मरुत् n. ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक सुविख्यात देवतागण, जो पं.सातवलेकरजी के अनुसार, वैदिक सैनिक संघटन एवं सैनिक संचलन का प्रतीक था । ऋग्वेद के तैतीस सूक्त इन्हे समर्पित किये गये हैं । अन्य सात सूक्त इन्द्र के साथ, एवं एक एक सूक्त अग्नि तथा पूषन् के साथ इन्हें समर्पित किया गया है । ये लोग देवों का एक समूह अथवा ‘गण’ अथवा ‘शर्धस्’ हैं, जिनका निर्देश बहुवचन में ही प्राप्त है
[ऋ.१.३७] । इनकी संख्या साठ के तीन गुनी अर्थात् एक सौ अस्सी, अथवा सात की तीन गुनी अर्थात् एक्कीस है
[ऋ.८.८५] ;
[ऋ.१.१३३] ;
[अ.वे.१३.१] । ऋग्वेद में इन्हें कई स्थानों पर सात व्यक्तियों का समूह कह गया है
[ऋ.५.६२.१७] ।
मरुत् n. ऋग्वेद में इनके जन्म की कथा दी गयी है, जहॉं इन्हे रुद्र का पुत्र कहा गया है
[ऋ.५.५७] । वेदार्थदीपिका में इन्हें रुद्रपुत्र नाम क्यों प्राप्त हुआ इसकी दो कथायें प्राप्त हैं । इनके जन्म होने पर इनके सैकडो खण्ड हो गये, जिन्हे रुद्र ने जोड कर जीवित किया । इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि, रुद्र ने वृषभरुप धारण कर पृथ्वी से इन्हें उत्पन्न किया
[वेदार्थदीपिका.२.३३] । इनकी माता का नाम पृश्नि था
[ऋ.२.३४,५.५२] । रुद्र का पुत्र होने के कारण, इन्हें ‘रुद्रियगण’ एवं पृश्निक पुत्र होने के कारण इन्हे ‘पृष्णिमातरः’ कहा गया हैं
[ऋ.१.३८.२३] ; । सम्भव है, पृश्नि का प्रयोग गाय के रुप मे हुआ हो, क्योंकि, अन्यत्र इन्हें ‘गोमातरः’ कहा गया है
[ऋ.१.८५] । ऋग्वेद में अन्यत्र कहा गया है कि, अग्नि ने इन्हें उत्पन्न किया
[ऋ.७.३] । वायु ने इन्हे आकाश के गर्भ में अवस्थित किया
[ऋ.१.१३४] । इस प्रकार ये आकाश में उत्पन्न हुए, जिस कारण इन्हें ‘आकाशपुत्र’
[ऋ.१०.७७] , ‘आकाश के वीर’
[ऋ.१.६४.१२२] कहा गया है । अन्य स्थान पर इन्हें समुद्र का पुत्र भी कहा गया है, जिस कारण इन्हें ‘सिन्द्धुमातरः’ उपाधि दी गयी है
[ऋ.१०.७८] । अन्यत्र इन्हे ‘स्वोद्भूत’ कहा गया है
[ऋ.१.१६८] । इनमें से सभी मरुत्गण एक दूसरे के भ्राता हैं, न उनमें कोई बडा है, तथा न कोई छोटा है
[ऋ.५.५९.१.१६५] । इन सबका जन्मस्थान एवं आवास एक है
[ऋ.५.५३] । इन्हे पृथ्वी पर वायु में एवं आकाश में रहनेवाले कहा गया है
[ऋ.५.६०] मरुत् n. इनका सर्वाधिक सम्बन्ध देवी ‘रोदसी’ से है, जो सम्भवतः इनकी पत्नी थी । देवी रोदसी को इनके साथ सदैव रथ पर खडी होनेवाली कहा गया है
[ऋ.५.५६] । इनका स्वरुप सूर्य के समान प्रदीप्त, अग्नि के समान प्रज्वलित एवं अरुणआभायुक्त है
[ऋ.६.६६] । इन्हे अक्सर विद्युत् से सम्बन्धित किया गया है । ऋग्वेद में प्राप्त विद्युत के सभी निर्देश इनके साथ प्राप्त हैं ।
मरुत् n. मरुत्गण मालाओं एवं अलंकारों से सुसज्जित कहे गये हैं
[ऋ.५.५३] । ये स्वर्णिम प्रावारवस्त्र धारण करते हैं
[ऋ.५.५५] । इनके शरीर स्वर्ण के अलंकारों से सजे हैं, जिनमें बाजूबन्द तथा ‘खादि’ प्रमुख हैं
[ऋ.५.६०] । इनके कन्धों पर तोमर, पैरों में ‘खादि’, वक्ष पर स्वर्णिम अलंकार, हाथों में अग्निमय विद्युत्, तथा सर पर स्वर्ण शिरस्त्राण बतलाया गया है
