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पतझर

सुमित्रानंदन पंत - पतझर

ग्रामीण लोगोंके प्रति बौद्धिक सहानुभूती से ओतप्रोत कविताये इस संग्रह मे लिखी गयी है। ग्रामों की वर्तमान दशा प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देती है।


झरो, झरो, झरो !

जंगम जग प्रांगण मे,

जीवन संघर्षण में,

नव युग परिवर्तन में

मन के पीले पत्तो !

झरो, झरो, झरो !

सन्‌ सन्‌ शिशिर समीरण

देता क्रांति निमंत्रण !

यह जीवन विस्मृति क्षण,-

जीर्ण जगत के पत्तो !

टरो, टरो, टरो !

कँप कर, उड़ कर, गिर कर,

दब कर, पिस कर, चर्‌ मर्‌,

मिट्टी में मिल निर्भर,

अमर बीज के पत्तो !

मरो, मरो, मरो !

तुम पतझर, तुम मधु, - जय !

पीले दल, नव किसलय,

तुम्ही सृजन, वर्धन, लय,

आवागमनी पत्तो !

सरो, सरो, सरो !

जाने से लगता भय?

जग में रहना सुखमय?

फिर आओगे निश्चय !

निज चिरत्व से पत्तो !

डरो, डरो, डरो !

जन्म मरण से होकर,

जन्म मरण को खोकर,

स्वप्नों में जग सोअक्र,

मधु पतझर के पत्तो !

तरो, तरो तरो !

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References :

कवी - श्री सुमित्रानंदन पंत

फरवती' ४०

Last Updated : October 11, 2012

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