ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !
देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर आस समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन !
आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन !
डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण;
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण !
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर !
नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन !
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल !
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से !