं

रथाङ्गेन च्छित्त्वा नरकमकरोस्तीर्णनरकम् ॥७॥

स्तुतो भूम्या राज्यं सपदि भगदत्तेऽस्य तनये

गजं चैकं दत्त्वा प्रजिघयिथ नागान्निजपुरीम् ।

खलेनाबद्धानां स्वगतमनसां षोडश पुनः

सहस्राणि स्त्रीणामपि च धनराशिं च विपुलम् ॥८॥

भौमापाहृतकुण्डलं तददितेर्दातुं प्रयातो दिवं

शक्राद्यैर्महितः समं दयितया द्युस्त्रीषु दत्तह्रिया ।

हृत्वा कल्पतरुं रुषाभिपतितं जित्वेन्द्रमभ्यागम -

स्तत्तु श्रीमददोष ईदृश इति व्याख्यातुमेवाकृथाः ॥९॥

कल्पद्रुं सत्यभामाभवनभुवि सृजन् द्य्वष्टसाहस्रयोषाः

आश्र्चर्यान्नारदालोकितविविधगतिस्तत्र तत्रापि गेहे

भूयः सर्वासु कुर्वन दश दश तनयान् पाहि वातालयेश ॥१०॥

॥ इति सुभद्राहरणं कालिन्द्यादिविवाहवर्णनं नरकासुरवधवर्णनं च एकाशीतितमदशकं समाप्तम् ॥

विभो ! इस प्रकार आप उस प्रणयिनी तथा मनमोहिनी सुन्दरी सत्यभामाको सदा लाड़ लड़ाते रहे । फिर उसके साथ ही आप द्रौपदीके विवाहमें गये और वहॉं अर्जुनको प्रसन्न करनेके लिये कुछ दिनोंतक हस्तिनापुरमें ही ठहर गये । तत्पश्र्चात् पाण्डवोंके लिये (विश्र्वकर्माद्वारा ) इन्द्रप्रस्थ नामकों नगरीका निर्माण कराकर द्वारका लौट आये ॥१॥

तदनन्तर आपकी छोटी बहिन कल्याणमयी सुभद्राको , जिसके लिये दुर्योधन भी याचना कर रहा था , आपकी ही आज्ञासे इन्द्र -पुत्र अर्जुनने , जो संन्यासीके छद्म -वेषमें रहते थे , हर लिया । यह देखकर बलरामजी कुपित हो उठे , परंतु आपने उन्हें अनुनय -विनय करके समझा लिया । पुनः अपने प्रिय सखा अर्जुनके प्रीतिसम्पादनार्थ उन्हीके साथ सत्यभामासहित आप इन्द्रप्रस्थको गये ॥२॥

देव ! वहॉं क्रीडा करते हुए आपको एक बार यमुना -तटपर सूर्यनन्दिनी कालिन्दी दीख पड़ी । उसे ग्रहण करके आप नगरको लौट आये । उसी समय आपने खाण्डव -दाहद्वारा अग्निको संतुष्ट किया । पुनः आप अपनी फूआकी पुत्री अवन्ति -राजकुमारी मित्रविन्दाको , जो आपमें ही अनुराग रखनेवाली थी परंतु आपने विन्द -अनुविन्द नामक भाइयोंसे संत्रस्थ थी , राजाओंके देखते -देखते तुरंत स्वयंवरसे हर लाये ॥३॥

पुनः महाराज नग्नजित्की राजधानीमें जाकर अपनेको सात रूपोंमें प्रकट करके निमेषमात्रमें ही आपने सात श्रेष्ठ बैलोंको बॉंध दिया , जिसके फलस्वरूप नग्नजित् -नन्दिनी सत्याका पाणिग्रहण किया । देव ! पुनः संतर्दन आदि भाइयोंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सहोदरा बहिन भद्रा आपको समर्पित कर दी । वरद ! वह भी आपकी फूआ श्रुतकीर्तिकी ही पुत्री थी ॥३॥

