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पञ्चसप्ततितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चसप्ततितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


प्रातः संत्रस्तभोजक्षितिपतिवचसा प्रस्तुते मल्लतूर्ये

सङ्घे राज्ञां च मञ्चानभिययुषि गते नन्दगोपेऽपि हर्म्यम् ।

कंसे सौधाधिरूढे त्वमपि सहबलः सानुगश्र्चारुवेषो

रङ्गद्वारं गतोऽभूः कुपितकुवलयापीडनागावलीढम् ॥१॥

पापिष्ठापेहि मार्गाद् द्रुतमिति वचसा निष्ठुरक्रुद्धबुद्धे -

रम्बष्ठस्य प्रणोदादधिकजवजुषा हस्तिना गृह्यमाणः ।

केलीमुक्तोऽथ गोपीकुचकलशचिरस्पर्धिनं कुम्भस्य

व्याहत्यालीयथास्त्वं चरणभुवि पुनर्निर्गतो वल्गुहासी ॥२॥

हस्तप्राप्योऽप्यगम्यो झटिति मुनिजनस्येव धावन् गजेंन्द्र

क्रीडान्नापत्य भूमौ पुनरभ्ज्ञिपततस्तस्य दन्तं सजीवम् ।

मूलादुन्मूल्य तन्मूलगमहितमहामौक्तिकान्यात्ममित्रे

प्रादास्त्वं हारमेभिर्ललितविरचितं राधिकायै दिशेति ॥३॥

गृह्णानं दन्तमंसे युतमथ हलिना रङ्गमङ्गीरभसहृतमनोलचना वीक्ष्य लोकाः ।

हं हो धन्यो नु नन्दो नहि नहि पशुपालाङ्गना नो यशोदा

नो नो धन्येक्षणाः स्मस्त्रिजगति वयमेवेति सर्वे शशंसुः ॥४॥

पूर्णं ब्रह्मैव साक्षान्निवधिपरमानन्दसान्द्रप्रकाशं

गोपेषु त्वं व्यालासीर्न खलु बहुजनैस्तावदावेदितोऽभूः ।

दृष्ट्वाथ त्वां तदेदंप्रथममुपगते पुण्यकाले जनौघाः

पूर्णानन्दा विपापाः सरसमभिजगुस्त्वत्कृतानि स्मृतानि ॥५॥

चाणूरो मल्लवीरस्तदनु नृपगिरा मुष्टिको मुष्टिशाली

त्वां रामं चाभिपेदे झटझटिति मिथो मुष्टिपातातिरूक्षम् ।

उत्पातापातनाकर्षणविविधरणान्यासतां तत्र चित्रं

मृत्योः प्रागेव मल्लप्रभुरगमदयं भूरिशो बन्धमोक्षान् ॥६॥

हा धिक् कष्टं कुमारौ सुललितवपुषौ मल्लवीरौ कठोरौ

न द्रक्ष्यामो व्रजामस्त्वरितमिति जने भाषमाणे तदानीम् ।

चाणूरं तं करोद्भ्रमणविगलदसुं पोथयामासिथोर्व्यां

पिष्टोऽभून्मुष्टिकोऽपि द्रुतमथ हलिना नष्टशिष्टैर्दधावे ॥७॥

कंसः संवार्य तूर्यं खलमतिरविदन् कार्यमार्यान् पितॄंस्ता -

नाहन्तुं व्याप्तमूर्तेस्तव च समशिषद् दूरमुत्सारणाय ।

खङ्गव्यावल्गदुस्संग्रहमपि च हठात् प्राग्रहीरोग्रसेनिम् ॥८॥

सद्योनिष्पिष्टसंधि भुवि नरपतिमापात्य तस्योपरिष्टात्

त्वय्यापात्ये तदैव त्वदुपरि पतिता नाकिनां पुष्पवृष्टिः ।

किं किं ब्रूमस्तदानीं सततमपि भिया त्वद्गतात्मा स भेजे

सायुज्यं त्वद्वधोत्था परम परिमयं वासना कालनेमेः ॥९॥

तद्भ्रातॄनष्ट पिष्ट्वा द्रुतमथ पितरौ संनमन्नुग्रसेनं

कृत्वा राजानमुच्चैर्यदुकुलमखिलं मोदयन् कामदानैः ।

भक्तानामुत्तमं चोद्धवममरगुरोराप्तनीतिं सखायं

लब्ध्वा तुष्टो नगर्यां पवनपुरपते रुन्धि मे सर्वरोगान् ॥१०॥

