संस्कृत सूची|संस्कृत साहित्य|पुस्तकं|श्रीनारायणीयम्|दशमस्कन्धपरिच्छेदः|
अष्टपञ्चाशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टपञ्चाशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्वयि विहरणलोले बालजालैः प्रलम्ब -

प्रमथनसविलम्बे धेनवः स्वैरचाराः ।

तृणकुतुकनिविष्टा दूरदूरं चरन्त्यः

किमपि विपिनमैषीकाख्यमीषाम्बभूवुः ॥१॥

अनधिगतनिदाघक्रौर्यवृन्दावनान्ताद्

बहिरिदमुयाताः काननं धेनवस्ताः ।

तव विरहविषण्णा ऊष्मलग्रीष्मताप -

प्रसरविसरदम्भस्याकुलाः स्तम्भमापुः ॥२॥

तदनु सह सहायैर्दूमन्विष्य शौरे

गलितसरणि मुञ्चारण्यसञ्जातखेदम् ।

पशुकुलमभिवीक्ष्य क्षिप्रमानेतुमारा -

त्त्वयि गतवति ही ही सर्वतोऽग्निर्जजृम्भे ॥३॥

सकलहरिति दीप्ते घोरभाङ्कारभीमे

शिखिनि विहतमार्गा अर्धदग्धा इवार्ताः ।

अहह भुवनबन्धो पाहि पाहीति सर्वे

शरणमुपगतास्त्वां तापहर्तारमेकम् ॥४॥

अलमलमतिभीत्या सर्वतो मीलयध्वं

दृशमिति तव वाचा मीलिताक्षेषु तेषु ।

क्व नु दवदहनोऽसौ कुत्र मुञ्चाटवी सा

सपदि ववृतिरे ते हन्त भाण्डीरदेशे ॥५॥

जय जय तव माया केयमीशेति तेषां

नुतिभिरुदितहासो बद्धनानाविलासः ।

पुनरपि विपिनान्ते प्राचरः पाटलादि -

प्रसवनिकरमात्रग्राह्यघर्मानुभावे ॥६॥

त्वयि विमुखमिवोच्चैस्तापभारं वहन्तं

तव भजनवदन्तःपङ्कमुच्छोषयन्तम् ।

तव भुजवदुदञ्चद्भूरितेजःप्रवाहं

तपसमयमनैषीर्यामुनेषु स्थलेषु ॥७॥

तदनु जलदजालैस्त्वद्वपुस्तुल्यभाभि -

र्विकसदमलविद्वुत्पीतवासोविलासैः ।

सकलभुवनभाजां हर्षदां वर्षवेलां

क्षितिधरकुहरेषु स्वैरवासी व्यनैषीः ॥८॥

कुहरतलनिविष्टं त्वां गारिष्ठं गिरीन्द्रः

शिखिकुलनवकेकाकाकुभिः स्तोत्रकारी ।

स्फुटकुटजकदम्बस्तोमपुष्पाञ्जलिं च

प्रविदधदनुभेजे देव गोवर्धनोऽसौ ॥९॥

अथ शरदमुपेतां तां भवद्भक्तचेतो -

विमलसलिलपूरां मानयन् काननेषु ।

तृणममलवनान्ते चारु सञ्चारयन् गाः

पवनपुरपते त्वं देहि मे देहसौख्यम् ॥१०॥

॥इति ग्रीष्मवर्षाशरद्वर्णनमष्टपञ्चाशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

ग्वालबालोंके समुदायके साथ जब आप क्रीड़ा -विहारमें व्यग्र थे और प्रलम्बासुरके वधके कार्यमें आपको अधिक विलम्ब हो गया , तब स्वेच्छानुसार विचरनेवाली गोएँ नयी -नयी घासके लिये उत्सुक हो दूरदूरतक चरी हुई किसी ऐषीक नामक वनमें जा पहुँचीं ॥१॥

जहॉं निदाघ (ग्रीष्म )- की उग्रताका पता नहीं चलता है , उस वृन्दावनकी सीमासे बाहर निकलकर वे सारी धेनुएँ इस ऐषीकवन (अथवा मुञ्चाटवी ) आ पहुँची थीं । एक तो वे आपके विरहसे व्याकुल थीं , दूसरे उष्णतासे पूर्ण ग्रीष्मऋृतुके तापके प्रसारसे उनके सारे अङ्ग पसीनेमें डूब रहे थे । अतः उस वनमें वे स्तब्ध खड़ी रह गयीं ॥२॥