[ऋ.५.५४] । इनके हाथ में धनुषबाण तथा भाले रहते हैं । वज्र तथा एक सोने की कुल्हाडी से भी ये युक्त हैं
[ऋ.५.५२.१३, ८.८.३२] ।
मरुत् n. इनके स्वर्णिम रथ विद्युत के समान प्रतीत होते है, जिनके चक्रधार एवं पहिये स्वर्ण के बने हैं
[ऋ.१.६४.८८] । जो जबाश्व इनके रथों को खींछते हैं, वे चितकबरे हैं
[ऋ.५.५३.१] । सभी प्राणी इनसे भयभीत रहते हैं । इनके चलने से आकाश भय से गर्जन करने लगता है । इनके रथों से पृथ्वी तथा चट्टाने विदीर्ण हो जाती है
[ऋ.१.६४,५.५२] । इस लिए इन्हें प्रचण्ड वायु के समान वेगवान् कहा गया है
[ऋ.१०.७८] ।
मरुत् n. मरुतों का प्रमुख कार्य वर्षा कराना है । ये समुद्र से उठते हैं, एवं वर्षा करते हैं
[ऋ.१.३८] । ये जल लाते हैं, एवं वर्षा को प्रेरित करते हैं
[ऋ.५.५८] । जब ये वर्षा करते हैं, तब मेघों से अंधकार उत्पन्न कर देते हैं
[ऋ.१.३८] । ये आकाशीय पात्र एवं पर्वतों से जलधाराये गिराते हैं, जिस कारण पृथ्वी की एक नदी को ‘मरुद्वृद्धा’ (मरुतों द्वारा वृद्धि की हुयीं) कहा गया है
[ऋ.१०.७५] ।
मरुत् n. वायु के द्वारा निसृत ध्वनि ही मरुतों का गायन है, जिसके कारण इन्हें कई स्थानों पर गायक कहा गया है
[ऋ.५.५२.६०, ७.३५] । झंझावात के साथ समीकृत करके इन्हे स्वभावतः कई स्थानों पर इन्द्र की साथी एवं मित्र कहा गया है । ये लोग अपनी स्तुतियों तथा गीतों से इन्द्र की शक्ति एवं सामर्थ्य को बढाते है
[ऋ.१.१६५] । ये लोग इन्द्र के पुत्रों के समान है, जिन्हें इन्द्र का भ्राता भी कहा गया है
[ऋ.१.१००.१.१७०] ।
मरुत् n. विद्युत, आकाशीय गर्जन, वायु एवं वर्षा के साथ इनका जो विवरण प्राप्त है, इससे स्पष्ट है कि मरुत्गण झंझावात का देवता है । वैदिकोत्तर ग्रन्थों में इन्हें ‘वायु’ मात्र कहा गया है । किन्तु वैदिक साहित्य में ये कदाचित् ही वायुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्योंकि इनके गुण मेघों एवं विद्युत से गृहीत हैं ।
मरुत् n. मरुत् शब्द के व्युत्पत्ति पर विचार करने से पता चलता है कि मरुत् ‘मर’ धातु से निसृत हैं, जिसके अर्थ ‘मरना’, ‘कुचलाना’ अथवा ‘प्रकाशित होना’ तथा ‘शब्द’ होते हैं । इसमें से ‘प्रकाशित’ तथा ‘शब्द’ मरुत् के व्यक्तित्व एवं वर्णन से मेल खाते हैं एवं इसके अन्य अर्थ लेना अनुचित सा प्रतीत होता हैं । वेदार्थदीपिका में इनके नाम की व्युत्पत्ति कुछ अलग ढंग से जरुर दी गयी है । उसमें कहा गया है कि, जन्म लेते ही इन्हे ज्ञात हुआ कि इन्हे मृत्युयोग है, जिस कारण ये रोने लगे । इन्हें रोता देखकर इनके पिता रुद्र ने इन्हें ‘मा रोदीः’ (रुदन मत करो) कहा । इस कारण इन्हें मरुत् नाम प्राप्त हुआ
[वेदार्थदीपिका २.३३] । ऋग्वेद में इन्हें सम्बोधित करके लिखे गये सूक्त में एक संवाद प्राप्त है, जिसमें इन्हें कुशल तत्त्वज्ञानी कहा गया है, जो तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में अगस्त्य एवं इन्द्र से विचारविमर्श करते हैं
[ऋ.१.१६५] ।