॥ इति कंसवधवर्णनं पञ्चसप्ततितमदशकं समाप्तम् ॥

दूसरें दिन प्रातःकाल भयभीत हुए भोजराज कंसकी आज्ञासे जब मल्ल -क्रीडाके प्रारम्भ होनेकी सूचना देनेवाले बाजे बजने लगे , राजाओंका समुदाय अपने -अपने मञ्चपर आसीन हो गया , गोपराज नन्द भी कोठेपर जा बैठे और कंस सौधशिखरपर विराजमान हो गया , तब आप भी बलरामसहित सुन्दर वेष धारण करके अनुगामी सखाओंके साथ रङ्गशालाके द्वारपर गये । वहॉं गजराज कुवलयापीड कुपित होकर द्वारको अवरुद्ध किये खड़ा था ॥१॥

उस समय आपने डपटकर कहा ——‘पापिष्ठ ! जल्दीसे मार्ग छोड़कर हट जा । ’ आपकी इस बातसे क्रूर महावत मन -ही -मन कुपित हो उठा । उसने हाथीको आपकी और प्रेरित किया । हाथीने अधिक वेगसे झपटकर आपको पकड़ लिया , परंतु आप खेल -खेलमें ही उसकी पकड़से निकल गये और गोपियोंके कुच -कलशके साथ चिरकालसे स्पर्धा करनेवाले उसके कुम्भस्थलपर मुक्केसे प्रहार करके उसके ही चरणोंके बीचमें छिप गये । फिर मधुर हासके साथ आप बाहर

निकल आये ॥२॥

यद्यपि आप सूँडद्वारा पकड़में आने योग्य थे , तथापि वह उसी प्रकार आपका स्पर्श नहीं कर पाता था , जैसे मुनिगण ध्यानद्वारा आपको नहीं पकड़ पाते । तब गजराजकी ओर दौड़ते हुए आप उसके साथ क्रीडा करते -करते स्वयं ही जान -बूझकर भूमिपर गिर पड़े । यह देख जब वह पुनः आपपर झपटा ; तब आपने प्राणसहित उसके दॉंतोंको जड़से उखाड़ लिया और दन्तमूलमें स्थित बहुमूल्य महामुक्ताओंको लेकर अपने मित्र श्रीदामाको यों कहते हुए दे दिया कि ‘तुम इन मुक्तओंद्वारा सुन्दर ढंगसे बना हुआ हार राधिकाको दे देना ’ ॥३॥

प्रभो ! तदनन्तर एक दॉंतको आप तथा दूसरेको बलरामजी कंधेपर रखकर , दोनों भाई रङ्गशालामें प्रविष्ट हुए । आपको देखते ही आपकी माङ्गलिक अङ्गभङ्गीने लोगोंके मन और नेत्रोंको बरबस अपनी ओर खींच लिया । तब वे लोग कहने लगे —— ‘अहो ! (जिनके ये पुत्र है , वे ) नन्द त्रिलोकीमें धन्य हैं । नहीं -नहीं , (जिन्होंने इनके आलिङ्गनादि सुखका अनुभव किया है , वे ) गोपाङ्गनाएँ धन्य हैं । नहीं -नहीं , (माता होनेके कारण ) यशोदाजी सर्वाधिक धन्य हैं । नहीं -नहीं , हमारे नेत्र धन्य हैं , जो इनका दर्शन कर रहे हैं ; और इनके द्वारा हमलोग ही इस त्रिभुवनमें सबसे अधिक धन्य हो गये हैं ॥४॥ ’

आप निस्सीम परमानन्दघन प्रकाशरूप साक्षात् पूर्ण ब्रह्म हैं , तथापि आपने गोपोंमें अवतीर्ण होकर लीला -विलास किया । परंतु बहुसंख्यक लोग आपके तत्त्वको जान न सके । पुण्यके फलदानोंन्मुख होनेपर वह सारा जनसमुदाय पहले -पहले आपका दर्शन करके पापरहित हो आनन्दसे परिपूर्ण हो गया । उन्हें आपकी लीलाएँ स्मरण हो आयीं और वे आनन्दपूर्वक उनका गान करने लगे ॥५॥

