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सप्तषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


स्फुरत्परानन्दरसात्मेकन त्वया समासादितभोगलीलाः ।

असीमममानन्दभरं प्रपन्ना महान्तमापुर्मदमम्बुजाक्ष्यः ॥१॥

निलीयतेऽसौ मयि मय्यमायं रमापतिर्विश्र्वमनोऽभिरामः ।

इति स्म सर्वाः कलिताभिमाना निरीक्ष्य गोविन्द तिरोहितोऽभूः ॥२॥

राधाभिधां तावदजातगर्वामतिप्रियां गोपवधूं मुरारे ।

भवानुपादाय गतो विदूरं तया सह स्वैरविहारकारी ॥३॥

तिरोहितेऽथ तावदजातगर्वामतिप्रियां गोपवधूं मुरारे ।

भवानुपादाय गतो विदूरं तया सह स्वैरविहारकारी ॥३॥

तिरोहितेऽथ त्वयि जाततापाः समं समेताः कमलायताक्ष्यः ।

वने वने त्वां परिमार्गयन्त्यो विषादमापुर्भगवन्नपारम् ॥४॥

हा चूत हा चम्पक कर्णिकार हा मल्लिके मालति बालवल्यः ।

किं वीक्षितो नो हृदयैकचौर इत्यादि तास्त्वप्रवणा विलेपुः ॥५॥

निरीक्षितोऽयं सखि पङ्कजाक्षः पुरो ममेत्याकुलमालपन्ती ।

त्वां भावनाचक्षुषि वीक्ष्य काचित्तापं सखीनां द्विगुणीचकार ॥६॥

त्वदात्मिकास्ता यमुनातटान्ते तवानुचक्रुः किल चेष्टितानि ।

विचित्य भूयोऽपि तथैव मानात्त्वया वियुक्तां ददृशुश्र्च राधाम् ॥७॥

ततः समं ता विपिने समन्तात्तमोऽवतारावधि मार्गयन्त्यः ।

पुनर्विमिश्रा यमुनातटान्ते भृशं विलेपुश्र्च जगुर्गुणांस्ते ॥८॥

तथाव्यथासंकुलमानसानां व्रजाङ्गनानां करुणैकसिन्धो ।

जगत्त्रयीमोहनमोहनात्मा त्वं प्रादुरासीरयि मन्दहासी ॥९॥

सन्दिग्धसन्दर्शनमात्मकान्तं

त्वां वीक्ष्य तन्व्यः सहसा तदानीम् ।

किं किं न चक्रुः प्रमादतिभारात्

स त्वं गदात् पालय मारुतेश ॥१०॥

॥ इति रासक्रीडायां भगवतस्तिरोभाववर्णनं भगवदन्वेषणवर्णनं भगवदविर्भाववर्णनं च सप्तषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

आप उच्छलनशील परमानन्दरसरूप हैं , आपके साथ भोगलीलाका आस्वादन करके असीम आनन्द -सिन्धुमें निमग्न हुई कमलनयनी गोपाङ्गनाओंको महान् अभिमान हो गया ॥१॥

गोविन्द ! ‘विश्र्व -मनोऽभिराम लक्ष्मीपति श्यामसुन्दर मुझमें , केवल मुझमें निश्छलभावसे अनुरक्त है। ’—— इस प्रकार उन सब गोपियोंको अभिमानसे पूरित देख आप वहॉं अन्तर्धान हो गये ॥२॥

मुरारे ! श्रीराधा नामवाली गोपाङ्गनाके मनमें गर्वका उदय नहीं हुआ । इसीलिये वे आपको अत्यन्त प्यारी हैं । अतएव उन्हींके साथ स्वेच्छानुसार विहार करनेके लिये आप उन्हें लेकर बहुत दूर चले गये ॥३॥

भगवन् ! आपके अन्तर्धान हो जानेपर उनके मनमें बड़ा संताप हुआ । विकसित कमल -दलके समान विशाल नेत्रोंवाली वे गोपकिशोरियॉं एक साथ मिलकर वन -वनमें आपको खोजती हुई अपार विषादमें डूब गयीं ॥४॥

उन सबके चित्तका प्रवाह आपकी ही ओर था । अतः वे ‘हा चूत (आम्र ), हा चम्पक , हा कर्णिकार (कनेर ), हा मल्लिके , हा मालती , हा नूतन वल्लरियो ! क्या तुमने हमारे एकमात्र चित्तचोर नन्दकिशोरको देखा है । ’—— इत्यादि रूपसे विलाप करने लगीं ॥५॥

कोई गोपी आपको ध्यान -नेत्रसें देखकर बोली —— ‘सखि ! मैनें कमलनयन श्रीकृष्णको देख लिया । यह रहे मेरे सामने । ’ इस प्रकार व्याकुलतापूर्वक बोलती हुई उस सखीने अपनी दूसरी सखियोंके संतापको दूना बढ़ा दिया ॥६॥

उनके मन -प्राण आपमें ही लगे थे । अतः वे यमुनाजीके किनारे आपकी लीलाओंका अनुकरण करने लगीं । तदनन्तर पुनः आपकी खोज आरम्भ करनेपर उन्होंने एक स्थानपर श्रीराधाको देखा , जिन्हें पूर्ववत् मानके ही कारण आपसे वियुक्त होना पड़ा था ॥७॥

तदनन्तर वे सब मिलकर उस वनमें चारों ओर तबतक आपकी खोज करती रहीं , जबतक कि घना अन्धकार नहीं हो गया । फिर वे मिलजुलकर यमुनाके तटपर लौट आयीं और अत्यन्त विलापपूर्वक आपके गुणोंका गान करने लगीं ॥८॥

करुणाके एकमात्र सागर नन्दनन्दन ! इस प्रकार जिनके हृदयमें विरह -व्यथा व्याप्त हो रही थी , उन व्रजाङ्गनाओंके बीचमें आप अपने त्रिभुवन -मोहन मोहन -रूपसे मन्द -मन्द मुस्कराते हुए प्रकट हो गये ॥९॥

जिनके दर्शनमें संदेह था , उन अपने प्रियतम प्रभु आपको सहसा देखकर उस समय उन तन्वङ्गनाओंने आनन्दातिरेकसे क्या -क्या नहीं किया । मारुतेश्र्वर ! वह आप रोगसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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