मरुत् n. महाभारत तथा पुराणों में इन्हें दिति एवं कश्यप के पुत्र कहा गया है, एवं इनकी कुल संख्या उन्चास बतायी गयी है । वहॉं इनकी जन्मकथा निम्न प्रकार से दी गयी है---दिति के कश्यप ऋषि से सारे उत्पन्न पुत्र विष्णु द्वारा मारें गये । तत्पश्चात दिति ने कश्यप से वर मॉंगा, ‘इन्द्र को मारनेवाला एक अमर पुत्र मुझे प्राप्त हो’। दिति द्वारा मॉंगा हुआ वरदान कश्यप ने प्रदान किया, एवं गर्भकाल में व्रतावस्थां में रहने के लिए कहा । कश्यप के कथनानुसार, दिति व्रतानुष्ठान करते हुए रहने लगी । इन्द्र को जब यह पता चला कि, दिति अपने गर्भ में उसका शत्रु उत्पन्न कर रही है, तब वह तत्काल उसके पास आकर उस पुत्र को समाप्त करने के इरादे से साधुवेष में रहने लगा । एकबार दिति से अपने व्रत में कुछ गल्ती हुयी कि, इंद्रने योगबल से उसके गर्भ में प्रवेश कर उसके गर्भ के सात टुकडे कर दिये । किन्तु जब वे न मरे तब उसने उन सातों टुकडो के पुनः सात टुकडे कर के उन्हें उनचास भागों में काट डाला । इसके द्वारा काटे गये टुकडे रोने लगे, तब इन्द्र ने ‘मा रोदीः’ कहकर उन्हे शान्त किया, जिसके कारण इन्हे मरुत नाम प्राप्त हुआ । इन्हे टुकडे टुकडे कर दिया गया, एवं फिर भी जब ये न मरे, तब इन्द्र समझ गया कि ये अवश्य देवता के अंश हैं । गर्भ के अंशों ने भी इंद्र स्तुति की कि, उन्हे मारा न जाये । जब इन्द्र ने कहा, ‘आज से तुम सब हमारे भाई हो, तथा तुम सब को हम स्वर्ग ले जायेंगे । कालान्तर में दिति के उनचास पुत्र हुए, जिन्हे देखकर वह आश्चर्यचकित हो गयी एवं साधुवेषधारी इन्द्र से उसका कारण पूछने लगी । तब इन्द्र ने एक के स्थान पर कई पुत्र होने के रहस्य का उद्घाटन करते हुए सारी कथा बता कर कहा, ‘ये सारे पुत्र तुम्हारे तपःसामर्थ्य पर ही जीवित बचे हैं, जिन्हें में स्वर्ग में ले जाकर यज्ञ के हविर्भाग का अधिकरी बनाकर भाई की भॉंति रक्खुँगा
[म.आ.१३२.५३] ;
[शं.२०७.२] ;
[भा.६.१८] ;
[मत्स्य.७.१४६] ।
मरुत् n. रामायण में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । दिति की गर्भावस्था में साधुवेषधारी इंद्र उसकी सेवा में रहा । इन्द्र की सेवा से संतुष्ट रहकर दिति ने उससे कहा, ‘जिस गर्भ को तुम्हें मारने के लिए पाल रही हूँ वह तुम्हें न मारकर सदैव तुम्हारी सहायता करे यही मेरी इच्छा है’। किन्तु इन्द्र को सन्तोष न हुआ, एवं उसने दिति के गर्भ में प्रवेश कर के गर्भ को नाश करने के लिए उसके सात टुकडे किये । इस पापकर्म करने के उपरांत इन्द्र बाहर आया, एवं सारी कथा बात कर दिति से क्षमा मॉंगने लगा । फिर दिति ने उससे कहा, ‘तुम्हें मारने की तामसी इच्छा मैने की, अतः यह सर्वप्रथम मेरी ही गल्ती है । अब मेरी यही इच्छा है कि, तुम्हारे द्वारा किये गये गर्भ के सात टुकडे वायु के सप्तप्रवाह में प्रविष्ट होकर देवस्थान प्राप्त करें । इन्द्र ने दिति को वर प्रदान किया, जिस कारण मरुत्गणों के साथ दिति ने स्वर्ग प्राप्त किया
[वा.रा.बा.४७] । इन्द्र ने दिति के साथ इतना पापकर्म किया, फिर भी वह सत्य से अलग न रहा, एवं दिति से सदैव सत्य भाषण ही किया । इसपर सन्तुष्ट होकर दिति ने इन्द्र को वर दिया ‘मेरे होनेवाले पुत्र हमेशा तुम्हारे मित्र एवं सहयोगी रहेंगे