तत्पश्र्चात् राजाकी आज्ञासे मल्लयुद्धकुशल वीर चाणूर आपसे और मुष्टिशाली मुष्टिक बलरामजीसे जा भिड़ा । फिर तो झट -झट परस्पर मुष्टि -प्रहारसे अत्यन्त भीषण चटाचट शब्द होने लगा । दोनों ओरसे एक -दूसरेको ऊपर उछाल देना , भूमिपर पटक देना , परस्पर हाथ पकड़कर खींचना आदि विविध मल्ल -युद्धके दॉंव -पेंचकी क्रियाएँ होने लगीं । वहॉं आश्र्चर्यकी बात यह हुई कि वह मल्ल -युद्धका नायक मृत्युसे पहले ही बारंबार बन्धन और मोक्षको प्राप्त हुआ (वह अनेक बार आपकी पकड़में आया और छूटा ) ॥६॥

‘ हा धिक् ! कष्टकी बात है । कहॉं तो ये सुकुमार शरीरवाले दोनों कुमार और कहॉं वे व्रजके समान कठोर पलवान ! यह अन्याय है । हमलोग इसे नहीं देखेंगे ; चलो , जल्दी चलें । ’ इस प्रकार जब सब लोग कोलाहल कर रहे थे , तबतक उस चाणूरको , जिसके प्राणपखेरू हाथसे आकाशमें घुमाते समय ही उड़ गये थे , आपने भूतलपर दे मारा और हलधरने भी तुरंत ही मुष्टिकको पीस डाला । तत्पश्र्चात् मरनेसे बचे हुए शेष मल्ल भाग खड़े हुए ॥७॥

तब दुष्टबुद्धि कंसने बाजा बंद करवा दिया । उसे सामयिक कर्तव्यका ज्ञान तो रहा नहीं , इसलिये उसने उग्रेसन , वसुदेव और नन्द आदि गुरुजनोंको मार डालनेके लिये तथा सर्वव्यापी आपको दूर खदेड़ देनेके लिये आज्ञा दी । उस दुष्टकी वाणी सुनकर आप रुष्ट हो गये और उछलकर उसके पर्वतशिखर -सदृश ऊँचे मञ्चपर गरुडकी भॉंति जा पहुँचे । यद्यपि नंगी तलवारके चलानेसे उग्रसेनकुमार कंसको पकड़ना अशक्य था , तथापि आपने उसे धर दबोचा ॥८॥

फिर तुरंत ही उस नरेशके शरीरकी संधियोंको चूर -चूर करके उसे भूतलपर फेंक दिया और स्वयं आप उसके ऊपर कूद पड़े । कूदनेके साथ ही आपके ऊपर स्वर्गवासियोंद्वारा की हुई पुष्पवृष्टि गिरने लगी । क्या -क्या कहें ! अरे , उस समय ऐसी आश्र्चर्यजनक बात हुई कि भयसे भी निरन्तर आपमें चित्त लगानेवाला कंस सायुज्य -मुक्तिको प्राप्त हो गया । परमपुरुष ! यह केवल कालनेमिकी पूर्ववासना थी , जो आपके द्वारा किये गये वधसे उत्पन्न हुई थी (कंस कालनेमिका अवतार था और पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने कालनेमिको मारा था ) ॥९॥

तदनन्तर आपने कंसके आठ भाईयोंका कचूमर निकालकर तुरंत ही वसुदेव -देवकीके चरणोंमें नमस्कार किया और उग्रसेनको राजा बनाया । इस प्रकार सम्पूर्ण यदुकुलको उनका मनोरथ पूर्ण करके अतिशय आनन्दित किया । पुनः , जिन्हें देवगुरु बृहस्पतिसे नीतिकी शिक्षा मिली थी , उन भक्तश्रेष्ठ उद्धवको सखारूपमें प्राप्त करके आप परम संतुष्ट हुए और मथुरापुरीमें रहने लगे । पवनपुरपते ! मेरे सम्पूर्ण रोगोंको दूर कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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