तत्पश्र्चात् पार्थ (दुर्योधन , जरासंध ) आदि भी जिसका भेदन नहीं कर सके थे तथा जो जलमें प्रतिबिम्ब -रूपसे अभिलिक्षित हो रहा था , उस मस्त्यरूप लक्ष्यका भेदन करके आपने मद्र -राजकुमारी लक्ष्मणाका वरण किया । इस प्रकार आपकी आठ पटरानियॉं हुईं । इसी बीच आपने इन्द्रके मुखसे भौमासुरकी दुश्र्चेष्टाएँ सुनीं ॥५॥

तब स्मरण करते ही उपस्थित हुए पक्षिराज गरुडपर आरूढ हो आप भौमासुरके नगरको गये , जो एक उपवनकी भॉंति सुशोभित हो रहा था । उस समय सत्यभामा भी आपके अङ्कमें विराजमान थीं । वहॉं पहुँचकर आपने उसके सभी दुर्गोंको तोड़ डाला और शस्त्रोंद्वारा कटी हुई सेनाओंके रुधिरकी धारासे अनुरञ्जित उस प्राग्ज्योतिषपुरको शोणितपुर बना दिया ॥६॥

तदनन्तर पॉंच मुखोंवाले दैत्यराज मुरने समुद्रके जलसे निकलकर आपपर आक्रमण किया , तब आपने सुद्धस्थलमें चक्रद्वारा अनायास ही उसका सिर धड़से अलग कर दिया । तत्पश्र्चात् चार दॉंतोवाले गजराजोंकी सेना लेकर नरकासुर समरभूमिमें आ धमका । उस घोर संग्राममे आपने चक्रसे नरकासुरका सिर काट करके उसका नरक -लोकसे उद्धार कर दिया ॥७॥

तब भूमि देवीने आकर आपकी स्तुति -प्रार्थना की , उससे प्रसन्न होकर आपने शीघ्र ही भौमासुरके पुत्र भगदत्तको एक गजराज तथा उसका राज्य देकर शेष सभी चतुर्दन्त गजराजोंको , विपुल धनराशिको तथा दृष्ट भौमासुरद्वारा कैदमें डाली हुई अपने (श्रीकृष्ण )- में ही अनुरक्त रहनेवाली सोलह हजार स्त्रियोंको भी आपने निजपुरी द्वारकाको भेज दिया ॥८॥

तत्पश्र्चात् भौमासुरद्वारा अपहरण किये हुए कुण्डलोंको देवमाता आदितिको देनेके लिये आप स्वर्गमें गये । वहॉं अपने सौन्दर्यसे जिसने देवाङ्गनाओंको लज्जित कर दिया था , उस प्रियतमा सत्यभामासहित आपका इन्द्र आदि देवताओंने विशेष आदर -सत्कार किया । चलते समय (सत्यभामाके कहनेसे ) आप वहॉंके कल्पवृक्षको अपने साथ ले जाने लगे । तब इन्द्रने क्रुद्ध होकर आपपर आक्रमण किया , परंतु आप इन्द्रको पराजित करके सकुशल द्वारका लौट आये । वह इन्द्रविजयरूप कार्य ‘श्रीमदका दोष ऐसा ही होता है ’— यह प्रकटय करनेके लिये ही आपने किया था ॥९॥

यहॉं उस कल्पतरुको आपने सत्यभामाके गृहोद्यानमें स्थापित कर दिया और उन सोलह सहस्र नारियोंको एक साथ पाणिग्रहण किया । तत्पश्र्चात् आप अनेकों रूप धारण करके प्रत्येकके महलमें जाकर विभिन्न प्रकारकी रस -क्रीडाओंद्वारा उन्हें आनन्दित करने लगे । यह सुनकर नारदजीको महान् आश्र्चर्य हुआ । तब उन्होंने प्रत्येकके महलमें जाकर आपकी उस विविध गतिका अवलोकन किया । तत्पश्र्चात् उन सभी पत्नियोंमें प्रत्येकसे आपने दस -दस उत्पन्न किये । वातालयेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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