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पञ्चषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


गोपीजनाय कथितं नियमावसाने

मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्तः ।

सान्द्रेण चान्द्रमहसा शिशिरीकृताशे

प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनान्ते ॥१॥

सम्म्र्च्छनाभिरुदितस्वरमण्डलाभिः

सम्मूर्च्छयन्तमाखिलं भुवनान्तरालम् ।

त्वेद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य -

स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापुः ॥२॥

ता गोहकृत्यनिरतास्तनयप्रसक्ताः

कान्तोपसेवनपराश्र्च सरोरुहाक्ष्यः ।

सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते कान्तारदेशमयि कान्ततनो समेताः ॥३॥

काश्र्चिन्निजाङ्गपरिभूषणमादधाना

वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषाः ।

त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य -

स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥४॥

हारं नितम्बभुवि काचन धारयन्ती

काञ्चीं च कण्ठभुवि देव समागता त्वाम् ।

हारित्वमात्मजघनस्य मुकुन्द तुभ्यं

व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥५॥

काचित् कुचे पुनरसज्जितकञ्चुलीका

व्यामोहतः परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।

त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार -

राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥६॥

काश्र्चिद् गृहात् किल निरेतुमपारयन्त्य -

स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।

देहं विधूय पराचित्सुखरूपमेकं

त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्याः ॥७॥

जारात्मना न परमात्मतया स्मरन्त्यो

नार्यो गताः परमहंसगति क्षणेन ।

तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथञ्चि -

च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश़ृवीय ॥८॥

अभ्यागताभिरभितो व्रजसुन्दरीभि -

र्मुग्धस्मितार्द्रवदनः करुणावलोकी ।

निस्सीमकान्तिजलधिस्त्वमवेक्ष्यमाणो

विश्र्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥९॥

॥ इति रासक्रीडायां गोपीसमागमवर्णनं पञ्चषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

जिस दिन गोपियोंके कात्यायनी -पूजनका नियम समाप्त हुआ था , उस दिन आपने उनसे कहा था —‘आगामी शरद्ऋतुकी रातोंमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा । ’ तदनुसार आप प्रमोत्सव सम्पादित करनेके कार्यमें प्रवृत्त हुए । चन्द्रमाकी स्निग्ध चॉंदनीसे जहॉं सम्पूर्ण दिशाएँ शीतल हो गयी थीं , उस यमुना -तटवर्ती वन -प्रान्तमें आपने मुरली बजायी ॥१॥

विभो ! जिनमें स्वर -मण्डल सुस्पष्ट प्रकट हो रहे थे , उन मूर्च्छनाओंद्वारा समस्त भुवनोंमें व्याप्त हुए आपके वेणुनादको सुनकर तरुणी गोपकिशोरियॉं वैसे किसी अपूर्व चित्त -विमोहको प्राप्त हुईं ॥२॥

अयि कमनीय शरीरवाले श्यामसुन्दर ! वे कमललोचना गोपाङ्गानाएँ घरके काम -काजमें लगी थीं । कोई शिशुओंकी सँभाल कर रही थीं और कोई पतिकी सेवामें तत्पर थीं । किंतु वंशी -ध्वनिसे विमोहित वे सब काम छोड़कर उस दुर्गम वन -प्रान्तमें एक साथ आ पहुँचीं ॥३॥

कई अपने अङ्गोंमें आभूषण धारण कर रही थीं , अभी आधा ही आभूषण धारण कर पायी थीं कि वेणुनाद उनके कानोंमें पड़ा । फिर वे उसी अवस्थामें आपके पास पहुँचीं । परंतु विभूषित नारियोंकी अपेक्षा भी वे ही आपके नेत्रको अधिक सुन्दर प्रतीत हुईं ॥४॥

देव ! मुकुन्द ! कोई गोपी कटि -प्रदेशमें हार और कण्ठदेशमें करधनी धारण किये आपके पास चली आयी । वह मुग्धमुखी विशेषरूपसे आपके समक्ष अपने जघनस्थलकी मनोहरता मानो स्पष्ट शब्दोंमें कहती -सी प्रतीत हुई ॥५॥

कोई अपने कुचपर कञ्चुकी डाले बिना ही व्यामोहवश दूसरी स्त्रियोंकी दृष्टिसे बचती हुई आपके समीप आ पहुँची । वह आपको अनुपम प्रणयके बड़े भारी राज्यपर अभिषिक्त करनेके लिये मानो कलशी धारण किये आयी थी ॥६॥

देव ! कुछ गोपियॉं परवश होनेके कारण घरसे बाहर न निकल सकीं । अतः अपने हृदयमें दृढ़तापूर्वक आपकी ही भावना करके देह त्यागकर अद्वितीय परम चिदानन्दस्वरूप आप परब्रह्ममें ही समा गयीं । परंतु ये बड़भागिनी गोपियॉं धन्य -धन्य हो गयीं ॥७॥

उन व्रजनारियोंने जार -रूपमें नहीं , परमात्माके रूपमें आपका स्मरण करके क्षणभरमें परमहंस -गति प्राप्त कर ली । उन्हीं प्रकाशमय परमात्मविग्रह आपको किसी प्रकार चित्तमें धारण करके मैं भी अनायास ही अमृतत्व प्राप्त कर लूँ । (ऐसी कृपा कीजिये ) ॥८॥

चारों ओरसे आयी हुई व्रज -सुन्दरियोंने देखा —— आपका मुखारविन्द मुग्ध मुस्कानसे आदर्‌र है । आप करुणामयी दृष्टिसे सबको देख रहे हैं तथा असीम कान्तिके महासागर प्रतीत हो रहे हैं । विश्र्वके एकमात्र हृदयहारी रूपवाले पवनेश ! मेरे रोगोंको हर लीजिये ॥९॥


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Last Updated : November 11, 2016

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