वसुदेवनन्दन ! तदनन्तर आपने अपने सखाओंके साथ दूरतक पता लगाकर देखा कि पशुओंका समूह मार्गभ्रष्ट होकर मुञ्जारण्यमें जाकर अत्यन्त क्लेश उठा रहा है । यह देख उन गौओंको शीघ्र लौटा लानेके लिये आप ज्यां ही निकट गये , त्यों ही , हाय -हाय ! सब ओर दावानल फैल गया ॥३॥

सारी दिशाएँ प्रज्वलित हो उठी । घोर भाङ्काररवसे युक्त आग बड़ी भयानक प्रतीत होने लगी । उसमें मार्ग भूल जानेके कारण आपके सखा और गौएँ अधजली -सी होकर आर्तनाद करने लगीं । ‘अहह , भुवनबन्धो ! रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये ’— ऐसा कहते हुऐ वे सब -के -सब एकमात्र तापहारी आप भगवान्की शरणमें गये ॥४॥

तब आपने कहा ——‘अरे ! अत्यन्त भयभीत होनेकी आवश्यकता नहीं , तुम डरो मत । सब ओरसें अच्छी तरह मूँद लो । ’ आपके इस आदेशसे जब सबने नेत्र बंद कर लिये , तब कहॉं रहा वह दावानल और कहॉं गयी वह मुञ्जाटवी ? सब -के -सब उसी क्षण भाण्डीर वटके समीप विद्यमान हो गये । यह कैसा आश्र्चर्य है ॥५॥

‘ हे ईश ! आपकी जय हो , जय हो । आपकी यह कैसी माया है ?’ ग्वालबालोंके मुखसे इस प्रकार अपनी स्तुति सुनकर आप हँसने लगे और नाना प्रकारके लीला - विलासमें संलग्न हो गये । तत्पश्र्चात् जहॉं पाड़र आदि वृक्षोंके पत्र - पुष्पादिके समुदायमात्रसे गृहीत ग्रीष्मके तापका अनुभव नहीं होने पाता था , उस वनप्रान्तमें आप पुनः विचरने लगे ॥६॥

आपसे विमुख पुरुषकी भॉंति जो भारी तापका भार वहन करता है , आपके भजनकी भॉंति भीतरके पङ्कको सोख लेता है तथा आपकी भुजाओंके समान जिससे अत्यन्त तेजका प्रवाह उठता रहता है , उस तपन -समय (ग्रीष्म )-को आपने यमुना -तटवर्ती स्थलोंपर व्यतीत किया ॥७॥

इसके बाद आपके श्रीअङ्कोंके समान कान्तिवाले मेघोंके समूहसे , जो विकसित निर्मल विद्युद्रूपी पीताम्बरसे विलसित हैं , समस्त भुवनवासियोंको हर्ष देनेवाली वर्षा -ऋतुकी वेलाको पर्वतकी कन्दराओंमें स्वच्छन्दतापूर्वक निवास करके बिताया ॥८॥

देव ! उस समय वह गिरिराज गोवर्धन अपनी गुफामें निवास करनेवाले अत्यन्त गौरवशाली आपका निरन्तर सेवन करता रहा । मयूरकुलकी नूतन गौरवशाली आपका निरन्तर सेवन करता रहा । मयूरकुलकी नूतन केकावाणीद्वारा वह आपकी स्तुति करता था तथा खिले हुए कुटज और कदम्बके पुष्प -समूहोंसे आपके चरणोंमें पुष्पाञ्जालि चढ़ाता था ॥९॥

तदनन्तर आपके भक्तोंके चित्तके समान निर्मल जल -प्रवाहसे सुशोभित शरद ऋतु आ गयी । आप उसे सम्मान देते हुए विभिन्न काननोंके स्वच्छ वनप्रान्तमें गौओंको सुन्दर घास चराते हुए विचरने लगे । हे पवनपुराधीश्र्वर ! मेरे शरीरके रोग दूर करके आप मुझे दैहिक सौख्य प्रदान करे ॥१०॥


References : N/A
Last Updated : November 11, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP