विभो ! जिन्हें ज्योतिष शास्त्रका यथार्थ तत्त्व सम्यक् प्रकारसे विदित थो , वे मुनि गर्गाचार्य वसुदेवजीके कहनेसे गुप्तरूपसे आप निष्क्रियका नामकरणादि संस्कार करनेके लिये आपके घरपर पधारे ॥१॥
उन्हें देखकर नन्दजीका हृदय आह्लादित हो उठा । उन्होंने संयमशीलोंमे देवतुल्य वन्दनीय गर्गमुनिका यथाविधि आदर -सत्कार किया । तदनन्तर उत्सुकचित्त होकर मन्द मुसकराहटसे आर्द्र वाणीमें उन्होंने मुनिसे आपके संस्कार करनेके लिये कहा ॥२॥
तब गर्गाचार्यजीने यों उत्तर दिया ——‘आर्य ! मैं यदुवंशका आचार्य हूँ , अतः यह कार्य अत्यन्त गुप्तरूपसे सम्पन्न होना चाहिये । (क्योंकि मेरे संस्कार करनेसे कहीं कंसको शङ्का न हो जाय कि यह यदुकुमार है । )’ तदनन्तर आपके स्पर्शसे पुलकित शरीरवाले गर्गमुनि अग्रजसहित आपका नामकरण करनेको उद्यत हुए ॥३॥
उस समय मुनि ‘भला , जिसके हजारों अथवा अनन्त नाम हैं , उसका नामकरण मैं कैसे करूँ ?’ निश्र्चय ही इस विचारमें डूब गये । विभो !तत्पश्र्चात् एकान्तमें गर्गाचार्यने आपका नामकरण किया ॥४॥
ऋषिने कृषिधातु और णकारसे , जो क्रमशः सत्ता और आनन्दके वाचक हैं , आपकी सत्तानन्दस्वरूपता बतायी अथवा जगत्के पापका कर्षण करना —— यह आपका स्वभाव बताया और इसी तात्पर्यसे आपका नाम ‘कृष्ण ’ रख दिया ॥५॥
पुनः आपके अन्य विभिन्न नामोंकी व्याख्या करते हुए उन्होंने आपके अग्रजका ‘राम ’ आदि नाम रखा । तदनन्तर आपको (विष्णु हैं ——यों ) प्रकट न करते हुए उन्होंने नन्दाबाबासे आपका प्रभाव अलौकिक बताया ॥६॥
‘ जो आपके पुत्रसे स्नेह करेगा अर्थात् कृष्णभक्त होगा , वह पुनः मायिक शोकोंसे मोहित नहीं होगा —— उसे जनन - मरणादिके दुःखका अनुभव नहीं करना पड़ेगा । किंतु जो आपके पुत्रसे द्रोह करेगा अर्थात् कृष्णविमुख होगा , वह नष्ट हो जायगा । ’ इस प्रकार उन ऋषिश्रेष्ठने आपके महत्त्वका वर्णन किया ॥७॥
‘ यह बहुत - से दैत्योंको जी लेगा , अपने बन्धुसमुदायको अमल पदकी प्राप्ति करायेगा और अपनी अत्यन्त निर्मल कीर्तिका श्रवण करेगा। ’—— यों ऋषिने आपके ऐश्र्वर्यका कथन किया ॥८॥
‘ इसी पुत्रके द्वारा तुमलोग समस्त संकटोंसे पार हो जाओगे , अतः इस पुत्रमें तुमलोग आस्था बनाये रहो । ’ इस प्रकार ‘ ये विष्णु है ’ इतना ही मात्र न कहकर आपके कृष्णावतारके शेष कर्मोंका गर्गमुनिने वर्णन कर दिया ॥९॥
यों कार्य सम्पन्न करके गर्गमुनि वहॉंसे चले गये । तदनन्तर आनन्दित हुए नन्द आदि गोप बड़े लाड़ -प्यारसे आपका लालन -पालन करने लगे । श्रीमरुत्पुराधीश ! आप मुझपर कृपा करके मेरे रोगोंका निराकरण कर दीजिये ॥१०॥