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सप्तसप्ततितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तसप्ततितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


सैरन्ध्र्य़ास्तदनु चिरं स्मरातुराया

यातोऽभूः सललितमुद्धवेन सार्धम् ।

आवासं त्वदुपगमोत्सवं सदैव

ध्यायन्त्याः प्रतिदिनवाससज्जिकायाः ॥१॥

उपगते त्वयि पूर्णमनोरथं

प्रमदसम्भ्रमकम्प्रपयोधराम् ।

रहसि तां रमयाञ्चकृषे सुखम् ॥२॥

पृष्टा वरं पुनरसाववृणोद्वराकी

भूयस्त्वया सुरतमेव निशान्तरेषु ।

सायुज्यमस्तित्वति वदेद् बुध एव कामं

सामीप्यमस्त्वनिशमित्यपि नाब्रवीत् किम् ॥३॥

ततो भवान् देव निशासु कासुचि -

न्मृगीदृशं तां निभृतं विनोदयन् ।

अदादुपश्लोक इति श्रुतं सुतं

स नारदात् सात्वतन्त्रविद्वभौ ॥४॥

अक्रूरमन्दिरमितोऽथ बलोद्धवाभ्या -

मभ्यर्चितो बहु नुतो मुदितेन तेन ।

एनं विसृज्य विपिनागतपाण्डवेय -

वृत्तं विवेदिथ तथा धृतराष्ट्रचेष्टाम् ॥५॥

विघाताज्जामातुः परमसुहृदो भोजनृपते -

र्जरासंधे रुन्धत्यवधिरुषान्धेऽथ मथुराम् ।

रथाद्यैर्द्योर्लब्धैः कतिपयबलस्त्वं बलयुत -

स्त्रयोविंशत्यक्षौहिणि तदुपनीतं समहृथाः ॥६॥

बद्धं बलादथ बलेन बलोत्तरं त्वं

भूयो बलोद्यमरसेन मुमोचिथैनम् ।

निश्शेषदिग्जयसमाहृतविश्र्वसैन्यात्

कोऽन्यस्ततो हि बलपौरुषवांस्तदानीम् ॥७॥

भग्नः स लग्नहृदयोऽपि नृपैः प्रणुन्नो

युद्धे त्वया व्यधित षोडशकृत्व एवम् ।

सम्भूय सैकनवतित्रिशतं तदानीम् ॥८॥

अष्टादशेऽस्य समरे समुपेयुषि त्वं

दृष्ट्वा पुरोऽथ यवनं यवनत्रिकोट्या ।

त्वष्ट्रा विधाप्य पुरमाशु पयोधिमध्ये

तन्नाथ योगबलतः स्वजनाननैषीः ॥९॥

पद्भ्य़ां त्वं पद्ममाली चकित इव पुरान्निर्गतो धावमानो

म्लेच्छेशेनानुयातो वधसुकृतविहीनेन शैले न्यलैषीः ।

सुप्तेनाङ्घ्र्य़ाहतेन द्रुतमथ मुचुकुन्देन भस्मीकृतेऽस्मिन्

भूपायास्मै गुहान्ते सुललितवपुषा तस्थिषे भक्तिभाजे ॥१०॥

ऐक्ष्वाकोऽहं विरक्तोऽस्म्यखिलनृपसुखे त्वत्प्रसादैककाङ्क्षी

हा देवेति स्तुवन्तं वरविततिषु तं निःस्पृहं वीक्ष्य हृष्यन् ।

मुक्तेस्तुल्यां च भक्तिं धुतसकलमलां मोक्षमप्याशु दत्तवा

कार्यं हिंसाविशुद्ध्य़ै तप इति च तदा प्रात्थ लोकप्रतीत्यै ॥११॥

तदनु मथुरां गत्वा हत्वा चमूं यवनाहृतां

मगधपतिना मार्गे सैन्यैः पुरेव निवारितः ।

चरमविजयं दर्पायास्मै प्रदाय पलायितो

जलधिनगरीं यातो वातालयेश्र्वर पाहि माम् ॥१२॥

॥इति उपश्लोकोत्पत्तिवर्णनं जरासंधादियुद्धवर्णनं मुचुकुन्दानुग्रहवर्णनं च सप्तसप्ततिमदशकं समाप्तम् ॥

तदनन्तर जो कामपीड़ासे अत्यन्त आतुर हो रही थी , अतएव सदैव आपके उत्सवपूर्ण आगमनकी ही बात सोचती रहती थी , उस वासकसज्जा सैरन्ध्री (कुब्जा )- के घरपर आप सुन्दर वेष -भूषासे सुसज्जित हो उद्धवके साथ पधारे ॥१॥

आपको आया हुआ देखकर जिसके मनोरथ पूर्ण हो गये थे , हर्षातिरेकसे शीघ्रतापूर्वक स्वागतके लिये दौड़नेपर जिसके स्तन हिल रहे थे तथा जो हर्षपूर्वक आपके प्रति विविध प्रकारसे सम्मान प्रदर्शित कर रही थी , उस सैरन्ध्रीको आपने एकान्तमें सुख एवं आनन्द प्रदान किया ॥२॥

चलते समय आपने उससे वरदान मॉंगनेके लिये कहा तो उस बेचारीने आगामी कुछ रात्रियोंतक आपके साथ पुनः रमण करनेकी ही अभिलाषा व्यक्त की । ‘सायुज्य मोक्ष प्राप्त हो ’— ऐसा वर भले ही कोई विद्धान ही मॉंगे , परंतु ‘निरन्तर आपका सामीप्य ही बना रहे ’— ऐसा वरदान भी उसने न जाने क्यों नहीं मॉंगा ? ॥३॥