[स्कंद.६.२४] ;
[विष्णु१.२१,३.४०] ;
[पद्म. सृ.७] ;
[भू.२६] ।
मरुत् n. ब्रह्मांड में मरुतों के सात गणों की नामावली प्राप्त है, जिनमें से हरेक गण में प्रत्येकी सात मरुत् अंतर्भूत हैं । ब्रह्मांड में प्राप्त मरुद्नणों की नामावली इस प्रकार हैः--- प्रथम गण---१. चित्रज्योतिस्, २. चैत्य, ३. ज्योतिष्मत्, ४. शक्रज्योति, ५. सत्य, ६. सत्यज्योतिस्, ७. सुतपस् । द्वितीय गण---१. अमित्र, २. ऋतजित्, ३. सत्यजित्, ४. सुतमित्र, ५. सुरमित्र, ६. सुषेण, ७. सेनजित्। तृतीय गण---१. उग्र, २. धनद, ३. धातु, ४. भीम, ५. वरुण चतुर्थ गण---१. अभियुक्ताक्षिक, २. साहूय पंचम गण---१. अन्यदृश, २. ईदृश, ३. द्रुम,४. मित, ५. वृक्ष,६.समित्, ७. सरित्। षष्ठ गण---१. ईदृश, २. नान्यादृश्, ३. पुरुष, ४. प्रतिहर्तृ, ५. सम चेतन, ६. समवृत्ति, ७. संमित । सप्तम गण---इस गणों के मरुतों का नाम अप्राप्य है । किन्तु ब्रह्मांड के अनुसार, देव दैत्य एवं मनुष्ययोनियों से मिलकर इस गण के मरुत् बने हुए थे । उपरनिर्दिष्ट मरुद्नणों में से प्रत्येक गण में वास्तव में सात सात मरुत होने चाहिये, किन्तु कई मरुतों के नाम अप्राप्य होन के कारण, यह नामवली अपूर्ण सी प्रतीत होती है । महाभारत में मंकणपुत्रों को मरुद्नण के उत्पादक कहा गया है
[म.श.३७.३२] ।
मरुत् n. उपर्युक्त मरुद्नणों के निवास के बारे में विस्तृत जानकारी ब्रह्मांड एवं वायु में प्राप्त है, जो निम्न प्रकार हैः---
१
अनुक्रम - प्रथम गण
निवासस्थान - पृथ्वी
भ्रमण कक्षा - पृथ्वी से मेघ तक
२
अनुक्रम - द्वितीय गण
निवासस्थान - सूर्य
भ्रमण कक्षा - सूर्य से मेघ तक
३
अनुक्रम - तृतीय गण
निवासस्थान - सोम
भ्रमण कक्षा - सोम से सूर्य तक
४
अनुक्रम - चतुर्थ गण
निवासस्थान - ज्योतिर्गण
भ्रमण कक्षा - ज्योतिर्गणों से सोम तक
५
अनुक्रम - पंचम गण
निवासस्थान - ग्रह
भ्रमण कक्षा - ग्रहोंसे नक्षत्रों तक
६
अनुक्रम - षष्ठ गण
निवासस्थान - सप्तर्षि मंडल
भ्रमण कक्षा - सप्तर्षि मंडल से ग्रहों तक
७
अनुक्रम - सप्तम गण
निवासस्थान - ध्रुव
भ्रमण कक्षा - ध्रुव से साप्तर्षियों तक
[ब्रह्मांड. ३.५.७९ - ८८] ;
[वायु. ६७.८८ - १३५] ।
मरुत् II. n. एक पौराणिक मानवजातिसंघ, जो वैशालि नगरी के उत्तरीपूर्व प्रदेश में स्थित पर्वतों में निवास करता था । ये लोग प्रायः पर्वतीय प्रदेश में निवास करते थे, एवं अन्य मानवजातियों से इनका विवाहसंबंध भी होता था । सम्भव है, राम दाशरथि का परम भक्त हनुमान इस मरुत् जाति में उत्पन्न हुआ था । इस जाति का और एक सुविख्यात सम्राट मरुत्त आविक्षित था, जो इक्ष्वाकुवंशीय दिष्ट कुल का राजा था । मरुत आविक्षित भी वैशालि देश का ही राजा था । वैदिक पूजाविधि में अंतर्गत ‘मंत्रपुष्प’ के मंत्रों से प्रतीत होता है कि, मरुत आविक्षित राजा के यज्ञों में मरुत् लोगों ने ‘परिवेष्टु’ का काम किया था । इन जाति के लोग पहले तो मानव थे, किन्तु कालोपरान्त इन्हे देवत्व प्राप्त हुआ । यही कारण कि, पहले इन्हे यज्ञ का हविर्भाग नही मिलता था, जो कालोपरान्त इन्हे मिलने लगा ।