दिन की इस विस्तृत आभा में, खुली नाव पर,
आर पार के दृश्य लग रहे साधारणतर ।
केवल नील फलक सा नभ, सैकत रजतोज्वल,
और तरल विल्लौर वेश्मतल सा गंगा जल-
चपल पवन के पदाचार से अहरह स्पंदित-
शांत हास्य से अंतर को करते आह्लादित ।
मुक्त स्निग्ध उल्लास उमड़ जल हिलकोरों पर
नृत्य कर रहा, टकरा पुलकित तट छोरों पर ।
यह सैकत तट पिघल पिघल यदि बन जाता जल,
बह सकती यदि धरा चूमती हुई दिगंचल,
यदि न डुबाता जल, रह कर चिर मृदुल तरलतर,
तो मै नाव छोड़, गंगा के गलित स्फटिक पर
आज लोटता, ज्योति जड़ित लहरों सँग जी भर !
किरणों से खेलता मिचौनी मैं लुक छिप कर,
लहरों के अंचल में फेन पिरोता सुंदर,
हँसता कल कल - मत्त नाचता, झूल पँग भर !
कैसा सुंदर होता, वदन न होता गीला,
लिपटा रहता सलिल रेशमी पट सा ढीला !
यह जल गीला नही, गलित नभ केवल चंचल,
गीला लगता हमें, न भीगा हुआ स्वयं जल ।
हाँ चित्रित-से लगते तूण-तरु भू पर बिम्बित,
मेरे चल पद चूम धरणि हो उठती कंपित ।
एक सूर्य होता नभ में, सौ भू पर विजड़ित,
सिहर सिहर क्षिति मारुत को करती आलिंगित ।
निशि में ताराओं से होती धरा जब खचित
स्वप्न देखता स्वर्ग लोक में में ज्योत्सना स्मित !
गुन के बल चल रही प्रतनु नौका चढ़ाव पर,
बदल रहे तट दृश्य चित्रपट पर ज्यों सुंदार ।
वह, जल से सट कर उड़ते है चटुल पनेवा,
इन पंखो की परियों को चाहिए न खेवा !
दमक रही उजियारी छाती, करछौहे पर,
श्याम घनों से झलक रही बिजली क्षण क्षण पर !
उधर कगारे पर अटका है पीपल तरुवर
लंबी, टेढ़ी जड़े जटा सी छितरी बाहर ।
लोट रहा सामने सूस पनडुब्बी सा तिर,
पूँछ मार जल से चमकीली करवट खा फिर ।
सोन कोक के जोड़े बालू के चाँदो पर
चोंचों से सहला पर, क्रीड़ा करते सुखकर ।
बैठ न पाती, चक्कर देती देव दिलाई,
तिरती लहरों पर सुफेद काली परछाँई ।
लो, मछरंगा उतर तीर सा नीचे क्षण मे,
पकड़ तड़पती मछली को, उड़ गया गगन में ।
नरकुल सी चोचे ले चाहा फिरते फर् फर् ।
मँडराते सुरखाब व्योम में, आर्त नाद कर, -
काले, पीले, खैरे, बहुरंगे चित्रित पर
चमक रहे बारी बारी स्मित आभा से भर !
वह, टीले के ऊपर, तूँबी सा, बबूल पर,
सरपत का घोंसला बया का लटका सुंदर !
दूर उधर, चंगल में भीटा एक मनोहर
दिखलाई देता है वन-देवों का सा घर ।
जहाँ खेलते छायातप, मारुत तरु-मर्मर,
स्वप्न देखती विजन शांति में मौन दोपहर !
वन की परियाँ धूपछाँह की साड़ी पहने
जहाँ विचरती चुनने ऋतु कुसुमों के गहने ।
वहाँ गिलहरी दौड़ा करती तरु डालों पर
चंचल लहरी सी, मृदु रोमिल पूँछ उठा कर ।
और वन्य विहगों-कीटों के सौ सौ प्रिय स्वर
गीत वाद्य से बहलाते शोकाकुल अंतर ।
वही कही, जी करता, मै जाकर छिप जाऊँ,
मानव जग के क्रंदन से छुटकारा पाऊँ ।
प्रकृति नीड़ मे व्योम खगों के गाने गाऊँ,
अपने चिर स्नेहातुर उर की व्यथा भुलाऊँ !