देव ! तब आप कुछ रात्रियोंतक उस मृगनयनी सैरन्ध्रीको एकान्तमें रस -दान करते रहे और उसे ‘उपश्लोक ’ नामसे विख्यात एक पुत्र भी दिया । वह उपश्लोक नारदजीसे सात्वततन्त्रकी शिक्षा प्राप्त करके लोकमें सुशोभित हुआ ॥४॥

तदनन्तर आप बलरामजी और उद्धवजीके साथ अक्रूरके घर पधारे । वहॉं आनन्दविभोर हुए अक्रूरने आपकी बहुत अर्चा -पूजा तथा स्तुति की । तब आपने अक्रूरको हस्तिनापुर भेजकर वनसे लौटे हुए पाण्डुपुत्रोंके वृतान्त तथा धृतराष्ट्रकी चेष्टाकी जानकारी प्राप्त की ॥५॥

इधर आपने परम सुहृद् एवं जामाता भोजराज कंसके वधका वृत्तान्त सुनकर जरासंधके क्रोधकी सीमा न रही । वह उस रोषसे अंध हो उठा । फिर तो उसने सेनाके साथ आकर मथुरापुरीको घेर लिया । तब बलरामजीसहित आपने स्वर्गलोकसे आये हुए रथ आदि उपकरणोंको लेकर कुछ ही सेनाके साथ नगरीसे बाहर निकलकर जरासंधद्वारा लायी हुई तेईस अक्षौहिणी सेनाका संहार कर डाला ॥६॥

फिर बलरामजीने बलमें बढ़े -चढ़े जरासंधको बलपूर्वक बंदी बना लिया । तब आपने उस जरासंधको ‘यह पुनः बड़ी सेना लेकर आयेगा -’ इस कुतूहलके कारण मुक्त कर दिया । क्योंकि उस समय जिसने सम्पूर्ण दिशाओंकी विजयके अवसरपर समस्त विश्र्वकी सेनाको इकट्ठी कर लिया था , उस जरासंधसे बढ़कर बल -पौरुषवान् वीर नरेश दूसरा कौन था ? ॥७॥

विष्णो ! इस प्रकार पराजित जरासंधने राजाओंद्वारा प्रेरित किये जानेपर पुनः युद्धके लिये उद्यत हो सोलह बार और आपके साथ लड़ाई छेड़ी ; परंतु शिव ! शिव ! आपने उस समय उसे प्रत्येक युद्धमें परास्त करके उसकी तीन सौ इक्यानबे अक्षोहिणी सेनाओंको मौतके घाट उतार दिया (इस प्रकार वह (१ +१६ =१७ ) सत्रह बार पराजित हुआ ) ॥८॥

जरासंध जब अठरहवीं बार संग्रामके लिये आ ही रहा था , तबतक आपने तीन करोड़ यवनोंकी सेनाके साथ आये हुए कालयवनको सामने उपस्थित देखा । तब आपने शीघ्र ही समुद्रके मध्यमें विश्र्वकर्माद्वारा द्वारका नामकी नगरीका निर्माण कराके अपने योगबलसे स्वजनोंको वहॉं पहुँचा दिया ॥९॥

तत्पश्र्चात् पद्ममालाधारी आप चकितका -सा नाट्य करके नगरसे निकलकर पैदल ही भागने लगे । उस समय जिसके भाग्यमें आपके द्वारा किये गये वधका पुण्य नहीं लिखा था , उस म्लेच्छराज कालयवनने आपका पीछा किया । तब आप एक पर्वतकी गुफामें जा छिपे । वहॉं महाराज मुचुकुन्द सो रहे थे । कालयवनने आपके धोखेमें उनपर चरणप्रहार किया । तब जगे हुए मुचकुन्दने उस म्लेच्छको तत्काल भस्म कर दिया । तत्पश्र्चात् आप उस गुफाके भीतर परम मनोहर रूप धारण करके उन भक्तिमान् नरेश मुचुकुन्दके सामने खड़े हो गये ॥१०॥

मुचुकुन्दने कहा ——‘हा देव ! मैं महाराज इक्ष्वाकुके कुलमें उत्पन्न (राजा मान्धाताका पुत्र ) हूँ , इस समय समस्त राज्यभोगोंसे मुझे वैराग्य हो गया है , मैं एकमात्र आपकी कृपाकी ही अभिलाषा रखता हूँ ’ इस प्रकार स्तवन करते हुए राजाको वर मॉंगनेमें निःस्पृह देखकर आप प्रसन्न हो गये । तब आपने मुचुकन्दको शीघ्र ही सकल पापोंको नष्ट करनेवाली मुक्ति -सरीखी भक्ति तथा मोक्ष भी प्रदान किया और लोक -प्रतीतिके लिये ‘क्षात्रधर्माश्रित हिंसाके विशोधनार्थ तपस्या कीजिये ’— यों आदेश भी दिया ॥११॥

तदनन्तर मथुराको लौटकर कालयवनद्वारा लायी हुई सेनाका संहार करके आप द्वारकाको प्रस्थित हुए । तब मार्गमें मगधराज जरासंधने पहलेकी भॉंति अपनी सेनाओंद्वारा आपको रोक दिया । उस समय आप उसका गर्व बढ़ानेके लिये उसे अन्तिम (अठरहवीं बार ) विजय प्रदान करके भाग खड़े हुए और अलक्षित रूपसे ही समुद्रमें बसी हुई द्वारकापुरीको चले गये । वातालयेश्र्वर ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१२॥


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Last Updated : November 11, 2016

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