अंबा n. काशीराज की तीन कन्याओं में से ज्येष्ठ । अपनी कन्याएं उपवर होने के कारण, काशीराज ने उनके स्वयंवर का निश्चय किया । तदनुसार देशदेशांतर के राजाओं को स्वयंवरार्थ निमंत्रण भेजे । इस स्वयंवर में कोई भी शर्त नहीं रखी गयी थी । काशीराज ने निश्चय किया था कि, जो सब से अधिक बलवान हो वह इनका हरण करे । चित्रांगद के निधनोपरांत, भीष्म अपनी सौतली मां की संमति से, विचित्रवीर्य के नाम पर हस्तिनापुर का राज्य चला रहा था । विचित्रवीर्य का विवाह नहीं हुआ था । स्वयंवर का समाचार मिलते ही, विचित्रवीर्य के लिये उन कन्याओं का हरण करने के लिये, भीष्म स्वयंवर को गया तथा वहां के समस्त राजाओं को हरा कर, तीनों कन्याओं को हरण कर ले आया
[म.आ.९६] । भीष्म ने हस्तिनापुर आकर, उन तीनों का विचित्रवीर्य से विवाह करने का निश्चित किया । इस बात का पता लगते ही, अंबा ने भीष्म से कहा कि, वह पहले से ही शाल्व से प्रेम करती है, इस लिये उसका विवाह विचित्रवीर्य से करना योग्य नहीं होगा । यह सुन कर भीष्म ने अंबा को दलबल सहित सम्मान के साथ शाल्व के पास भिजवा दिया । शाल्व ने उसका अंगिकार नहीं किया । भीष्म ने सबके सामने उसे हराया था, इस लिये अंबा के साथ विवाह करना शाल्व को योग्य नहीं लगा । अंबा फिरसे भीष्म के पास आयी और उससे कहा कि, आपने मुझे जीत कर लाया है, इस लिये शाल्व मुझे स्वीकार नहीं कर रहा है, अतएव आप ही मेरा वरण करें, यही योग्य होगा । परंतु भीष्म ने आजीवन ब्रहचर्य व्रत का पालन करने का प्रण किया था, इस लिये उन्हे अंबा की इच्छा अस्वीकृत करनी पडी । चारो ओर निराधार होने के कारण, अंबा अत्यंत दुःखित हुई । अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म है, इस लिये किसी प्रकार से भीष्म से प्रतिशोध लिया जाय, इस पर यह विचार करने लगी, तथा तप करने के लिये हिमालय की ओर चल पडी । हिमालय की ओर जाते समय, इसे राह में शैखावत्य ऋषि का आश्रम मिला । ऋषि को इसने अपना निश्चय बताया । तब उन्होंने इसे इसके निश्चय से परावृत्त करने का प्रयत्न किया । परंतु वह निष्फल हुआ और अंबा वहीं तप करने लगी । कुछ समय बाद होत्रवाहन नामक एक राजर्षि उस आश्रम में आये । वे अंबा के मातामह थे । अंबा की यह स्थिति देख वे अत्यंत दुखित हुए । अपनी नतिनी का दुःख दूर होने के लिये, उन्होने भीष्म के गुरु परशुराम के द्वारा भीष्म का परिपत्य कर, उसे अंबा को स्वीकार करने के लिये बाध्य करने का निश्चय किया । तदनुसार अपनी नतिनी को लेकर, वे परशुराम के पास जाने ही वाले थे कि, परशुराम का शिष्य अकृतव्रण वहॉं आ पहुंचा तथा उसने बताया कि, परशुराम इसी आश्रम की ओर आ रहे है । इस लिये होत्रवाहन परशुराम से मिलने के लिये वहीं रुक गये
[म.उ.१७३-१७६] । कुछ दिनों बाद, परशुराम उस आश्रम में आ पहुंचे । अंबा का वृत्तांत जान कर उसे दुःखमुक्त करने का उन्होने वचन दिया तथा भीष्म के पास संदेश भिजवाया कि, अंबा का स्वीकार करो अथवा युद्ध करने कि लिये तयार हो जाओ । भीष्म ने आजन्म ब्रह्मचर्य का अपना निश्चय परशुराम के पास भिजवाया तथा स्वयं युद्ध के लिये तैयार हो गये । आगे चलकर कुरुक्षेत्र में दोनों का भीषण युद्ध हुआ, जिस में कोई भी पराजित न हुआ तथा युद्ध रोक दिया गया । अंबा को यहा भी निराशा ही मिली परंतु भीष्म से बदला लेने का निश्चय इसने बिलकुल नहीं छोडा । भीष्म का वध करने के लिये शंकर की उपासना (कठोर तपस्या) प्रारंभ की । गंगा को इसका निश्चय मालूम होते ही, उसने अंबा को तप से परावृत्त करने का बहुत प्रयत्न किया । परंतु अंबा ने गंगा की एक न सुनी । तब गंगा ने उसे श्राप दिया कि, ‘तू अर्धाग से बरसाती नदी होगी)’ । अंबा फिर भी अपने निश्चय पर अटल रही
[म.उ.१८७] । कुछ कालोपरांत, महादेवजी उसकी तपश्चयी से संतुष्ट हो, वरदान देने को तयार हुए । अंबा ने भीष्म को मार डालने की अपनी इच्छा बतायी । तब महादेवजी ने वरदान दिया कि, इस जन्म में यह संभव नहीं है परंतु अगले जन्म में द्रुपद के घर पहले कन्या रुप में जन्म लेने के पश्चात् तुझे पुरुषत्त्व प्राप्त होगा । तू शिखंडी नाम से प्रसिद्ध होकर भीष्म का वध करेगी । इतना वरदान दे कर, शंकरजी अंतर्धान हो गये । अपना मनोरथ पूर्ण हुआ देख, अंबा ने अग्नि में प्रवेश कर, देहयाग क्रिया
[म.उ.१८८] महाभारत के कुम्भकोणम् प्रति में, उपरोक्त कथा दूसरे प्रकार दी गयी है, जो इस प्रकार है अंबा की उत्कृष्ट तपश्चर्या देख कर कार्तिकस्वामी ने प्रसन्न हो कर उसे एक प्रासादिक तथा दिव्य माला दे कर बताया कि, जो इस माला को धारण करेगा वह निःसंशय भीष्म का वध करेगी । अंबा ने वह माला ली । वह देशदेशांतर में यह पूछते हुए विचरन करने लगी ‘कोई क्षत्रिय, इस माला को धारण कर, भीष्म को मारने में समर्थ है?’ परंतु भीष्म का वध करने की इच्छा रखनेवाला एक भी क्षत्रिय उसे नहीं मिला । अंत में पांचालराज द्रुपद के अस्वीकार करने पर भी, अंबा राजमहल के दरवाजे पर माला फेंक कर चली गयी । तब द्रुपदने वह माला उठाकर अपने प्रासाद में रख ली । आगे चल कर शिखंडी ने उसी माला के योग से भीष्म का वध किया
[म.आ.परि १.५५]